Friday, 22 July 2016

राष्ट्र ध्वज तिरंगे को किस ने डिज़ाइन किया था?

राष्ट्र ध्वज तिरंगे का डिज़ाइनर कौन था? जब भी is सवाल का जवाब ढूंढने के लिए इंटरनेट से लेकर इतिहास की किताबों को छाना राष्ट्र धवज के डिज़ाइनर के रूप में हमेशा पिन्गल्ली वेंकैय्या जी का ही नाम मिला जब्कि ये सारा सरासर ग़लत है. 

राष्ट्र ध्वज का डिज़ाइन हैदराबादी मुस्लिम महिला सुरैय्या तैय्यब जी ने किया था. ब्रिटिश इतिहासकार 'ट्रेवोर रॉयल' नें अपनी किताब  “The Last Days of the Raj” में लिखा है कि भारत के राष्ट्र ध्वज का डिज़ाइन बदरुद्दीन तैय्यब जी की पत्नी सुरैय्या तैय्यब जी ने दिया था जिसे 17 जुलाई 1947 को अधिकारिक रूप से मान्यता दे दिया गया. जाने किस नियत और उद्देश्य से इतिहास के पन्नों से मुसलमानों की उपलब्धियाँ खुरची जा रही हैं.

राष्ट्र ध्वज की असली डिज़ाइनर के बारे में सही जानकारी के साथ-साथ सभी देशवासियों को राष्ट्र धवज के 69 वें जन्मदिवस की अनेकानेक बधाइयाँ एवं शुभकामनाएँ. 

ज़्यादा जानकारी के लिए इसे पढ़ें :

क्या कभी हमने दाढ़ी टैक्स और मस्जिद टैक्स के बारे में सुना है?

जज़िया कर और तीर्थ यात्रा महसूल के बारे में तो हम सबने सुना है पर क्या कभी हमने दाढ़ी टैक्स और मस्जिद टैक्स के बारे में सुना है? नहीं न? क्यूँकि इस देश के इतिहास को हमेशा पक्षपाती नज़रिये से ही लिखा गया है। पक्षपाती इतिहासकार सच छिपाने के लिए जितने गुनहगार हैं शायद उतने ही गुनहगार हम भी हैं क्यूँकि हमने बस एक ही पक्ष का इतिहास पढ़ कर उसपे आँख मूँद कर भरोसा कर लिया है। हमने कभी दूसरे पक्ष को जानने की कोशिश ही नहीं की या यूँ कहें कि हम में सच का सामना करने की हिम्मत ही नहीं है। 

ब्रिटिश हुक़ूमत शुरूआती दिनों में राजा-रजवाड़ों, नवाबों और ज़मींदारों को अपने अधीन कर परोक्ष रूप से भारत की जनता पर हुक़ूमत करती थी और बाद में सभी के हुक़ुमती अधिकारों को समाप्त कर भारत पर प्रत्यक्ष रूप से क़ाबिज़ हो गई। बंगाल प्रोविन्स के पोंटरा में कृष्णदेव रॉय बहुत बड़े ज़मींदार और हाकिम थे। उन्होंने अपने प्रान्त में बहुत बेहूदा और पक्षपाती क़ानून बना रखे थे, जैसे, कोई मुसलमान अगर दाढ़ी रखता था तो उसे पचास रुपये टैक्स देने पड़ते थे। अगर मुसलमानों ने कच्ची मस्जिद बनवाई तो पाँच सौ रुपये टैक्स और अगर पक्की मस्जिद का सोचा तो एक हज़ार रूपये टैक्स के रूप में भरने पड़ते थे। यहाँ तक कि मुसलमानों को मुसलमानों वाला नाम रखने तक की इजाज़त नहीं थी तो भला ग़रीब मुसलमान 18वीं शताब्दी में पचास रुपये से लेकर हज़ार रुपये तक का दंड कब तक और कहाँ से भरते? सो मुसलमान मजबूरन धीरे-धीरे इस्लाम से दूर होते गए। उस दौर में किसी टोडरमल को सम्राट अकबर के सामने धार्मिक आधार पर लगे टैक्स के ख़िलाफ़ न तो बोलने की इजाज़त थी ना ही हिम्मत। लेकिन वक़्त ने अपनी कोख से वो मुजाहिद जना जिसने इस पक्षपाती क़ानून के ख़िलाफ़ बग़ावत की शम्अ को रौशन किया।

