Sunday 29 June 2014

कहानी / नश्तर

29 June 2014 at 18:30
''क्या हम कभी एक नहीं हो सकते?'' उन्होंने बड़ी आस से मुझ से पूछा.

"दो इंसान जो प्रेम बंधन में बंधना चाहें और समाज की दकियानूसी रिवाजों की वजह से एक ना हो पाएँ वो उस सुखी नदी के दोनों किनारों जैसे होते हैं जो जन्म से मृत्यु तक साथ तो चलते हैं मगर कभी मिल नहीं पाते. नदी की सुखी रेत अनबुझे आरज़ुओं, ख्वाहिशों जैसी होती जो गाहे बगाहे दिल में उठते जज़्बात की तर्जुमानी करते हैं और दोनों किनारों को अपनी आगोश में लेकर मुहब्बत की अलहदा क़ब्र बना देती है जिसके अन्दर दो मासूम दिलों के जज़्बात हमेशा-हमेशा के लिए घुट के मरने को मजबूर हो जाते हैं, पर भला मुहब्बत भी कभी मरती है क्या? मर जाती तो अगली नस्ल वालों तक मुहब्बत पहुँचती ही नहीं और ना वो मुहब्बत से आशना होते...पर मुहब्बत तो अमर है. ये जिस्म में नहीं रूह में परवान चढ़ती है. नस्ल-दर-नस्ल मुहब्बत किताबों में महफूज़ होता आया है. कामयाब मुहब्बत इतिहास के पन्नों में ज़िंदा हैं और नाकाम मुहब्बत अफसानों में" - मैंने उनकी बात के जवाब में कहा?

''मुझे आपकी बातें सुनने में तो अच्छी लगती हैं पर समझ में नहीं आती'' - फ़ोन पे उनकी ख़ुमार भरी मखमली आवाज़ उभरी.

''सच्ची मुहब्बत कभी नहीं मिलती, लैला-मजनूं, हीर-राँझा, शीरीं-फरहाद या रोमियो-जूलियट को देख लीजिये. दर हक़ीक़त प्यार का पहला, इश्क़ का दूसरा और मुहब्बत का तीसरा लफ्ज़ अधुरा है. जो ख़ुद में ही अधूरे हैं वो अपनी आगोश में आये परवानों को भला कैसे मुकम्मल कर दें? शम्मा के इश्क़ में परवाना जल के अपनी जान दे देता है और शम्मा सारी रात अकेले अपने आशिक़ के याद में जलती रहती है. सच्ची मुहब्बत जुदा हो के ही मुकम्मल होती है'' - मैंने उन्हें समझाने की आख़री कोशिश की.

''मैं नहीं मानती ये सब, कितने लोग तो मिलते हैं इसी दुनिया में...क्या वो सच्ची मुहब्बत नहीं करते? आप मुझे दिलासे ना दीजिये, मुझे पता है कि मैंने क्या खो दिया है और क्या खो रही हूँ'' - उसने बड़ी बेबसी से कहा. उनकी यही बेबसी नश्तर की तरह मेरे दिल के पार हो गयी.

''मेरे बस में होता तो मैं अपनी जान दे के भी उन लबों की लाली को जिंदा रखता जिन लबों ने मुझे मुझ से माँगा था. ऐसा पहली बार हुआ था कि किसी के लबों पे मेरा वजूद उनकी आरज़ू बन के उभरा और मेरा घर-परिवार जो सामाजिक कुरीतियों और समाज के ढकोसले को मुझ से ज़्यादा अहम समझता है उसने दो दिलों के बीच न मिटने वाली खाई पैदा कर दी और मैं अपने घरवालों के खिलाफ़ बग़ावत तक न कर सका, हालाँकि लड़ाई तो बहुत की मैंने पर समाज जीत गया, रीति-रिवाज जीत गए और मैं हार गया. भला हारा हुआ कोई शख्स किसी को कुछ दे सकता है? दिल की सल्तनत तो पहले ही उनके नाम कर दी है. जिसने सांसें उधार दी हैं, जिन्होंने नाम उधार दिया है वो जब चाहे सूद समेत वापस ले सकते हैं , मैं उफ़्फ़ तक न करूँगा क्यूंकि जिंदा लाश एताजाज़ नहीं किया करते" - मैं बस सोच के रह गया और करवट बदल के फोन दायें कान से हटा बायें कान से लगा लिया.

''रात के तीसरे पहर जब नींद की हलकी सी खुमारी मेरी आवाज़ को बोझल बना रही थी उनकी बातों के असर से दिल लहू-लहू हो रहा था. जवाब क्या देता मैं उनके सवाल का? मेरे पास तो देने के लिए कुछ भी नहीं था, न अपना वजूद ना जवाब. ख़ामोश भी तो नहीं रह सकता था. बात को बदलने के लिए मैंने पूछ लिया कि आप कब से यूँ टहल-टहल के मुझ से बात कर रही हो, थकी नहीं क्या? जाइये सो जाइये फिर बात करेंगे.

''साफ़ कहिये ना कि आप मुझे भगाना चाहते हैं" - वही ख़ुमार भरी मखमली आवाज़ फिर से मेरे कानों के अंतर तहखानों तक उतर तो गयी मगर मुझे झिंझोड़ के रख दिया. इस लड़की से जीत पाना मुश्किल है, जाने दिलों के भेद कैसे पढ़ लेती है. हालाँकि दूर तो मैं भी नहीं होना चाहता था उनसे पर उनकी बातों का क्या जवाब देता मैं? हारने से तो बेहतर था कि इलज़ाम ले के जिया जाए, पर मुहब्बत में इलज़ाम कैसा? ये तो भरोसे हैं जो दिलों के गाँठ को मज़बूत करते हैं.

