Sunday 16 March 2014

***_ होली _***
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ऐसा लगता है के जैसे
रंग सारे इंद्रधनुष के
घुल गए हों ज़ात में तेरी

उजली-उजली तेरी रंगत
हो चाँदनी की जैसी संगत
होंठ पे हैं थिरके रंग कत्थई
यूँ शाम बिखराये रंग सुरमई

तुम हँसो तो रुत गुलाबी
हो जाये मौसम भी शराबी
तेरी ज़ुल्फ़ों से खेलें घटायें
जैसे हम तुम्हें कभी सताएं

तेरे नैनों की ज्योति नीली-पीली
जैसे फूलों पे कोई तितली अकेली
तेरे आँचल में जादू परियोंवाली
जैसे फ़ज़ा हो कोई हरियाली

हो कोई तुम किरदार अंजानी
या मुझ में घुलता रंग आसमानी
क्यूँ छू लिया है तुमने लब से आसमाँ
सिंदूरी सा लग रहा आज सारा समाँ

आ बैगनी आसमान ओढ़ कर
ज़माने के रस्म सारे तोड़ कर
मेरे लब से अपने लब ज़ाल कर
प्यार से तू मेरे लब लाल कर

तू है, रंग है और जवाँ उमंग
पिचकारी मरेंगे आँखों से संग
घोल दे तू मुझमें अपने सारे रंग
बजने दे अब जिस्म का मृदंग

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- © नैय्यर /16-03-2014


***_ अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी बनाम मदरसा : संस्कृति के साथ भेदभाव _***
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"Do not show the face of Islam to others; instead show your face as the follower of true Islam representing character, knowledge, tolerance and piety." - Sir Syed Ahmed Khan

आज जो वर्तमान है वो इतिहास की नींव पर खड़ा है और हर वर्तमान को एक दिन इतिहास बनना है। इतिहास के गर्भ में ही समाई है अपनी सभ्यता और संस्कृति और हमारा उदय भी। एक हफ्ता पहले यानि 09-03-2014 को मैंने अंग्रेज़ी के मशहूर अख़बार 'टाइम्स ऑफ़ इंडिया' में ख़बर पढ़ी थी, Don’t turn AMU into a madrassa: Students (http://timesofindia.indiatimes.com/india/Dont-turn-AMU-into-amadrassaStudents/articleshow/31698057.cms) तब मैंने सोचा था कि आख़िर वो कौन से स्टूडेंट हैं जिन्हें AMU मदरसा नज़र आता है। पिछले हफ्ते मैं कुछ ज़यादा ही मसरूफ रहा, सो इस मुद्दे पे अब क़लम उठा रहा हूँ। उम्मीद है AMU और आपकी सोच के साथ इन्साफ़ कर पाउँगा।

सर सैयद अहमद ख़ान जो ब्रिटिश हुक़ूमत में ऊँचे ओहदे पे कार्यरत थे। 1858 में उनका तबादला मुरादाबाद कोर्ट में कर दिया गया जहाँ उन्होंने कई किताबें लिखीं, 1857 मैं ग़दर के बाद जिसमें बड़े पैमाने पर क़त्ल-वोग़ारत हुआ, वो बहुत बेचैन रहने लगे क्यूंकि ग़दर में मुसलमानों को बहुत ही ज़यादा नुकसान हुआ था। 1859 में उन्होंने एक बुकलेट छपवाया "असबाब-ए-बग़ावत-ए-हिन्द" जिसमें 1857 के विद्रोह की वजह और उसकी विफलता का कारण बताया। उन्होंने खुले लफ़्ज़ों में अंग्रेज़ों को भारतीय संस्कृति से खिलवाड़ करने पर लताड़ा। ब्रिटिश हुक़ूमत में मुसलमानों की उच्च पदों पर कम संख्या पर भी सवाल उठाया और मुसलमानों की भागीदारी उच्च पदों पर बढ़ाने की मांग की। जब सालों तक उनकी मांग को ब्रिटिश हुक़ूमत ने दरकिनार किया तो 1875 में सर सैयद अहमद ख़ान ने मुसलमानों को सरकारी नौकरी में जोड़ने के लिए मदरसतुल-उलूम-मुसलमानान-ए-हिन्द की बुनियाद रखी। इस से पहले 1866 में 'यूनाइटेड प्रोविंस'के देवबन्द में मुहम्मद क़ासिम ननौतवी और उनके साथियों ने दारुल उलूम देवबन्द की बुनियाद इस्लामिक स्कूल के रूप में रख दी थी लेकिन दारुल उलूम देवबन्द का मिशन उनके मिशन से अलग था। 'मदरसतुल-उलूम-मुसलमानान-ए-हिन्द' आगे चल कर 'मुहम्मडन एंग्लो-ओरिएण्टल कॉलेज' के नाम से मशहूर हुआ और कॉलेज से निकले बच्चे उनकी सोच में रंग भरने लगे। सर सैयद अहमद ख़ान का मिशन था इस्लामिक सोच के साथ मॉडर्न शिक्षा, उनका कहना था कि जो बच्चे यहाँ पढ़ने आयें उनके एक दाहिने हाथ में क़ुरान, बाएं हाथ में साइंस और सर पर 'ला इलाहा इ लल्लाह' का ताज हो। उनकी सोच और मिशन जो 'मदरसतुल-उलूम-मुसलमानान-ए-हिन्द' से शुरू हुई में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी बनी जिसे तात्कालिक ब्रिटिश हुक़ूमत ने सेंट्रल यूनिवर्सिटी का दर्जा दिया।

सर सैयद अहमद ख़ान अपने कॉलेज को कभी मदरसा नहीं बनाना चाहते थे। इंग्लैंड के सफ़र से वापसी के बाद उनकी सोच ये थी कि उनका कॉलेज 'ऑक्सफ़ोर्ड' और 'कैंब्रिज' की तरह हो। और यूनिवर्सिटी की आर्ट्स फैकल्टी उनके दिमाग़ में आये उसी ऑक्सफ़ोर्ड और कैंब्रिज का जीता जगता रूप है। वो विदेशी और उच्च शिक्षा के पक्षधर थे पर इस्लामिक मूल्यों के साथ। उस दौर में उन्होंने अंग्रेजी में शिक्षा देने के पक्ष में थे जिसपर लोगों ने उन्हें काफिर तक कहा जबकि उनका नज़रिया कुछ और था।

In one of his lecture Sir Syed stated: The main reason behind the establishment of this institution, as I am sure all of you know, was the wretched dependence of Muslims, which had been debasing the position day after day. Their religious fanaticism did not let them avail the educational facilities provided by the government schools and colleges. It was, therefore, deemed necessary to make some special arrangement for their education. Suppose, for example, there are two brothers, one of them is quite hale and hearty but other is diseased. His health is on the decline. Thus it is the duty of all brothers to take care of their ailing brother bear the hands in his trouble. This was the very idea which goaded me to establish the Mohammedan Anglo Oriental College. But I am pleased to say that both the brothers get the same education in this college. All rights of the college appertaining to those who call themselves Muslims are equally related to those who call themselves Hindus without any reservations. There is no distinction whatsoever between Hindus and Muslims. Only one who strive hard can lay claim to get the award. Here in this college Hindus as well as Muslims are entitled to get the stipends and both of them are treated at par as boarders. I regard both Hindus and Muslims as my two eyes".

Pandit Jawaharlal Nehru correctly saw the spirit of Sir Syed's mission when he started in his autobiography:

So, to this education he turned all his energy trying to win over his community to his way of thinking. He wanted no diversions or distraction from other directions: it was a difficult enough piece of work to overcome the inertia and hesitation of the Muslims. The Hindus, half a century ahead in Western education, could indulge in this pastime. Sir Syeds decision to concentrate on Western education for Muslims was undoubtedly a right one. Without that they could not have played any effective part in the building up of Indian nationalism of the new type, and they would have been doomed to play second fiddle to the Hindus with their better education and far stronger economic position. The Muslims were not historically or ideologically ready then for the bourgeois nationalist movement as they had developed no bourgeoisie, as the Hindus had done. Sir Syeds activities, therefore, although seemingly very moderate, were in the right revolutionary direction.

The establishment of M. A. O. College was described by Lord Lytton as an epoch in the social progress of India. Several decades later Sir Hamilton Gibb characterized the college as the first modernist institution in Islam.

सर सैयद अहमद ख़ान के बेटे सैयद महमूद (जो ब्रिटिश हुक़ूमत में हाई कोर्ट के पहले मुस्लिम जज और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के वाईस-चांसलर भी रहे) 1872 में कैंब्रिज से शिक्षा ले कर में वापस आये और 'मुहम्मडन एंग्लो-ओरिएण्टल कॉलेज' को यूनिवर्सिटी बनाने का सुझाव दिया जिसे कमिटी ने मान लिया और उस समय के ब्रिटिश इंडिया के पहले पूर्ण आवासीय विश्वविद्यालय की नींव पड़ी। यूनिवर्सिटी बनने से पहले कॉलेज पहले कलकत्ता विश्वविद्यालय और फिर 1885 में इलाहबाद विश्वविद्यालय से सम्बद्ध रहा। अगर मक़सद मदरसा बनाना होता तो दारुल-उलूम से इसका सम्बद्ध होता, कलकत्ता और इलाहबाद विश्वविद्यालय से नहीं और न अंग्रेज़ी में उच्च शिक्षा को बढ़ावा दिया जाता। वर्षों तक ये कॉलेज मुस्लिम शिक्षा और राजनीती का केंद्र रहा। 1901 में वाइसराय लार्ड कर्ज़न ने कॉलेज का दौरा किया, शिक्षा और विकास का काम देख आशचर्यचकित रह गए। उन्होंने प्रसंशा में कहा - "sovereign importance.”

