'आज तो आपको घर जाना है न?' दो दिन पहले जब मुझे घर के लिए निकलना था तो मेरी दोस्त ने सुबह ही सुबह मैसेज कर के पूछा।
'हाँ ! शाम को 7:30 की ट्रेन है', मैंने जवाब दिया। और पता, जब ट्रेन
कानपुर पहुँचेगी तो मैं उसके नाम अपना सलाम छोड़ जाऊँगा, मैंने शरारत से
कहा।
'इतनी ज़ोर से चिल्लाईयेगा कि आवाज़ हमीरपुर तक पहुँच जाए', उसकी भी शरारत उरूज़ पर थी। ऐसे वक़्त पर वो कहाँ बाज़ आने वाली थी।
'चिल्लाने की क्या ज़रुरत है, जब बेतवा नदी अपना वजूद यमुना के दामन में
फ़ना करने आएगी तो यमुना मेरा सलाम उसके हवाले कर देगी और बेतवा मेरे पैग़ाम
को उन हवाओं को सुना देगी जो हर दिन उसके तन को छू कर गुज़रा करती हैं और वो
हवाएँ उसके कानों में हौले से मेरा सलाम कह देंगी।'
'ओफ़्फ़्फ़्फ़हो ! इतना लम्बा प्रोसेस?' फिर जवाब कैसे आएगा?
'उसी री-प्रोसेस से'- मैंने इत्मिनान से कहा।
'और...अगर उसने जवाब नहीं दिया तो?'
'जिस मुहब्बत का जवाब न आये, उसे इश्क़ कहते हैं'
'तो...आपको उस से इश्क़ हो गया है?'
'क्या हो गया है, ये तो नहीं पता पर उसका नाम मिसरी की डली की तरह मेरे होंटों से चिपक के रह गया है?'
'मतलब....?'
'मतलब ये कि ओरछा के मुहब्बत की दास्तान इतिहास के सिर्फ़ एक खंड काल की
दास्तान नहीं है। ये मुहब्बत तो जन्म-जन्मान्तर का है। हर युग में बस रूहें
बदल जाती हैं, जिस्म बदल जाते जाते हैं मगर इश्क़ का रूप वही सदियों पुराना
वाला ही रहता है।'
'ऐसा क्यूँ?'
'क्यूँकि...मौत सिर्फ़ जिस्म
को आती है मुहब्बत को नहीं और रूहें हर दौर में नए आशिक़ और माशूक़ तलाश कर
लेती हैं। शायद इस दौर का आशिक़ मैं हूँ और माशूक़ वो।'
'अगर वो आपकी माशूक़ न हुई तो?'
'सच्ची मुहब्बत का नज़ूल दोनों पर एक साथ होता है, बस उनके नज़ूल का वक़्त
अलग होता है। किसी एक को मुहब्बत का इल्हाम पहले होता है तो किसी एक को बाद
में, किसी-किसी को तो ता-क़यामत मुहब्बत का इल्हाम नहीं होता। बस उनका
मिलना न मिलना वक़्त और मुक़द्दर के भँवर में छुपा होता है।'
'मैं कुछ समझी नहीं...।'
'मुहब्बत न्यूकिलयर साइंस नहीं है जो समझने की ज़रुरत पड़े। मुहब्बत को समझा नहीं करते, महसूस करते हैं।
'फिर भी, कुछ तो पल्ले पड़े...।'
'सरस्वती और यमुना दोनों को गंगा से इश्क़ था और दोनों गंगा के लिए ख़ुद के
वजूद को फ़ना करने के लिए भी तैयार थी। गंगा पर यमुना के इश्क़ का तो इल्हाम
हुआ मगर सरस्वती के इश्क़ का नहीं। फिर भी सरस्वती का प्यार गंगा के लिए कम
न हुआ। संगम पे दोनों ने अपने वजूद को गंगा में फ़ना कर दिया मगर चूँकि
गंगा पर यमुना के इश्क़ का ख़ुमार इस क़दर तारी था कि वो सरस्वती की क़ुर्बानी
फ़रामोश कर बैठी और यमुना को ख़ुद में छुपाये बनारस को मुड़ चली। सरस्वती अपनी
बेरुख़ी सह नहीं पाई और वहीँ संगम पर ही अपनी आहुति दे गंगा के नाम पर अमर
हो गयी। अगर...उसे भी मेरे इश्क़ का इल्हाम न हुआ तो मैं भी सरस्वती हो
जाऊँगा और वैसे वो इश्क़ ही क्या जिसमें कोई ज़िंदा रह जाए।'
'क्यूँ, इश्क़ करने वाले ज़िंदा नहीं रहते क्या?'
जॉन ऐलिया ने कहा है कि ' इश्क़ पर कर्बला का साया है', सो इश्क़ को क़ुर्बानी से ही मुकम्मल होना है।
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- नैय्यर /12-07-2015