बंगाल प्रोविन्स के चाँदपुर प्रान्त में 1782 ई० में मीर हसन अली के यहाँ एक बच्चा पैदा हुआ जिसका नाम मीर निसार अली रखा गया जिसे दुनिया "तीतू मीर" के नाम से जानती है। तीतू मीर अपनी जवानी में इस ज़ोर का पहलवान निकला कि उसे बंगाल और बिहार के रुस्तम की पदवी से नवाज़ा गया। पद्मा नदी के किनारे कुछ नौजवान कुश्ती के दाव-पेंच आज़मा रहे थे कि अचानक उन्हें एक तेज़ चीख़ सुनाई दी और सबके कान खड़े हो गए। हर एक नौजवान कुश्ती छोड़ इधर-उधर देखने लगा कि उनकी नज़र नदी में नहा रहे चार लड़कों पर पड़ी जिन पर मगरमच्छ ने हमला कर दिया था और वो चीख़ मगरमच्छ के मुँह में आने वाले लड़के की थी। 16-17 बरस के एक नौजवान ने अखाड़े के क़रीबी कमरे से दरांती की तरह का एक तेज़ धार हथियार 'दाऊ' उठाया और नदी में छलाँग लगा दी। वो पहलवान इतना ताक़तवर और निडर था कि उसने पानी में कूदते ही मगरमच्छ के जबड़े पर वार कर दिया और मगरमच्छ ने मुँह में लिया हुआ शिकार छोड़ हमला करने वाले पर अपनी पूँछ घुमा एक तेज़ वार किया मगर पहलवान डुबकी लगा कर साफ़ बच गया और अपने तेजधार हथियार से उसका पेट फाड़ दिया। थोड़ी ही देर में मगरमच्छ तड़प कर शांत हो गया। पहलवान ज़ख़्मी बच्चे को अपनी पीठ पर लाद कर तैरता हुआ किनारे पर ले आया जहाँ तीनों बच्चे डर के मारे थर-थर काँप रहे थे। यही बहादुर नौजवान पहलवान आगे क चलकर भारतीय उपमहाद्वीप के एक महान स्वतंत्रता सेनानी भी हुए। 

इसी तीतू मीर ने जब अपनी मज़हबी आज़ादी और पक्षपाती क़ानून के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की तो कृष्णदेव रॉय ने ये अफ़वाह उड़ा दी कि ये बंगाल से ब्रिटिश हुक़ूमत के ख़ात्मे और ख़ुद राजा बनने की शाजिश रच रहा है। नतीजतन ब्रिटिश फ़ौज और बंगाल प्रोविन्स के सारे हिन्दू ज़मींदारों की फ़ौज तीतू मीर के ख़िलाफ़ लामबंद हो गयी। कर्नल स्टीवर्ट के नेतृत्व में मार्च 1832 में हुगली के नारिकल बेट्रिया में ख़ूनी जंग हुई। ब्रिटिश और ज़मींदारों की फ़ौज तोप और बन्दूकों से लैस थी जब्कि तीतू मीर की फ़ौज तीर कमानों से। भला दोनों का क्या मुक़ाबला? लड़ाई ज़ोरों पर थी। तीतू मीर और उसके जाँबाज़ योद्धा बहुत दिलेरी से लड़ रहे थे तभी तोप के एक गोले ने तीतू मीर के बाँस के महल (जिसे बंगाली में भाशा कहा जाता है) को जला कर रख दिया और तीतू मीर दुःखी मन से उसे देखने लगा और इसी ज़रा सी ग़फ़लत में उसका ध्यान रणक्षेत्र से हटा और तभी तोप के दो गोले उसके सीने और कंधे को ले उड़े। तीतू मीर युद्ध के मैदान में ही शहीद हो गया लेकिन उसकी फ़ौज ने जो कोहराम मचाया वो इतिहास में दर्ज है। तीतू मीर की फ़ौज ने बंगाल के कई हिस्से जीत लिए मगर तोप के सामने तीर कब तक टिकते। अंततः जीत अंग्रेजों और ज़मींदारों की जीत हुई मगर तीतू मीर की क़ुर्बानी ने बंगाली मुसलमानों को उनके मज़हबी हक़ के लिए आवाज़ बुलंद करना सिखा दिया। तीतू मीर का मज़ार नारिकल बेट्रिया, हुगली, कोलकाता में है जो उस अज़ीम क़ुर्बानी की याद को क़यामत तक के लिए ज़िंदा रखने के लिए वचनबद्ध है।