जिस वक़्त देश में महिला शिक्षा को पाप माना जाता था उस समय यानि 1906 में कॉलेज ने महिला शिक्षा की बुनियाद डाली जो आज 'वीमेंस कॉलेज' के रूप में राष्ट्र सेवा में एक शताब्दी से अनवरत अपना योगदान दे रहा है। कोई मुझे ये बताये कि किस मदरसे ने महिला शिक्षा में इतना योगदान दिया है? दारुल-उलूम देवबंद में सिर्फ पुरुष ही शिक्षा पाते हैं और देश में कुछ ही मदरसे हैं जो महिला शिक्षा से जुड़े हैं वरना अधिकतर मदरसे में प्रारंभिक शिक्षा ही मिलती है लड़कियों को और मदरसों की हालत इस देश में क्या है, सबको पता है। सुल्तान जहाँ बेग़म 1927 में यूनिवर्सिटी की चांसलर बनी और आज तक ये किसी मदरसे के लिए ख्वाब है कि कोई महिला सर्वोच्च पद पर बैठ कमान सम्भाले।

1877 में Lord Lyyton ने कॉलेज के 'स्ट्रेची हॉल' की बुनियाद रखी। 1881 में ग्रेजुएशन की पढाई शुरू हुई और 1884 में ईश्वरी प्रसाद कॉलेज से पहले ग्रेजुएट हुए। 1884 में स्टूडेंट्स यूनियन का गठन हुआ और 1891 में क़ानून की पढ़ाई शुरू हो गयी। 1906 में प्रिंसेस ऑफ़ वेल्स का आगमन हुआ जिनके नाम पर साइंस फैकल्टी की स्थापना और नामकरण हुआ। 1920 में महात्मा गांधी कॉलेज में पधारे। 1922 में पहला दीक्षांत समारोह हुआ। 1927 में ब्लाइंड स्कूल, 1928 में तिब्बिया कॉलेज, 1938 में इंजीनियरिंग फैकल्टी शुरू हुई। 1955 में पंडित नेहरू नें मौलाना आज़ाद लाइब्रेरी कि उद्घाटन किया। 1956 में मेडिकल कॉलेज शुरू हुआ। 1960 में फोर्ड फाउंडेशन, अमेरिका द्वारा दिए गए 22 लाख रुपए से कैनेडी ऑडिटोरियम की नींव रखी गयी। 1961 में आर्ट्स और कॉमर्स फैकल्टी, 1966 में वीमेंस पॉलीटेकनिक तो 1969 में सोशल साइंस की पढाई शुरू हुई जो किसी भी मदरसे के लिए एक स्वप्न सा है। देश या विदेश में कितने ऐसे मदरसे हैं जिनके पास अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की तरह विरासत, संस्कृति और तालीम का अलग मेयार है।

अब बात मदरसे वाली मानसिकता की। सारी दुनिया में AMU अपनी तहज़ीब और विरासत के लिए जानी जाती है। बहुत पहले शेरवानी ड्रेसकोड हुआ करता था अब वो भी नहीं है। सब कुछ पहनने की आज़ादी है पर इतनी सी पाबन्दी ये है कि आन बग़ैर शेरवानी के कुरता-पाजामा नहीं पहन सकते। जब लड़कों के पहनने पर कोई पाबन्दी नहीं हैं तो लड़कियों पर कैसे लग सकती है कोई पाबन्दी, पर हम आधुनिकता के बहाने यूनिवर्सिटी कैंपस में अपनी तहज़ीब, अपना कल्चर नंगेपन में नहीं ढाल सकते। नंगापन न तो भारत कि संस्कृति है और न मुसलमान की। जिनको यूनिवर्सिटी की संस्कृति और तहज़ीब से इतना बैर है वो यूनिवर्सिटी छोड़ के चले क्यूँ नहीं जाते? वो वहाँ चले जाएं जहाँ मदरसा उनके सोच से परे ही रहे। जब जीन्स,टी-शर्ट, जीन्स-कुर्ती पहनने की आज़ादी है फिर काहे का मदरसा? आप ये सब मदरसे में पहन सकते हैं क्या? जब कहीं से कोई मुद्दा न मिले तो बैठे ठाले यूनिवर्सिटी को बदनाम करने का कोई बहाना ढूँढ लेना मेरी नज़र में यूनिवर्सिटी के साथ गद्दारी है। जिस थाली में खाओ उसी में छेद करने के जैसा है उनका विचार जो इस अज़ीम यूनिवर्सिटी की आबरू पर कीचड़ उछालते हैं। AMU में General Education Centre है जहाँ ड्रामा क्लब, म्यूजिक क्लब, लिटरेरी क्लब, फ़िल्म क्लब, पेंटिंग, क्ले मॉडलिंग और शॉर्ट कोर्सेज के कई सरे क्लब हैं जहाँ लड़के लड़कियां साथ में अपने हुनर को निखारते हैं। यूनिवर्सिटी ने हर क्षेत्र में कई सरे रत्न पैदा किया हैं और सबका नाम गिनाना मुमकिन नहीं, आप उन सितारों के नाम यहाँ पढ़ सकते हैं http://www.amu.ac.in/pdf/Alumni.pdf

भारत की पहली बोलती फ़िल्म 'आलमआरा' में आवाज़ भी इसी यूनिवर्सिटी की स्टूडेंट ज़ुबेदा कि थी। तब हेरोइनें अपना गाना ख़ुद गति थी। फ़िल्म के अलावा खेल, शिक्षा, राजनीती, चिकित्सा, वाणिज्य, अभियांत्रिकी, कला, साहित्य, विज्ञानं और ज़िन्दगी से जुड़े हर क्षेत्र में इस विश्वविद्यालय के स्टूडेंट ने अपना नाम रौशन किया है। बाक़ी नाम तो शायद ही ज़ेहन में आये पर क्या कोई मुहम्मद अली, शौकत अली, हसरत मोहानी, राजा महिंदर प्रताप, सैयद हुसैन, रफ़ी अहमद क़िदवई, मुहम्मद युनुस, डॉ. ज़ाकिर हुसैन, अयूब ख़ान, लियाक़त अली ख़ान, सईद खान छत्तारी, शैख़ अब्दुल्लाह, अब्दुल ग़फ़ूर, शफ़ी क़ुरैशी, बी.पी. मौर्या, सैयद मोहम्मद, अब्दुल हक़, के.एम. पणिकर, मोहम्मद हबीब, हादी हसन, फानी बदायुनी, जोश मलीहाबादी, मजाज़, जज़बी, अली सरदार जाफ़री, सज्जाद हैदर यलदरम, मंटो, इस्मत चुग़ताई, क़ाज़ी अब्दुल सत्तार, रशीद अहमद सिद्दीक़ी, राजा राव, साजिदा ज़ैदी, ज़ाहिदा ज़ैदी, रविन्द्र भरमार, शिव शंकर शर्मा, नुरुल हसन, सतीश चन्द्रा, ए. आर. क़िदवई, मसूद हुसैन ख़ान, रईस अहमद, मोनिस रज़ा, ज़हूर क़ासिम, के. ए. निज़ामी, महमूद बट, बेग़म परा, नीना, रेणुका देवी, तलत महमूद, शकील बदायुनी, रही मासूम रज़ा, जां निसार अख्तर, जावेद अख्तर, रहमान, तबस्सुम, नसीरुद्दीन शाह, दिलीप ताहिल, अभिनव, ग़ौस मुहम्मद, वज़ीर अली, नज़ीर अली, लाला अमरनाथ, सी. एस. नायडू, मुस्ताक अली, मुहम्मद ज़फर, इनामुर रहमान, गोविंदा, ज़फर इंकबाल, अब्दुल क़य्यूम, सैयद अली, अनवर ख़ान, डोरास्वामी इत्यादि नाम तो ऊँगली पे गिने ही जा सकते हैं जो किसी मदरसे से सम्बद्ध नही बल्कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की देन हैं।

दरअसल, कुछ लोग ऐसे हैं जो इस यूनिवर्सिटी को फलते फूलते नहीं देख सकते, और ऐसे मुट्ठी भर लोग ही यूनिवर्सिटी को बदनाम करते हैं जबकि करोड़ों लोग इस यूनिवर्सिटी पर मर मिटने को तैयार हैं। मजाज़ के लफ़्ज़ों में अगर कहूं तो - ख़ुद आँख से हमने देखी है बातिल कि शिकश्त-ए-फाश यहाँ।

© नैय्यर /16-03-2014

Saturday 15 March 2014

***_ ख़लिश _***
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एक मनचाही हस्ती को न पाना शायद उतना तकलीफदेह नहीं होता, जितना अज़ीयतनाक किसी शख्स से मिल के बिछड़ जाना होता है। हालाँकि मैं उसे जानता तक नहीं मगर इस नादान दिल ने बारहा उसकी तमन्ना की है और ये तमन्ना तब से है...जब उसे पहली बार देखा था।

