Saturday, 28 November 2015

सहिष्णुता बनाम असहिष्णुता

महाबली ये असहिष्णुता नहीं तो और क्या है कि आप मेरे ही पुत्र के विरुद्ध युद्ध के लिए मुझसे ही तलवार माँग रहे हैं? मैं इतनी सहिष्णु नहीं हूँ कि अपने पुत्र का रक्त बहाने और आपकी विजय मंगल की कामना करते हुए आपकी आरती उतारूँ और तिलक लगाऊँ।
बात रवादारी (सहिष्णुता) और अदम-बर्दाश्त (असहिष्णुता) की नहीं है जोधा। बात है बदनामी और मुग़ल सल्तनत के ख़िलाफ़ बग़ावत की। शेख़ू की इस हरकत से पूरी दुनिया में मुग़ल सल्तनत की बदनामी होगी।
मुहब्बत कब से बदनामी और सल्तनत के विरुद्ध बग़ावत हो गयी महाबली?
मल्लिका-ए-हिन्दोस्ताँ ! जब मुग़ल सल्तनत का वलीअहद एक कनीज़ की मुहब्बत की ख़ातिर बादशाह-ए-वक़्त के ख़िलाफ़ तलवार उठा ले और सल्तनत की आन-बान-शान कनीज़ के क़दमों में डाल दे तो मुहब्बत के दावेदार पर बदनामी और सल्तनत से बग़ावत का जुर्म आयद होता है।
लेकिन महाबली, वो हमारा इकलौता बेटा है। आने वाले कल के हिन्दोस्ताँ का मुस्तक़बिल और महाबली। क्या आपको नहीं लगता कि आप उसकी मुहब्बत के ख़िलाफ़ हैं? क्या उसका मुहब्बत करना इतना असहिष्णु है?
बाख़ुदा हम मुहब्बत के दुश्मन नहीं अपने उसूलों के ग़ुलाम हैं। हिन्दोस्ताँ का मुस्तक़बिल चाहे ताराज (अंधकारमय) हो जाए लेकिन तख़्त-ए-तैमूरी की रवादारी में अभी इतनी लोच पैदा नहीं हुई कि किसी नाचीज़ कनीज़ के मल्लिका-ए-हिन्दोस्ताँ बनने के ख़्वाब की ताबीर को सच कर दे।
महाबली ! तो क्या चंगेज़ी वंश कि यही सहिष्णुता है कि बाप-बेटे के अहंकार के विजय का फ़ैसला रक्त के फ़व्वारे से होगा?
मैदान-ए-जंग का यही उसूल है। जंग तुम्हारे बेटे ने चुनी है और जंग आँसू बहा कर नहीं ख़ून बहा ही जीती जाती है।
जीत-हार तो दुश्मनो में हुआ करती है महाबली, बाप-बेटे में नहीं। आप ही थोड़े सहिष्णु बन जाइये और बातचीत से सुलह का कोई रास्ता निकालिये।
सुलह में इतनी ताब नहीं जो जलाल-ए-अकबरी का सामना कर सके। जीत-हार का फ़ैसला तो जंग में होगा लेकिन उससे पहले तुम्हें फ़ैसला करना होगा कि तुम्हें सुहाग चाहिए या बेटा?
मुझे महाबली के तलवार पे अपने बेटे के रक्त का सबूत चाहिए।
मानसिंह सब तैयारी मुकम्मल हो गयी?
जी महाबली।
मैं जंग से पहले आख़िरी बार वलीअहद से मिलना चाहता हूँ। इंतज़ामात किये जाएँ।
जो हुक्म महाबली।
क्या जहाँपनाह ने जंग से पहले ही शिकश्त मान ली जो यूँ रात के अँधेरे में दुश्मन ख़ेमे में तशरीफ़ लाने को मजबूर हुए?
मैं शहंशाह की हैसियत से नहीं एक बाप ही हैसियत से तुमसे मिलने आया हूँ।
झूठ ! शहंशाह बाप का भेष बदल कर मिलने आया है।
शहंशाह रोया नहीं करते।
आपके ये आँसू मेरी मुहब्बत के ज़ख्मों का मदावा नहीं कर सकती। मुझे आपके रवादारी की भीख नहीं चाहिए जहाँपनाह।
मुझे भी तख़्त-ए-ताऊस पर किसी कनीज़ की परछाई नहीं चाहिए।
अनारकली कनीज़ नहीं, मेरी मुहब्बत है। एक वलीअहद की मुहब्बत।
शेख़ू ! जिसे तुम मुहब्बत समझ रहे हो कि वो एक ख़ूबसूरत मौत है।
मौत तो किसी भी सूरत में मिलनी है। चाहे मुहब्बत में मिले या मैदान-ए-जंग में, क्या फ़र्क़ पड़ता है?