''आपकी आवाज़ बहुत सॉफ्ट है, मुझे बहुत पसंद है आपकी आवाज़'' कभी का कहा हुआ उनका फिकरा याद आ गया और उनकी बातों की सहर की ज़द में तो मैं था ही. बे-इख्तयार मेरे लबों पर फ़िल्म आँधी का ये गाना उभर आया -

तेरे बिना ज़िन्दगी से कोई
शिकवा तो नहीं, शिकवा नहीं, शिकवा नहीं
तेरे बिना ज़िन्दगी भी लेकिन
ज़िन्दगी तो नहीं, ज़िन्दगी नहीं, ज़िन्दगी नहीं
तेरे बिना..

काश ऐसा हो
तेरे क़दमों से चुन के मंजिल चलें
और कहीं, दूर कहीं
तुम गर साथ हो
मंजिलों की कमी तो नहीं
तेरे बिना..

इस गाने को मैंने बहुत दिल और दर्द के साथ गाया और शायद ये गाने का ही असर था कि वो कुछ नार्मल हो गयीं थीं. जब गला रुन्धने लगा तो मैंने कहा कि अब सो जाइये अब कल बात करेंगे. शायद वो भी बहल गयीं थी जो तुरंत मान गयीं.

''ओए, सुबह हो गई?'' - दोपहर से ज़रा पहले उनका मैसेज आया.

''जी, मेरी सुबह तो कबकी हो चुकी है'' -मैंने जवाब दिया.

" :( मेरी सुबह तो दस बजे हुई" - फिर से मैसेज उभरा.

''अब मैंने उनको कैसे बताता कि सुबह तो उनकी होती है जो रात में सो जाते हैं, जिसने सारी रात आँखों में काटी हो उसकी कैसी सुबह?'' जिसके सीने में लफ़्ज़ों के नश्तर चुभे ho, जो एहसास को छलनी कर रहे हों, उसे भला नींद कैसे आएगी? उसकी सुबह कैसे होगी भला?

जाने ये नश्तर की चुभन थी या रतजगे का असर था के आँख फिर से गीली हो चुकी थी पर वो इस बात से बेख़बरमैसेज किये जा रही थीं. और फिर से अधुरा गीत मेरे होंटों पे सजने लगा.

जी में आता है
तेरे दामन में सर छुपा के हम
रोते रहें, रोते रहें
तेरी भी आँखों मेंआंसुओं की नमी तो नहीं
तेरे बिना...

जो भी हो ये उन्हीं का करम है कि मैं ये जान पाया के किसी पे मर के भी कैसे जिया जाता है. वो मेरी क़िस्मत में ना सही लेकिन उनका क़ुर्ब मेरी चाहतों की राह हमवार ज़रूर कर देगा.

इसी उम्मीद के साथ मैंने उनको चाँद में उकेरा है और इतनी आरज़ू की है कि बस आप एक बार ग़म की रात को रोक लो, चाँद को ढलने ना दो फिर रौशन सुबह तो अपना ही होगा.

तुम जो कह दो तो
आज की रात चाँद डूबेगा नहीं
रात को रोक लो
रात की बात है
और ज़िन्दगी बाकी तो नहीं
तेरे बिना..

~
© नैय्यर इमाम / 29-06-2014

Monday 16 June 2014

लघुकथा / जेल

***_ लघुकथा / जेल _*** 
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''कब तक मुँह बनाये बैठे रहोगे? तुम्हें यहाँ आये तीन दिन से ज़्यादा हो गया है और...''

बैरक का सबसे पुराना क़ैदी उस से बातें कर रहा था पर उसके लटके हुए मुँह को देख के उसने अपनी बात अधूरी रहने दी. 

बैरक में छाई ख़ामोशी से उकता कर थोड़ी देर बाद उसने फिर कहा - ''कपड़े-लत्ते से तो तुम शरीफ़ लगते हो और शकल से पढ़े लिखे भी...फिर भला तुम किस जुर्म में अन्दर हो?''

''मैंने बस फेसबुक पर अपने दोस्त का क्रांतिकारी टाइप स्टेटस लाइक किया था और वो भी इसी जेल में किसी दुसरे बैरक में बंद है'' - उसने घुटने पे रखे हाथ पे ठोड़ी टिकाये हुए कहा.

''फिर उदास क्यूँ हो? क्रांतिकारियों के लिए तो जेल स्वर्ग हुआ करता है'' - उसने अपनी मुछों को मरोड़ते हुए कहा.

''या तो क्रांति बंद करो या जेल में जीने की आदत बना लो'' - बीड़ी सुलगाते हुए उसने अपना ज्ञान उंडेला और एक लम्बा कश खींच के धुवें के छल्ले उड़ाते हुए गुनगुनाने लगा.

''इस अंजुमन में आपको आना है बार-बार
दीवार-वो-दर को ग़ौर से पहचान लीजिये''

~
- नैय्यर / 16-06-2014

Tuesday 10 June 2014

लम्हे

कुछ लम्हों का कोई रंग नहीं होता, न ख़ुशी में धुप खिलती है है ना ग़म में परछाई. ये लम्हे कभी नहीं खिलते, इनडोर प्लांट की तरह. पौधों के पत्ते और जिस्म में सांस सिर्फ 'ज़िंदा' होने के सबूत भर हैंकुछ लम्हों का कोई रंग नहीं होता, न ख़ुशी में धुप खिलती है है ना ग़म में परछाई. ये लम्हे कभी नहीं खिलते, इनडोर प्लांट की तरह. पौधों के पत्ते और जिस्म में सांस सिर्फ 'ज़िंदा' होने के सबूत भर हैं.