बात दिसम्बर 2009 की है जब मुझे ONGC के इंटरव्यू के लिए दिल्ली जाना था। मुझे अलीगढ़ में भी कुछ काम था इसलिए मैं एक ही बार के सफ़र में दोनों काम निपटा देना चाहता था। सागर से अलीगढ़ के लिए कोई डायरेक्ट ट्रेन नहीं है सो मैंने सागर से आगरा कैंट तक ट्रेन से और फिर वहाँ से अलीगढ़ तक बस से सफ़र करने के अपने प्लान को वक़्त के सांचे में ढाल गोंडवाना एक्सप्रेस में टिकट बुक कर लिया, वैसे इंटरव्यू के लिए स्लीपर क्लास का किराया वापस मिलना था पर ठण्ड में सामान का बोझ कौन बढ़ाये ये सोचकर मैंने तीसरे दर्जे के वातानुकूलित कोच में टिकट बुक किया। नियत दिन-समय को मैं स्टेशन पहुंचा, बी-3, 24 नंबर बर्थ पे बैग फेंका। माहौल में नींद की ख़ुमारी घुली हुई थी, नये चढ़ने वाले पैसेंजर्स नें माहौल को थोड़ी देर गरमाये रखा पर रात, नींद और ठण्ड के सामने सब हार गए और नींद की आगोश में समा गए। मैं भी अपने बिस्तर में दुबक गया। मुझे न जाने क्यूँ वातानुकूलित कोच ऐसा लगता है जैसे ताबूत पे ताबूत रखे हों। कोई किसी से बात ही नहीं करता है, सब परदे बराबर किये अपने-अपने ताबूत में जी रहे थे। मेरी सोचों पे नींद ने कब क़ब्ज़ा किया पता ही नहीं चला। सुबह चार बजे कि अलार्म से नींद खुली। ठन्डे पानी के छींटे ने अधूरी नींद को आँखों से छीन लिया। आधे घंटे के इंतज़ार के बाद कुहासे से लिपटे आगरा छावनी स्टेशन पर ट्रेन रुकी। बदन को गरमाने और वक़्त गुज़ारी के लिए कॉफ़ी का बड़ा कप थामे कुहासे से सहमे हुए नज़ारे को सुब्ह के इंतज़ार के लिए बेचैन होता देखता रहा। कॉफ़ी ख़तम कर मैं ऑटो से बस स्टैंड पहुँचा।

ठण्ड की वजह से बस में ज़यादा मुसाफिर भी नहीं थे। इक्का-दुक्का लोग थे। आधे घंटे तक मुसाफिरों का इंतज़ार करने के बाद बस मुश्किल से बीस मिनट चली होगी के झटके से रुक पड़ी। मैं झुंझला के अपनी सीट पे पहलु बदला तो देखा कि बस में दो लड़कियां सवार हुईं। उन दोनों के पास छोटा सा सफरी बैग था। हाथों में दबी किताबों को देख कर उनके स्टूडेंट्स होने पर कोई शक न रहा। मैंने उनपर उचटती सी निगाह डालने के बाद खिड़की से बाहर देखना शुरू कर दिया। उस वक़्त हलके-हलके उजाले और कोहरे की आड़ में छुपे दम तोड़ते अँधेरे में हर तरफ एक सुकून सा ठहरा हुआ था। मैं दिलचस्पी से बाहर के मंज़र में गुम हो गया। बस रफ़्तार पकड़ चुकी थी और उस वक़्त यमुना नदी पर बने पुल से गुज़र रही थी।

धीरे-धीरे सुबह अपने पर फैला रही थी। बाहर के नज़ारे से जब जी भरने पर मैंने रुख़ मोड़ कर जैसे ही निगाह सामने किया, ड्राइविंग सीट के सामने लगे 'बैक व्यू मिरर' पर झिलमिलाता एक अधूरा सा अक्स मुझे मबहुत कर गया। कई लम्हे यूँही बेधयानी में उसे तकते ही गुज़र गईं। मैं जैसे वक़ती तौर पर भूल ही गया था कि मैं कहाँ हूँ और अनजाने में क्या हरकत कर रहा हूँ। कुछ देर पहले जब मेरी नज़र ग़ैर इरादी तौर पर बस में चढ़ती उन लड़कियों की तरफ उठी थी तो मैंने फ़ौरन ख़ुद को ग़लत हरकत पर टोकते हुए बाहर कि तरफ़ धयान लगाया था...और अब...मैं ख़ुद ही...

"तब उस मटियाले से अँधेरे में ये ख़ुशगवार आँखें यूँ चमकी भी तो नहीं थी", मैं हौले से मुस्कुराया।

अच्छी आँखें मेरी कमज़ोरी हैं, और ये आँखें...जो उस वक़्त आईने पर चिपकी हुई थी...सिर्फ अच्छी ही नहीं बल्कि सब से मुनफ़रिद सब से निराली थी। अगरचे इतने फासले और कम रौशनी की वजह से उन आँखों कि असल रंगत तक पता नहीं चल रही थी उसके बावजूद उनकी झिलमिलाहट और गहराई अपनी इंफरादियत का ऐलान पुकार-पुकार कर कर रही थी। मैंने एक बार फिर उन आँखों कि गहराई पर ग़ौर किया... यूँ लग रहा था जैसे ये आँखें उसके चेहरे पर ही बल्कि पुरे वजूद पर छाई हों। न सिर्फ उसके वजूद पर बल्कि आस पास के सारे माहौल और फ़ज़ा पर...

माहौल से मेरे ज़ेहन में एकदम झमका सा हुआ और मैं हड़बड़ा के चरों तरफ़ देखा कि कहीं मेरी चोरी पकड़ी तो नहीं गयी। ज़यादातर लोग ऊँघ रहे थे, कुछ अख़बार पढ़ने में मसरूफ़ थे लेकिन फिर भी मैं मोहतात हो गया कि कहीं मेरा टकटकी बाँध के सामने देखते रहना मुझे मशकूक न बना दे। न चाहते हुए भी मैंने सीट पे सर टिकाया और पलकें मूँद ली। हैरतअंगेज़ तौर पर अब मैं बंद पपोटों के परदे के पीछे भी वही आँखें झिलमिलाते हुए देख रहा था।

न जाने कितना वक़्त गुज़र गया था। मैं तब चौंका जब मोबाइल की 'बीप' ने बस कि ख़ामोश फ़िज़ा में हल्का सा इरतआश पैदा किया। उन लड़कियों में से किसी एक कि मद्धिम सी आवाज़ सुनाई दी।

"जी अम्मी, हाथरस गुज़र गया है … नहीं नहीं ... परेशानी तो कोई नहीं हुई"

मैंने सीट पर सीधे हो के बैठते हुए ध्यान दिया। उन लड़कियों कि सीट और मेरे सीट के दरमियान वाली सीट न जाने किस वक़्त ख़ाली हुई मुझे पता ही नहीं चला और अब एक सीट आगे बैठी वो दोनों लड़कियां मुझे थोड़ी दिखाई भी देने लगी थी और उनकी आवाज़ भी साफ़ सुनाई दे रही थी। मोबाइल कान से लगाये अपनी अम्मी को तसल्लियाँ देती वो दूसरी लड़की थी जबकि "वो" उसकी तरफ मोतवज्जा होने कि वजह से अब आईने को अपनी आँखों से अक्स कि गिरफ्त से आज़ाद कर चुकी थी। मैं जो ख़ुद को झिड़क कर बड़ी मुश्किल से इस हरकत से रोके रखा था आँखें खोलते ही फिर से उस मंज़र के आस में बेचैन हो उठा। मुझे ख़ामख्वाह में ही फोन वाली लड़की से चिड़ होने लगी जो "उस" कि सारी तवज्जह अपनी जानिब खींचे हुए थी। "वो" भी न जाने क्या कहने के लिए बार-बार उसे इशारे कर रही थी।

"जी अम्मी, कोई परेशानी नहीं है, मैं पहुँच के आपको कॉल करुँगी और मीरू भी तो मेरे साथ है फिर आप क्यूँ परेशान हुए जा रही हैं?"

"मीरू", मैं दोहरा के रह गया। ये कैसा नाम है भला। शायद मारिया, मोनिका, महरीन, माहीन, मरयम, मीनाक्षी, महिमा, मनाल...जितने मिलते जुलते नाम थे सब सोच के दोहरा लिया। क्या उसका नाम रखने वालों ने ये आँखें नहीं देखी होंगी, इन आँखों पर तो बन्दा पूरा का पूरा दीवान लिख डाले। क्या एक अच्छा सा नाम भी नहीं रखा जा सकता था जो उन आँखों को खिराज-ए-तहसीन पेश कर पता, जैसे कि "नैना"…

"अपनी ही कहे जाती हो मेरी भी तो बात कराओ आंटी से", उसकी झुंझलाई हुई सी दबी-दबी आवाज़ आई और उसकी सुरीली आवाज़ ने मेरे दिल के जलतराग को छेड़ दिया।

''मुझे आंटी से कहता है कि मेरे घर भी फोन कर के ख़ैरियत की इत्तेला दे दें"

"अरे पहले पहुँच तो जाएँ फिर इत्मीनान से फोन कर के अपनी ख़ैरियत और पहुँचने कि रूदाद सबको सुनाते रहना"

अपनी सहेली कि इस बेईमानी पर "वो" उस से झगड़ने लगी और मैं उनकी बातों से अपने मतलब कि बात छांटने लगा। वो दोनों आगरा कि ही थी और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्टूडेंट्स थी।

कुछ देर बाद बस पेट्रोल पंप पे रुकी तो बाक़ी मुसाफिरों के साथ मैं भी नीचे उतरा और थोड़ी देर बाद वापस चढ़ते वक़्त जान बुझ कर उनके पीछे वाली ख़ाली सीट पर बैठ गया। उतरते और चढ़ते वक़्त मैं उनके क़रीब से गुज़रा और हाथ में पकड़ी 'एनाटोमी' और 'एम्ब्रयोलॉजी' की किताबें देख कर ये जाना कि वो मेडिकल कि स्टूडेंट्स हैं। मोटी सी वो किताब मुझे उस वक़्त रक़ीब से कम नहीं लग रही थी जिसने उस चाँद चेहरे, सितारे आँखों को ओट में ले रखा था। मैं बार-बार आईने पर नज़र डालता और किताब को उसके चेहरे पे देख कर चिड़ जाता। थोड़ी देर बाद शायद उसने थक के किताब नीचे किया और सर को सीट से टिका का आँखें मूँद लिया।