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- नैय्यर

Thursday, 14 July 2016

क़ुर्बानी

'आज तो आपको घर जाना है न?' दो दिन पहले जब मुझे घर के लिए निकलना था तो मेरी दोस्त ने सुबह ही सुबह मैसेज कर के पूछा।
'हाँ ! शाम को 7:30 की ट्रेन है', मैंने जवाब दिया। और पता, जब ट्रेन कानपुर पहुँचेगी तो मैं उसके नाम अपना सलाम छोड़ जाऊँगा, मैंने शरारत से कहा।
'इतनी ज़ोर से चिल्लाईयेगा कि आवाज़ हमीरपुर तक पहुँच जाए', उसकी भी शरारत उरूज़ पर थी। ऐसे वक़्त पर वो कहाँ बाज़ आने वाली थी।
'चिल्लाने की क्या ज़रुरत है, जब बेतवा नदी अपना वजूद यमुना के दामन में फ़ना करने आएगी तो यमुना मेरा सलाम उसके हवाले कर देगी और बेतवा मेरे पैग़ाम को उन हवाओं को सुना देगी जो हर दिन उसके तन को छू कर गुज़रा करती हैं और वो हवाएँ उसके कानों में हौले से मेरा सलाम कह देंगी।'
'ओफ़्फ़्फ़्फ़हो ! इतना लम्बा प्रोसेस?' फिर जवाब कैसे आएगा?
'उसी री-प्रोसेस से'- मैंने इत्मिनान से कहा।
'और...अगर उसने जवाब नहीं दिया तो?'
'जिस मुहब्बत का जवाब न आये, उसे इश्क़ कहते हैं'
'तो...आपको उस से इश्क़ हो गया है?'
'क्या हो गया है, ये तो नहीं पता पर उसका नाम मिसरी की डली की तरह मेरे होंटों से चिपक के रह गया है?'
'मतलब....?'
'मतलब ये कि ओरछा के मुहब्बत की दास्तान इतिहास के सिर्फ़ एक खंड काल की दास्तान नहीं है। ये मुहब्बत तो जन्म-जन्मान्तर का है। हर युग में बस रूहें बदल जाती हैं, जिस्म बदल जाते जाते हैं मगर इश्क़ का रूप वही सदियों पुराना वाला ही रहता है।'
'ऐसा क्यूँ?'
'क्यूँकि...मौत सिर्फ़ जिस्म को आती है मुहब्बत को नहीं और रूहें हर दौर में नए आशिक़ और माशूक़ तलाश कर लेती हैं। शायद इस दौर का आशिक़ मैं हूँ और माशूक़ वो।'
'अगर वो आपकी माशूक़ न हुई तो?'
'सच्ची मुहब्बत का नज़ूल दोनों पर एक साथ होता है, बस उनके नज़ूल का वक़्त अलग होता है। किसी एक को मुहब्बत का इल्हाम पहले होता है तो किसी एक को बाद में, किसी-किसी को तो ता-क़यामत मुहब्बत का इल्हाम नहीं होता। बस उनका मिलना न मिलना वक़्त और मुक़द्दर के भँवर में छुपा होता है।'
'मैं कुछ समझी नहीं...।'
'मुहब्बत न्यूकिलयर साइंस नहीं है जो समझने की ज़रुरत पड़े। मुहब्बत को समझा नहीं करते, महसूस करते हैं।
'फिर भी, कुछ तो पल्ले पड़े...।'
'सरस्वती और यमुना दोनों को गंगा से इश्क़ था और दोनों गंगा के लिए ख़ुद के वजूद को फ़ना करने के लिए भी तैयार थी। गंगा पर यमुना के इश्क़ का तो इल्हाम हुआ मगर सरस्वती के इश्क़ का नहीं। फिर भी सरस्वती का प्यार गंगा के लिए कम न हुआ। संगम पे दोनों ने अपने वजूद को गंगा में फ़ना कर दिया मगर चूँकि गंगा पर यमुना के इश्क़ का ख़ुमार इस क़दर तारी था कि वो सरस्वती की क़ुर्बानी फ़रामोश कर बैठी और यमुना को ख़ुद में छुपाये बनारस को मुड़ चली। सरस्वती अपनी बेरुख़ी सह नहीं पाई और वहीँ संगम पर ही अपनी आहुति दे गंगा के नाम पर अमर हो गयी। अगर...उसे भी मेरे इश्क़ का इल्हाम न हुआ तो मैं भी सरस्वती हो जाऊँगा और वैसे वो इश्क़ ही क्या जिसमें कोई ज़िंदा रह जाए।'
'क्यूँ, इश्क़ करने वाले ज़िंदा नहीं रहते क्या?'
जॉन ऐलिया ने कहा है कि ' इश्क़ पर कर्बला का साया है', सो इश्क़ को क़ुर्बानी से ही मुकम्मल होना है।
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- नैय्यर /12-07-2015