पलकों नें आँखों को परदे में लेकर उसके चेहरे के बाक़ी नक़श उभार दिए थे। मैंने तस्लीम किया कि उन दो आँखों के ख़ज़ीने के अलावा भी उसने कई सौग़ातें समेट रखी हैं। मैं उसे देखता रहा तभी अचानक आईने पर फिर से दो सुरमई झीलें उभरने लगी।

सूरज कि कोमल किरणें उन आँखों का सहर अंगेज़ रंग इंद्रधनुष में लपेट के आईने पर उतार रही थी। नीला, पीला, गुलाबी, कसनी, सुरमई रंगों का एक मेला था और "वो" उस मेले कि शान।

मैं उस मेले में खो जाना चाहता था, और खो ही रहा था कि अचानक मेला अपनी तमाम तर रौनकें समेटने लगा। अलीगढ़ में बस के रुकते ही वो दोनों उठ खड़ी हुई। मैं फुर्ती से उठ कर उनके बैग सीट के ऊपर लगे स्टैंड से उतरा। दिल में हलकी से उम्मीद के शायद दुबारा राब्ते कि कोई उम्मीद पैदा हो सके लेकिन ज़ाहिर है कि ये नामुमकिन था सो नामुमकिन ही रहा।

दूसरी लड़की ने तो अपना बैग मेरे हाथ से लेते हुए ज़रा सा मुस्कुरा के 'थैंक यू' भी कहा लेकिन "मीरू" ने मेरा शुक्रिया अदा करना तो दूर मेरी तरफ देखा भी नहीं। मैंने ख़ाली सीट पर कुछ तलाश करना चाहा, कोई किताब, कोई वरक़, कोई निशानी मगर वहाँ कुछ भी न था। "वो" सबकुछ अपने साथ ले गयी थी सिवाए अपनी आँखों के।

मैं अपना होश और बैग सँभालते नीचे उतरा तो वो रिक्शे पे बैठी जा रही थी। मैं भी जल्दी में रिक्शे पे बैठा और रिक्शावाले को उनके पीछे चलने को कहा। रिक्शा हौले-हौले आगे बढ़ता रहा और मैं उन आँखों की जादू में खोया रहा। होश तब आया जब रिक्शा एडमिनिस्ट्रेटिव बिल्डिंग, वीसी बंगला, आर्ट्स फैकल्टी, इंजीनियरिंग फैकल्टी, एथलेटिकस ग्राउंड पार कर सरोजनी नायडू हॉल के पास रुका। मैंने अपने रिक्शे से पीछे पलट के उन सुरमई आँखों को आख़री बार देखा और मेरा रिक्शा हबीब हॉल कि तरफ मुड़ चला।

और वो आँखें उस रोज़ से मेरे पास हैं, मेरे दिल के कहीं बहुत अंदर।

-Naiyar Imam 'नैय्यर' / 14-02-2014

(नोट: ये घटना काल्पनिक है, सच्चाई से दूर-दूर तक इसका कोई सम्बन्ध नहीं, पास का भले हो सकता है पर मुझे सटीक जानकारी नहीं। बस रत्ती भर सच्चाई इंटरव्यू वाली बात में है। जो भी इस घटना को सच समझना चाहता है अपनी ज़िम्मेदारी पे समझ सकता है, कोई मनाही नहीं है। बाक़ी कहानी हिंदी, पंजाबी, पाकिस्तानी और हॉलीवुड फिल्मों और नविलों से चुराई गयी घटनाओं पर आधारित है। इस कहानी का किसी भी ज़िंदा या मुर्दा इंसान से कोई सम्बन्ध नहीं है अगर कोई समबन्ध वर्त्तमान, भूत और भविष्य में बन जाता है तो ज़िम्मेदारी मेरी नहीं पर अगर इस घटना पर फ़िल्म बनाना चाहें तो रॉयलिटी मेरे नाम से बैंक में जमा कराएं। कहानी जैसी भी लगी हो पैसे तो नहीं लगे न पढ़ने के तो कंजूसी छोड़ अपनी राय ज़रूर बताएँ।)
 — feeling बक रहा हूँ जुनूँ में क्या क्या, कुछ न समझे ख़ुदा करे कोई.

***_  रेज़गारी _***
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समय के कछार में 
यादों से ज़रा परे 
करवटों के निशान पर 
बिखरी पड़ी हैं कुछ सलवटें 

उन्हीं सिलवटों के आगोश में 
तुम्हारे संग बिताये लम्हों कि 
कुछ रेज़गारी पड़ी है 
जो दिल में तेरी याद के सावन से
खनक जाती हैं 

दर्द के आँसुओं में तप कर
कुछ सिक्के चमक उठते हैं चाँद सा
और मेरी आँखें बन के चकोर
तुम्हारे दर्पण को तका करती हैं
कि शायद सिक्कों पे लिखावट के उभार सा
तुम्हारे चेहरे पे मेरा नाम लिखा है के नहीं

पर मैं हमेशा भूल जाता हूँ
कि मेरे हिस्से में कोरे सिक्के ही आये हैं
जो वफादारी के बाज़ार में नहीं चलते
और दौलत के बाज़ार में इंसान बिका करते हैं
प्रेमी नहीं
और मैं तुम्हारा प्रेमी
कब से गुमसुम हूँ इस ख्याल में
कि मैं बेमोल तेरे प्यार में बिका कैसे ?

~
- नैय्यर / 22/02/2014
शनिवार कि रात उनका मैसेज आया -

-2 States Movie का ट्रेलर देखा? मैंने कहा - नहीं ! क्यूँ, कोई ख़ास बात?
-उन्होंने ने कहा - फ़िल्म में भी हीरो ने हीरोइन के तिल कि तारीफ़ की है और मुझे अपना तिल याद आ गया, जिसे सिर्फ आपने ही नोटिस किया है।

-मैंने कहा - सिर्फ नोटिस ही नहीं किया, तारीफ़ के साथ शे'र भी लिखा है।
-जवाब आया - हाँ ! पता है, जब देखो अपनी बात ! ... हुन्न्ह्ह्हह ! 

-मैंने फिर कहा - अरे बताइये भी के कहा क्या है हीरो ने ?
-मुँह फुलाए हुए उन्होंने कहा - आप ख़ुद देख लीजिये ट्रेलर।

-नेट कि स्पीड बहुत स्लो थी सो उस रात तो नहीं देख पाया ट्रेलर, जिसपे मुँह और फूल गया।

मैंने आज फ़िल्म का ट्रेलर देखा, डायलॉग कुछ यूँ है -

"तुम्हारे राईट गाल के लेफ्ट साइड में जो तिल है न, उसपे दिल आ गया है मेरा...मुझे रोज़ फॉलो करते रहता है......"

5 जुलाई 2013 को मैंने उनके तिल के लिए शरारत भरा एक शे'र लिखा जो कुछ यूँ है - 

"तेरे गाल पे जो जुड़वाँ तिल है
बस! अटका वहीँ मेरा दिल है" - © नैय्यर

और मैंने इस शे'र को 17 जुलाई 2013 को दहलीज़/دہلیز पर पोस्ट किया।

-दोस्त हैं वो मेरी सो थोडा-बहुत उनको छेड़ता रहता हूँ। 20 जुलाई 2013 को उनको भेजे गए ई-मेल में मैंने ये शे'र भी चिपका दिया था - 

"मेरा 'दिल' ले लो भले
पर अपने 'तिल' उधार दो" - © नैय्यर

एक अजीब इत्तेफ़ाक़ है, उनके और हीरोइन दोनों के राईट गाल पे ही तिल है।... पर हीरोइन के गाल पे एक तिल है वो भी कोने में, पर मेरी दोस्त के गाल पे जुड़वाँ तिल है।

डायलॉग लिखने वाले ने कहीं मेरा शे'र तो नहीं पढ़ लिया न?  
तेरे गाल पे जो जुड़वाँ तिल है
تیرے گال پہ جو جڑواں تل ہے

बस! अटका वहीँ मेरा दिल है
بس! اٹکا وہیں میرا دل ہے

...©... नैय्यर/ نیّر

03-03-2014

Wednesday 12 March 2014

सवाल
****

मास्टर जी, ये … दंगाई और आतंकवादी का का मतलब होता है?

मास्टर अब्दुल करीम बरामदे में हाथ वाली लकड़ी की कुर्सी में समाए सामने बिछे तख़्त पे बिखरे अख़बारों में खोये थे जब रामरतन की आवाज़ उनके कानों में पड़ी। 

मास्टर अब्दुल करीम ने अख़बार में नज़रे गड़ाए ही पूछा, क्यूँ, तुम्हें क्या ज़रूरत पड़ गयी इन शब्दों के जाल में फंसने की ?

मैं काहे को अपनी आँख में धुआं भरूँ ? ई दोस तो हम पे पंचायत ने लगाया है, सो मैं आ गया आपसे पुछने के कौने बड़ा जुरम है का ई … हम पे फौजदारी का मुकदमा तो नाही होगा ?

पंचायत ! पर पंच तो मैं भी हूँ, मुझे तो किसी ने कुछ नहीं बताया। ख़ैर ! जब सरकार ने ही रिटायर कर दिया तो फिर भला पंचायत क्यूँ पूछने लगी मुझे ? पर तु बता तुने ऐसा क्या किया जो पंचायत ने तुझे दंगाई और आतंकवादी ठहरा दिया ?

मास्टर जी, गाँव की पंचायत से नहीं, बड़े साहब की पंचायत से हो के आ रहा हूँ। बड़े साहब ने मेरे सातों पुस्तों को जी भर के गरियाया, वो सब समझ में आया पर दुई चीज 'दंगाई और आतंकवादी' का होत है नाही समझ पाया सो चला आया आपके पास।

मैं तुझे इसका मतलब बताता हूँ पर पहले तू ये बता के ठाकुर ने तुझे गली क्यूँ दी?

मास्टर जी, आप तो जानत हो कि ई बरस बरखा ने धरती की प्यास नाही बुझाई है। खेत मेरे कलेजे की तरह फटे पड़े हैं और धान ऐसे मुरझाया है जैसे मेरी सूरत। धरती की प्यास हमसे देखी नाही गयी तो परसों मैंने बड़े साहब की बावड़ी से 15-20 बाल्टी पानी लेकर अपने खेत में ऐसे छिड़का जैसे बड़े साहब के द्वार पे मैं हर शाम धुल पे छिड़कता हूँ। मेरी किस्मत खराब, बावड़ी पे नौकरी करने वाले मंगरू ने देख लिया और बड़े साहब से मेरी नालिस कर दी और मैं पुरखों की इज्जत हवेली में नीलाम कर आया। मास्टर जी, माना कि बावड़ी बड़े साहब की है, पर पानी तो नहीं। पानी तो उपरवाले ने बनाया है और वो तो सबका हुआ न ?

मास्टर जी, मैंने पानी चुराया था तो मैं चोर हुआ ना, फिर ये दंगाई और आतंकवादी का का मतलब ?

मास्टर अब्दुल करीम ने चश्मा उतार कर अख़बार पर रखते हुए कहा - आज कल चोरी की परिभाषा बदल गयी है, अब एक चोर दुसरे को चोर नहीं कहता। और हाँ ! दंगाई उसको कहते हैं जो शांति भंग करे और नफरत फैलाये।

और आतंकवादी ? रामरतन ने बरामदे की कच्ची ज़मीन को पैर के अंगूठे से कुरेदते हुए पुछा।

आतंकवादी उसको कहते हैं जो हिंसा, डर, भय दिखा कर ज़बरदस्ती अपनी बात मानवता है।

अच्छा मास्टर जी, मैंने तो सिरफ पानी चुराया था और मैं अपना अपराध मानता भी हूँ और सजा के रूप में दंगाई और आतंकवादी की गली भी मैंने अपने सातों पुरखों के साथ सुन ली पर आप ये बताओ कि जो हमसे बेगार खटवाते हैं, तन को कपडा पेट को अनाज नहीं देते, हमारे बच्चों को स्कूल नहीं जाने देते। हमारी लुगाई, बहन, बेटी के साथ जबरदस्ती करते हैं, खेत हम जोतें पर अनाज वो ले जाते हैं फिर भी हमसे लगान मांगते हैं, हमारी गरीबी हमारे पीठ पे सूद समेत वापस कर देते हैं, हम पे हुकूमत करते हैं, हमारे पूर्वजों को गाली देते हैं, हमारा खून चूसते हैं, हमें आपस में लड़वाते हैं, हमारे खून से अपना तिलक करते हैं वो कौन हैं ?

मास्टर अब्दुल करीम के पास भी इस सवाल का कोई जवाब नहीं था सिवाए रामरतन का मुँह ताकने के।

© नैय्यर / 22-09-2013
Naiyar Imam Siddiqui 
कहानी / नमक
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मैं कहे देता हूँ बापू...हवेली नहीं जाउँगा मैं, सूरज ने गुस्से से पैर पटकते हुए कहा।

चार किताबें क्या पढ़ ली तूने, दिमाग पे चर्बी चढ़ गयी है तेरे। हमारे खानदान में इसीलिए किसी को पढाया नही जाता था। अब मुझे देख, घंटे भर भी नही हुआ था स्कूल का मुँह देखे कि हवेली से हरखू हांफता हुआ चला आया। स्कूल के अहाते से ही आवाज़ दी, अरे ओ भीखू ! चल बड़े ठाकुर ने तुझे बुलाया है, और मैं किताबें बगल में दबाये हवेली की हुकम पे पाँव धरता हुआ चल पड़ा। बड़े ठाकुर गाव तकिये से टेक लगाये आराम कर रहे थे, मैंने सिर झुकाए उनसे पुछा, अन्नदाता ! आपने मुझे याद किया?

ठाकुर विशम्भर सिंह की गरजदार आवाज़ ने मेरे होश ठिकाने लगा दिए। क्यूँ रे भीखू, तू पढ़ के क्या करेगा? क्या यहाँ तुझे रोटी नहीं मिलती जो तू पढ़ के शहर में रोटी मांगने जायेगा? तू पढ़-लिख लेगा तो फिर तुझे गाँव अच्छा नहीं लगेगा और तू रोटी के लिए शहर में दस लोगों की लातें और गलियां खायेगा। यहाँ तुझे २-४ लातें ही तो मिलती हैं और कभी-कभी हरामखोर, मुफ्तखोर, कामचोर, निखट्टू और माँ-बहन की गलियां, वो भी तेरा पेट भरने लिए काफी नहीं जो तू पढ़ने चला है? बस उसी दिन मैंने मैंने अपना झुका सर बड़े ठाकुर के क़दमों में रख दिया और वफादारी ओढ़ ली।

सूरज की वीरान आखों में सवालों की परछाई देख भीखू ने कहा - हमारा खानदान बरसों पहले हवेली में अपनी वफादारी नीलाम कर चूका है। बात तब की है जब बर्मा भी भारत का हिस्सा हुआ करता था। गोरे सैनिक गाँव के जवानों को पकड़-पकड़ के बर्मा भेज रहे थे क्यूंकि वहां गोरे अफसरों के लिए नयी कोठियां बन रही थीं और वहां मजदूरों की कमी थी। वहां के हवा में नमी इतनी थी के जो भी जाता मजदूरी के रूप में मलेरिया ले आता। जिसकी किस्मत अच्छी होती बच जाता वरना…और मैंने उस वख्त शायद ही किसी की किस्मत अच्छी देखी।

थोड़ी देर रुक के भीखू ने फिर कहा - मेरा बाप बड़े ठाकुर के खेतों में नौकरी करता था, एक दिन जब वो हल चला रहा था गोरे सैनिक उसे पकड़ने आये। मेरा बाप हल खेत में छोड़ हवेली की तरफ दौड़ पड़ा और बड़े ठाकुर की जूती पे अपना माथा रख के बोला - बचाई लो मालिक, अगर मुझे कुछ हो गया तो मेरी लुगाई और बच्चों का क्या होगा?

बड़े ठाकुर ने कहा - बचा तो लूँगा मैं, क्यूंकि अंग्रेज अफसर मेरे दोस्त हैं पर...एक शर्त है दीनू।

मेरे बाप नें हाथ जोड़े हुए कहा - मुझे आपकी हर सरत मंजूर है मालिक।

मेरे बाप ने बिना जाने ही हर सरत मंजूर कर ली और उस दिन बड़े ठाकुर ने सरत की आड़ में हमारे खानदान की आज़ादी, सोच और वफादारी अपने यहाँ गिरवी रखवा ली।

मेरा बाप बड़े ठाकुर की सेवा करने लगा और मुझे छोटे ठाकुर की सेवा में लगा दिया गया। एक दिन बड़े ठकुर रियासत के दौरे से वापस आ रहे थे और रस्ते में घोड़े को ऐड़ लगी और ठाकुर साहब नीचे...। इस हादसे में बड़े साहब के रीढ़ की हड्डी और पसली में चोट आई और बड़े ठाकुर बिस्तर के हो गए फिर मेरा बाप हवेली का।

मेरे जिम्मे अन्दर बहार का काम आ पड़ा। छोटे ठाकुर मुझे बहुत मानते हैं…ये देखो - भीखू ने कंधे से गमछा हटा के निशान दिखाया।

सूरज ने निशान पे हाथ फेरते हुए पुछा - बापू ! पर ये निशान कैसा है ?

भीखू ने बेटे का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा - ये मेरी वफादारी का इनाम है। छोटे ठाकुर मेरे कंधे पे पैर रख के घोड़े पे चढ़ते और उतारते थे ये उसी का निशान है। गोरे अफसरों की वफादारी के सिले में कुंवर साहब को विलायत में पढ़ने का मौका मिला और मैंने भी रो-धोकर तुझे भी पढ़ाने का भीख मांग लिया और तू अब चार किताबें पढ़ के मुझे आँख दिखता है। तू क्या चाहता है, जो गाली मैंने बचपन में बड़े ठाकुर से सुनी थी वो बुढ़ापे में छोटे ठाकुर से भी सुनूँ?

सूरज ने कुछ कहने क लिए मुँह खोल ही था कि भीखू बोल उठा - मैं भी क्या ले के बैठ गया, ये सब बातें फिर कभी। देख समय निकला जा रहा है, जल्दी कर वहां बहुत सारे काम होंगे, अरे...हवेली से नेवता मिलना तो सौभाग्य की बात है। आज कुंवर रणधीर सिंह जी के सम्मान में भोज है जो विलायत से पढ़ के आ रहे हैं। और आज वो कोई पार्टी में जुड़ जायेंगे और चुनाव लड़ेंगे। छोटे ठाकुर कह रहे थे के अब सेवा करने का तरीका बदल रहा है। अब राजवाड़ा नही है, सरकार है सरकार ! सो रणधीर सरकार में शामिल हो के रियासत के लोगों की सेवा करेगा। हमारी खून में ही सेवा करना लिखा है तो हम दूसरा कोई काम करने से रहे। हम सेवा करेंगे मगर दुसरे तरह से।

चल सूरज, तैयार हो जा, दीनू ने बेटे को पुचकारते हुए कहा।
***
सूरज आज से पहले भी कई बार हवेली जा चूका था पर न जाने क्यूँ आज उसके क़दम मन-मन भर के हो रहे थे। ठाकुर के अत्याचार और शोषण उसके रगों की लहू को गरमाए जा रहे थे। उसका बाप रस्ते भर उसे हवेली के नियम-क़ानून और तमीज़ बताए जा रहा था पर उसका मन तो ठाकुर के बाग़ में लगे अमरुद पे अटका हुआ था। अचानक उसका दाहिना हाथ बाएँ गाल पे पहुँच गया और वो ठाकुर के थप्पड़ के निशान टटोलने लग गया। उसे अपना बचपन याद आ गया। एक दिन वो हवेली के पीछे खेल रहा था और उसकी माँ हवेली की सफाई में जुटी थी। अमरुद के पेड़ पे कच्चे अमरुद देख नन्हा मन बिना सोचे पेड़ पे चढ़ अमरुद तोड़ लिया, अभी उसने अमरुद पे दाँत गड़ाए ही थे के एक ज़ोरदार थप्पड़ उसके गाल पे पड़ चूका था। नज़र ऊपर उठाया तो सामने छोटे ठाकुर थे। मुठ्ठी में बाल पकड़ के खींचते हुए कहा - तेरे बाप का माल है जो यूँ मुफ्त में उड़ाए जा रहा है।

अरे तेज़ चल ना - भीखू ने पीछे देखते हुए सूरज से कहा जो अपनी सोच में गम सुस्त रफ़्तार से चल रहा था। बाप की आवाज़ सुन दर्द की टीस निगलते हुए क़दम तेज़ कर दिए।
***
हवेली में बहुत गहमा गहमी थी। सवाजट और बिजली के कुमकुमों से हवेली किसी दुल्हन की तरह सजी हुई थी। हर तरफ लोगों का हुजूम मगर सब अपने में गुम।

भीखू ने सूरज का हाथ पकड़ते हुए कहा -चलो पहले छोटे ठाकुर का आशीर्वाद ले लो फिर कुंवर जी का भी आशीर्वाद लेंगे। मेरे बाद इस हवेली के काम-काज तुम्हें ही देखना है।

महोगनी के नक्काशीदार ऊँची कुर्सी पे बैठे ठाकुर सूर्यकांत सिंह अपनी सज धज देख रहे थे जब भीखू अपने बेटे का हाथ पकडे ठाकुर के पाँव में झुक गया।

सूरज को देखते ही ठाकुर सूर्यकांत सिंह ने पाटदार आवाज़ में कहा - भीखू आज बहुत शुभ दिन है, आज तुम अपनी वफादारी अपने बेटे के कंधे पे डाल के हवेली के एहसान का क़र्ज़ चुकाओ और तुम अब हमारे खास नौकर हुए।

भीखू की आखों में आंसू तैरने लगे और उसने रुंधे हुए गले से कहा - सब आपकी किरपा है मालिक, आपका आदेश मेरे माथे का तिलक के समान है।

अच्छा अब तुम जा के बहार के काम देखो। सूरज, जरा मेरी जूती साफ़ कर के ला और पहना तो।

ठाकुर का हुक्म सूरज के गाल पे तमाचे की तरह लगा, उसने कहा - मैं आपका ग़ुलाम नही।

रहदारी से गुज़रते भीखू के क़दम ये सुन के वहीँ जम गए।

ठाकुर सूर्यकांत सिंह ने गरजते हुए कहा - वर्षों से तेरा खानदान हमारे पाँव के जूती के नीचे रहा और तू आज मेरे पाँव की जूती उठाने से इंकार करता है हरामखोर। हराम के जने, हमारे एहसान की जंज़ीरें इतनी कमज़ोर नहीं जो तुझे इतनी जल्दी आज़ादी मिल सके।

ज़बान पे लगाम दीजिये ठाकुर साहब, वरना कहीं ऐसा न हो के मेरी ज़बान और मेरे हाथ दोनों आज़ाद हो जाएँ।

कुत्ते की औलाद, हमारा खा के हमें पे भौंकता है, तेरी रगों में बहने वाला खून का बूंद बूंद मेरा कर्ज़दार है।

आपका नही हम अपनी मेहनत का खाते हैं। जो आप खाओ उससे बनने वाला खून आपका पर जो खेत हम जोतें, बोयें, सींचे, काटें वो आपका कैसे?

ठाकुर सूर्यकांत सिंह ने गुस्से से फुंफकारते हुए हंटर उठाया और सूरज पे बरसाने लगे।

बेटे के जिस्म पे पड़ते कोड़े की आवाज़ से भीखू बेचैन हो गया और दौड़ते हुए ठाकुर के पास गया और ठाकुर से रहम की भीख मांगने लगा पर ठाकुर पे तो भूत सवार था, उसने २-४ भीखू पे भी बरसा दिए।

सूरज ने खुद के जिस्म पे पड़े निशान को भूल बाप पे पड़ते कोड़े से बेचैन हो गया और जैसे ही ठाकुर ने हंटर उठाया उसे हवा में ही सूरज की मज़बूत हथेलियों ने रोक लिया।

ठाकुर सूर्यकांत सिंह ने क्रोध से लाल होते हुए दीवार पे टंगी म्यान से तलवार निकली और सूरज पे वर कर दिया पर भीखू ने फुर्ती दिखाते ही बेटे को परे किया और ठाकुर के पैरों पे गिर के माफ़ी मांगने लगा।

मौका देख सूरज ने ठाकुर सूर्यकांत सिंह के हाथ से तलवार झपटा और क्रोध से आँखें लाल किये बोला - मैं आपके सरे एहसान का क़र्ज़ चुकाने को तैयार हूँ, जो भी अपने खिलाया-पिलाया वो हमारे रगों में लहूँ बन के दौड़ रहा है न तो मैं आज वो लहू आपको भेंट करना चाहता हूँ। मैं नहीं चाहता के दुनिया मेरे खानदान को नमक हराम कहे इसलिए मैं आपके नमक के एक-एक कण का क़र्ज़ चूका रहा हूँ , इतना कहते ही उसने तलवार से अपने गले पे वार कर दिया। खून का फव्वारा उबल पड़ा। बेटे का खून देख भीखू बेहोश हो गया और उधर आसमान में दिन का सूरज डूब रहा था इधर हवेली में भीखू का सूरज और ठाकुर सूर्यकांत सिंह आँख फाड़े देखते रहे और सूरज के जिस्म से निकला खून फर्श पे नमक का क़र्ज़ चुकाने के लिए फैलने लगा ।

~
© नैय्यर / 06-10-2013
Naiyar Imam Siddiqui 
कभी-कभी यूँ ही
बे-सबब
जब तुम दिल में
बन के हुक उठती हो
तो लगता है
कि
मैं अब भी जिंदा हूँ
तेरी यादों में
और
तू बाक़ी है
मुझ में कहीं

© नैयर / 10-11-2013
देश में भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) और राष्ट्रीय प्रोद्योगिकी संस्थान (एनआईटी) की बयार बहने के दसकों पहले से अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का इंजीनियरिंग कॉलेज चुपचाप राष्ट्र सेवा में अपना योगदान दे रहा है। 21 नवंबर 1938 को स्थापित यह इंजीनियरिंग कॉलेज देश के चाँद पुराने इंजीनियरिंग कॉलेज में से एक है जिसे मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने 2008 में आईआईटी बीएचयू की तरह आईआईटी अलीगढ़ करने कि पेशकश की पर विश्वविद्यालय समुदाय नें अपनी धरोहर और पहचान आईआईटी के साथ साझा करने पर असहमति जता दी।

वर्तमान में इस इंजीनियरिंग कॉलेज का नाम डॉ. ज़ाकिर हुसैन कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी है, जिसका नामकरण विश्ववविद्यालय के भूतपूर्व छात्र, स्वतंत्रता सेनानी, आधुनिक भारत के निर्माताओं में से एक, भूतपूर्व वाईस चांसलर, एवं भारत के पहले मुस्लिम राष्ट्रपति भारत रत्न डॉ. ज़ाकिर हुसैन के नाम पे किया गया है।

75 वर्षों से राष्ट्र सेवा में समर्पित इस इंजीनियरिंग कॉलेज की सफलता और योगदान के लिए बधाइयाँ एवं शुभकामनाएं।

http://www.amu.ac.in/collegeengg.jsp


22-11-2013
***_ जीवन _***
===========

कंधे से झोला लटकाए,
१४-१५ साल का एक लड़का कचरे के ढेर से प्लास्टिक की थैलियाँ चुन रहा था, 
उसके चेहरे पे तनिक भी उदासी या किसी चिंता की कोई लकीर नहीं थी,
वो अपने काम में मग्न था,
जब भी उसे कोई प्लास्टिक की थैली मिलती,
उसके होंटो के किनारे मुस्कुराहटों से भीग जाते,
पर, 
अगर कुछ नहीं मिलता तो निराश ज़रूर होता पर हताश नहीं,
उसके बड़े बाल तेल से चुपड़े थे और उसके चौड़े माथे को चूम रहे थे,
उसके कपडे फटे तो नहीं थे पर साफ़ थे,
उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक थी,
वो दुनिया से बेखबर अपने काम में मशगुल था,

रविवार का दिन था,
मैं अख़बार पढ़ते-पढ़ते ऊपर टहल रहा था की अचानक उस पर नज़र पड़ी,
मैं कॉफी का मग थामे,
रेलिंग की दीवार से हाथ टिकाये उसे काम में मग्न देखता रहा,
अचानक उसकी नज़र मुझ पे पड़ी तो कुछ देर क लिए उसके हाथ रुक गए,
वो कुछ पल रुका और फिर अपने काम में लग गया,
मैंने अपने कुरते का जेब टटोला तो वहाँ एक पांच रुपये के सिक्के के सिवा कुछ न मिला,
मैंने उसे आवाज़ दे कर बुलाया,

और...पांच का सिक्का उसे देते हुए कहा के,
जाओ, कुछ खा लेना!
उसने कहा,
बाबु जी, मै गरीब ज़रूर हूँ पर कामचोर नहीं!
मैंने कहा,
पर, तुम तो कचरे के ढेर से थैलियाँ तो पैसे क लिए ही तो चुन रहे हो, न?
उसने कहा, नहीं!
मै तो जीवन ढूँढ रहा हूँ, जीवन !
पैसा तो जीवन लेता है देता नहीं...

और, तब से लेकर आज तक, मेरे ज़ेहन में ये सवाल घूम रहा है के जीवन क्या है?

वो जो हम जी रहे हैं या वो जो एक मासूम बालक कचरे क ढेर में ढूंड रहा था?

क्या आप बता सकते हैं की जीवन क्या है?

© नैय्यर /2009
***अलाव***

जब से तुम गए हो 
कुछ लिख ही नहीं पाता
मेरी ज़िन्दगी कोरे काग़ज़ कि तरह हो गयी है 
क़लम है के ख़ामोश है 
और दिमाग़ कि बस
लफ्ज़ ही ढूँढता रहता है 
और दिल
दिल का क्या कहूं
इस में तुम बन के हुक समाई हो
लबों पे हैं एक तवील ख़ामोशी
और आँखों में पसरी है वीरानी
और ख्यालों में
न टूटने वाला सन्नाटा
ऐसा लगता है जैसे
मैं इंसान नही
कोई सुनसान खँडहर हूँ
जो फिर से बसना चाहता है हवेली बन कर
तो
बस इतनी सी इल्तिजा है
लौट आओ मेरी दुनिया में वापस
सर्दी में जलते अलाव कि तरह
क्यूंकि
दूर रह के जलने से से अच्छा है कि
पास रह के नफरत कि आग को सुलगाये रखें
बोलो
वापस आओगी न?

© Naiyar Imam Siddiqui / 17-12-13
महामहिम श्री प्रणब मुखर्जी, राष्ट्रपति, भारत गणराज्य, के नाम अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की शाखाओं कि स्थापना में हो रही देरी के सम्बन्ध में खुला पत्र

सेवा में, 
सचिव (राष्ट्रपति),
राष्ट्रपति भवन 
नई दिल्ली-११०००४, भारत

महामहिम जी,
सामाजिक विज्ञान संकाय द्वारा आयोजित सैंतीसवें "इंडियन सोशल साइंस कांग्रेस" में हम आपका हार्दिक स्वागत करते हैं। साथ ही हम आपका ध्यान अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की शाखाओं के खुलने में हो रही देरी कि तरफ भी खींचना चाहते हैं। सर सैयद अहमद ख़ाँ द्वारा स्थापित अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय भारत ही नहीं वरन विश्व का एक सम्मानित विश्वविद्याल है, जो १९२० से केंद्रीय विश्वविद्याल कि हैसियत से आज़ादी से पूर्व एवं आज़ादी के बाद शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी योगदान देते हुए राष्ट निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है। "मोहम्मदन एंग्लो ओरिएण्टल कॉलेज" के रूप में शुरू हो कर वर्तमान रूप तक इस विश्वविद्यालय ने शिक्षा, रक्षा, उद्योग, कला, फ़िल्म, चिकित्सा, वाणिज्य, अभियांत्रिकी, खेल एवं अन्य क्षेत्रों में अनेक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय प्रतिभा को जनम दिया है। इस विश्वविद्याल के छात्रों ने सैन्य एवं शिक्षा अलंकारों के साथ साथ पदम् श्री से लेकर भारत रत्न तक अपनी क़ाबिलियत सिद्ध किया है। इस विश्वविद्यालय ने अपने देश के साथ साथ दूसरे कई देशों के लिए राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री, राजनयिक, शिक्षा, रक्षा, उद्योग, कला, फ़िल्म, चिकित्सा, वाणिज्य, अभियांत्रिकी, खेल एवं अन्य क्षेत्रों के लिए उत्कृष्ट प्रतिभा को जन्म दिया है।

सर सैयद अहमद ख़ाँ ने इस विश्वविद्यालय कि स्थापना महाद्वीप के मुसलमानों की शैक्षणिक पिछड़ेपन को दूर करने के उद्देश्य से किया था। उन्होंने कहा था कि ' हिन्दुस्तान एक ख़ूबसूरत दुल्हन कि तरह है और हिन्दू और मुसलमान उसकी दो खूबसूरत आँखें" उनका मक़सद इस विश्वविद्याल द्वारा देश की शिक्षा ज़रूरतों को पूरा करने के साथ सामाजिक एवं धार्मिक सौहार्द बनाये रखना भी था।

न्यायमूर्ति श्री सच्चर की रिपोर्ट के बाद केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय नें अल्पसंख्यकों खास तौर पर मुसलमानों के शैक्षणिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए पाँच राज्यों में इस विश्वविद्यालय कि शाखा खोलने का निर्णय लिए। केरल में मल्लापुरम, पश्चिम बंगा के मुर्शिदाबाद के शाखा में शैक्षणिक कार्य जरी है, बिहार के किशनगंज में इस सत्र से बीं.एड पाठ्यकर्म चालू किया गया है परन्तु महाराष्ट्र एवं मध्यप्रदेश की सरकार इस मामले में अबतक उदासीन ही रही है। केंद्रीय विश्वविद्यालयों का 'विजिटर' होने के नाते मैं आपसे इस मामले में तुरंत हस्त्क्षेप कि मांग करता हूँ।

राज्य सरकारों कि तरह इस मामले में केंद्रीय सरकार कि उदासीनता समझ से परे है। नए केंद्रीय विश्वविद्यालय, आई. आई. टी., आई. आई. एम., एम्स, एन. आई. टी., के नाम एवं राज्य के घोषणा के साथ ही सम्बंधित राज्य सरकार ज़मीन अधिग्रहण कर निर्माण कार्य शुरू कर देती है, और निर्माण कार्य चलने तक किराये के मकान या दूसरे सम्बंधित शिक्षण संस्थान में शैक्षणिक कार्य शुरू हो जाता है, पर न जाने क्यूँ अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय कि शाखा के नाम पर केंद्र एवं राज्य सरकारों को सांप सूंघ जाता है। दूसरे शिक्षण संस्थानों के लिए न तो धन कि कमी है न ज़मीन की, न शिक्षक न संसाधन की, फिर ए. एम. यु कि शाखा के वक़्त ही सब अड़चनें क्यूँ आती हैं?

इन पांच राज्यों के अलावा आँध्रप्रदेश, राजस्थान, कर्णाटक, पंजाब एवं सुदूर पूर्वोत्तर राज्यों में भी इस विश्वविद्यालय कि शाखा खोलने कि मांग हम आपके सामने रखते हैं, और उम्मीद करते हैं कि आप इस मामले में हो रही देरी पर संज्ञान लेंगे।

आदर के साथ
समस्त अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय परिवार कि तरफ से

नैय्यर इमाम
व्यवहारिक भू-विज्ञानं
राष्ट्रीय प्रोधोगिकी संश्थान-रायपुर
जी. ई. रोड-४९२०१०, रायपुर
छत्तीसगढ़, भारत 


27-12-2013
*** बेरुख़ी ***

तुम्हारी बेरुख़ी जानाँ
ठिठुरती रात जैसी है 
ना पावँ पसारे बनता है 
ना तुमको मानाने बनता है 
जो ठन्डे मुन्जमिद बिस्तर पर
गर पावँ फैलाऊँ तो 
तुम्हारी बर्फ जैसे अना से 
मुहब्बत जल सी जाती है 
जो गर्मी है जज़बातों में
वो पिघल सी जाती है
उम्मीदों की क़न्दीलें
क़तरा-क़तरा गल ही जाती हैं
अधूरी ख़वाहिशें सारी
अचानक मचल ही जाती हैं
मगर ये जो चुप की फसील
हायल है हमारे दरमियाँ में
वो तारीक रात में हौले-हौले आह भरती है
और इसी आह के धुन्ध में
तन्हा सारी रात रोती है
और सुब्ह के इंतज़ार तक
जी भर के ठिठुरती है
और इस ठिठुरती रात में जानाँ
तुम्हारी बेरुख़ी बड़ी ही जानलेवा है

© Naiyar Imam Siddiqui / 29-12-2013
"दंगा"

(मुज़फ़्फ़रनगर दंगे से आहात हो कर )

जो खून बहा है सड़कों पर
वो खून बता अब किसका है?
जैसे इंसानों को बांटा तूने
वैसे अब खून का भी बंटवारा कर

'मुस्लिम' का है खून 'हरा'
या 'हिन्दू' का है भगवा 'जैसा'
मानव रक्त पीने वालों 
खून का भी तो कोई 'धर्म' बताओ

धर्म के नाम पे 'जल्लादों' ने
इंसानियत का क्यूँ 'बलात्कार' किया?
'कुर्सी' के लालंच में 'दलालों' ने
खून को भी है शर्मसार किया

संसद में पास किया 'खाद्य बिल'
और तुम 'भोग' रहे इंसानों को
धर्म की 'सीढ़ी' चढ़ा कर संसद में
हम भेज रहे 'राक्षस' और 'हैवानों' को

रक्तरंजित धरती पर
'नफरत' की फसल लहलहाती है
चुनाव के बाज़ार में जो
'वोट' के दाम बिक जाती है

अब के बरस भी धरती को
चढ़ाई है इंसानियत की 'बलि'
अब के बरस भी
खून बहा है उम्मीदों से कहीं ज़्यादा
अब के बरस भी नफरत की 'फसल'
लहलहाएगी उम्मीद से थोड़ी और ज़्यादा

और ...
अब के बरस भी
अपने अपने हथियारों को
खून से हम लाल करेंगे
'भगवा' और 'हरे' के चक्कर में
'इंसानियत' को 'शर्मसार' करेंगे !


© नैय्यर / 08-09-2013 
“मैं सच कहूँगा तो न आएगा तुझे मुझ पे यक़ीं,
आईने से पुछ वो सच परखने का हुनर जनता है” 
© नैय्यर 

आतंकवाद का जनक अमरीका कीनिया के गुनहगार अल-शबाब से बदला लेने के लिए कीनिया पर आतंकवाद के ख़ात्मे के बहाने आक्रमण नहीं करेगा? अपने आतंकवाद की प्रयोगशाला में ही अमरीका ने रूस पे आक्रमण के लिए ओसामा बिन लादेन को तैयार किया (http://www.thehindu.com/news/international/osamas-killing-a-major-success-russia/article1985349.ece) और बेहद सुनियोजित ढंग से वर्ल्ड ट्रेड टावर पर हमला कर तालिबान के ख़ात्मे के बहाने अफ़ग़ानिस्तान की प्राकृतिक संसाधन पर क़ब्ज़ा किया एवं ओसामा बिन लादेन को मारने से पहले लाखों निर्दोषों का खून अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान में बहाया। कभी अफ़ग़ानिस्तान की वादी 'तोरा-बोरा' को महज़ इसलिए बारूद से उड़ा दिया कि वहां ओसामा छुपा था तो कभी पाकिस्तान को ड्रोन हमला तोहफे में दिया। क्या अमरीका की ख़ुफ़िया संस्था एफ. बी. आई, सी. आई. ए और नेवीगेशन सिस्टम इतना घटिया है कि ११ साल तक ये नहीं पता कर सकी कि ओसामा कहाँ छुपा है? अमरीका तो किसी को मौत भी मुफ्त में नहीं देता फिर भला पाकिस्तान को करोड़ों डॉलर मुफ्त में कैसे दे दे? अमरीका ने अपने डॉलर की क़ीमत का सौदा निर्दोष पाकिस्तानियों के खून से किया है और अब भी पेशावर में हुए चर्च पर हमले का बदला ड्रोन हमला से पूरा किया जायेगा।

वियतनाम पर रासायनिक हमला करने वाला अमरीका (http://en.wikipedia.org/wiki/Agent_Orange) पहले रासायनिक हथियार फिर शिया-सुन्नी के बहाने इराक़ में घुसा और वहां प्रतिदिन औसतन २० जिंदगियों का सौदा कर रहा है पर किसी अख़बार के कोने में ही सही इसकी ख़बर नहीं मिलती। इराक़ में अमरीका के घुसने का मक़सद तेल पे एकाधिकार और वर्चस्व के सिवा कुछ नहीं है, पर ये एकाधिकार और वर्चस्व किस क़ीमत पर? बेगुनाहों के खून पर अमरीका के जूते अच्छे नहीं लगते क्यूँकि खून के निशान चेचेनिया, बोस्निया, नागासाकी, हिरोशिमा, कम्बोडिया, कोलंबिया, सीरिया, मिस्र, जॉर्डन, यमन, ईरान, अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, भारत और न जाने कहाँ कहाँ जायेंगे……………?

इथोपिया और इरीट्रिया के बीच शत्रुता है और इरीट्रिया इथोपिया का प्रभाव रोकने के लिए अल-शबाब का समर्थन करता है। अमरीका के समर्थन से इथोपिया ने २००६ में सोमालिया में सैनिक भेजे थे, ताकि इस्लामिक लड़ाकों को हराया जा सके। (http://www.bbc.co.uk/hindi/international/2013/09/130922_somalia_al_shabab_ap.shtml) अमरीका शत्रुता मिटने के बहाने खून की दलाली करता है। ये बात दिन और रात की सच है कि अमरीका ही प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से आतंकवाद के लिए धन मुहैय्या कराता है। (http://www.cbn.com/cbnnews/356986.aspx) (जो लोग तालिबान या पाकिस्तान का नाम लेते हैं उनको पता होना चाहिए कि अमरीका ही पाकिस्तान को करोड़ो डॉलर देता है जिसमें से तालिबान अपना हिस्सा ले जाता है) जिस पाकिस्तान वायु सेना के एयर कमोडोर एम. एम. आलम (http://en.wikipedia.org/wiki/Muhammad_Mahmood_Alam) ने १९६५ के भारत-पाक युद्ध में ३० सेकेण्ड के भीतर भारतीय वाये सेना के ४ विमान गिराए उस पाकिस्तान के लिए तालिबान को ख़तम करना कोई मुश्किल काम नहीं पर अमरीका आतंकवाद की आग को धधकाए रखना चाहता है और पाकिस्तान 'जिस थाली में खाओ उसमें छेद नहीं करना चाहिए' वाले मुहावरे को चरितार्थ कर रहा है।

जिस अमरीका को पाकिस्तान की ग़रीबी की इतनी चिंता है उसको अफ़्रीकी देशों की दुर्दशा नहीं दिखती? अमरीका अल-शबाब को आतंकवादी ग्रुप मानता है और २०११ में जब सोमालिया बड़े अकाल से गुज़र रहा था, उसने सोमालिया के उस बड़े इलाक़े में सहायता रोक दी थी, जो उसके नियंत्रण में था। (http://www.bbc.co.uk/hindi/news/2011/07/110721_us_somalia_pp.shtml) अप्रैल २०१० में राष्ट्रपति बराक ओबामा ने एक कार्यकारी आदेश जारी करते हुए अल शबाब को एक आतंकवादी संगठन घोषित किया था. इसका मतलब ये था कि अल शबाब के नियंत्रण वाले इलाक़ों में अमरीकी सहायता नहीं भेजी जा सकती थी। जो तालिबान से नहीं डरा वो अल-शबाब से क्यूँ डर गया? जो अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान में घुस कर आतंकवाद ख़तम कर सकता है वो सोमालिया में अल-शबाब के सामने घुटने टेकता है, क्यूँ? मतलब साफ़ है - आतंकवाद के नाम पर दोगली नीति।

आप किसी के घर में घुस के दादागिरि करो, माँ, बहन, बहु-बेटियों के साथ बलात्कार करो, बाप-भाई रिश्तेदारों का खून करो और अगर प्रतिशोध में वो हथियार उठा ले तो आतंकवादी? हमारे हिंदी सिनेमा में ज़ुल्म के ख़िलाफ अगर नायक हथियार उठा ले तो तो नायक ही रहता है पर असल ज़िन्दगी में कोई करे तो वो आतंकवादी। सैकड़ो ऐसी फिल्में हैं जिसमें नायक गुंडा, डाकू और अपराधी बन बदला लेता है पर हम उसे बुरा कहने का साहस नहीं कर पाते क्यूंकि आतंकवाद के नाम पर हमारे नज़रिए में भी झोल है और शायद विकास के दौड़ में हमनें उन डाकुओं और अपराधियों को आतंकवादी का नाम दे दिया, क्यूंकि हर चीज़ का 'Globalization' ज़रूरी है। शायद रील में रियल में यही फर्क़ है।
मेरा ये लेख आतंकवाद के समर्थन में नहीं है। मेरा मक़सद आतंकवाद के नाम पर हो रही घिनौनी साजिश का पर्दाफाश करना है। मैं हर तरह के आतंकी घटना की निंदा करता हूँ और हमेशा आतंकवाद के खिलाफ सच्चाई से लड़ता रहूँगा। 


© नैय्यर /
 24-09-2013
'सर सैयद डे' के मौक़े पे मेरी बरसों पुरानी तुकबंदी, जिसे मैंने 2004 में लिखा था तब मैं स्नातक का छात्र हुआ करता था। मैंने अपनी ये तुकबंदी 'अब्दुल्लाह गर्ल्स हॉस्टल' के वार्षिक सांस्कृतिक प्रोग्राम (2004) में प्रस्तुत किया था और इतनी ज्यादा हूटिंग हुई कि मैंने फिर आज तक फिर दुबारा कभी किसी गर्ल्स हॉस्टल में अपनी ग़ज़ल नहीं सुनाई। 

...तो मज़ा लीजिये आज के मुशायरे में मेरी तुकबंदी का 

हम मिले तुम मिले रात में
ख़ुशबू बस गयी है जज़्बात में

मैं कुछ कह रहा था शायद
रुख़ बदल गयी बात ही बात में

तुमको ढुंढा मैंने चहार सू
पर न देखा कभी अपनी ज़ात में

जब से तुम समा गयी हो दिल में
दिल ही रहने लगा है घात में

उम्र-ए-फानी का क्या ठिकाना 'नैय्यर'
ला दे अपना हाथ मेरे हाथ में

~
चहार सू = चारों तरफ
~
Naiyar Imam 'नैय्यर'