फ़र्क़ पड़ता है शेख़ू ! जब वलीअहद इश्क़ में मरने लगें तो तलवार और सल्तनत का ज़वाल (पतन) लाज़िमी है।
कौन सी सल्तनत? वही जो बेटे के मजरूह दिल को हिन्दोस्ताँ समझ कर आपने अपनी फ़तह के झंडे गाड़ने के लिए जीता है?
ये हिन्दोस्ताँ मैंने तुम्हारे लिए जीता है शेख़ू जिसके तख़्त-ए-शाही पर तुम एक कनीज़ को बिठा कर इसे बदनाम करने की कोशिश कर रहे हो और उस नाचीज़ कनीज़ के लिए तुमने अपने बाप के ख़िलाफ़ तलवार तक उठा लिया है।
मैंने अपने बाप के ख़िलाफ़ नहीं एक ज़ालिम बादशाह के ख़िलाफ़ तलवार उठाया है जो मुहब्बत का दुश्मन है। वैसे, आपके मुग़ल सल्तनत की तब बदनामी नहीं हुई थी जब आपके बहनोई ने आपके ख़िलाफ़ बग़ावत की थी?
आपके मुग़ल सल्तनत की तब बदनामी नहीं हुई थी जब आपके दूध-शरीक भाई ने आपके ख़िलाफ़ बग़ावत की थी?
आपके मुग़ल सल्तनत की तब बदनामी नहीं हुई थी जब आपकी दाई माँ महमइंगा ने आपके ख़िलाफ़ बग़ावत की थी?
आपके मुग़ल सल्तनत की तब बदनामी नहीं हुई थी जब आपने सुजामल मामा की वजह मेरी माँ और अपनी बेग़म जोधा के रिश्ते पर शक किया था?
आपके मुग़ल सल्तनत की बदनामी सिर्फ़ मेरे और अनारकली की मुहब्बत से ही होती है?
क्या तपती रेत पर चलकर बाबा सलीम चिश्ती की दरगाह पर मैंने तुम्हारे पैदा होने की मन्नत इसी दिन के लिए की थी कि तुम दादा बाबर की रूह को शर्मिंदा करो?
आपने औलाद नहीं तख़्त के लिए वारिस माँगा था जहाँपनाह।
शेख़ू ! मेरी रवादारी का इतना नाजायज़ फ़ायदा न उठाओ कि मेरी अदम-बर्दाश्त जवाब दे जाए। शहंशाह-ए-वक़्त से गुस्ताख़ी के एवज़ में तुम्हें फ़ाँसी भी हो सकती है।
एक ज़ालिम बादशाह इससे ज़्यादा किसी को और दे भी क्या सकता है।
शेख़ू...
बेहतर हो कि कल की जंग में हमारी तलवारें हिन्दोस्ताँ के मुस्तक़बिल का फ़ैसला करें। ख़ुदा तुम्हें मैदान-ए-जंग में जलाल-ए-अकबरी से महफूज़ रखे।
जहाँपनाह ! मेरी भी दुआ है कि आप को फ़तह नसीब हो वरना वलीअहद से जंग हारने की सूरत में ता क़यामत आपके मुग़ल सल्तनत की बदनामी होती रहेगी और लोग यही समझते रहेंगे कि बादशाह रवादारी पसंद था और वलीअहद अदम-बर्दाश्त का पैरोकार।
~
- नैय्यर

Sunday, 18 October 2015

नस्ल दर नस्ल तेरा दर्द नुमायाँ होगा

कौन सा दर्द नुमायाँ होगा भई? 1857 में हुए ग़दर के हालात पर सर सैयद अहमद ख़ान ने असबाब-ए-बग़ावत-ए- हिन्द लिखी जिसमें उन्होंने लिखा है कि दिल्ली में बग़ावत की कमान बहादुर शाह ज़फ़र के सँभालने से अँगरेज़ बेहद तैश में थे और उन्होंने मुग़ल सल्तनत के ख़ात्मे की क़सम खा ली। उनका इरादा सिर्फ़ मुग़ल हुक़ूमत की बर्बादी ही नहीं थी बल्कि उनके क़ायम करदा तालीमी निज़ाम को भी दरहम-बरहम करना था। असारुस-सनादीद में सर सैयद ने कई इमारतों का ज़िक्र किया है जिसमें मुग़ल दौर में तालीम की शमा रौशन थी मगर जिसे ग़दर में नेस्तोनाबूद कर दिया गया। ग़दर और बाद के हालात ने सर सैयद को झकझोर कर रख दिया और उन्होंने मुसलमानों में तालीमी बेदारी के लिए 1875 में अलीगढ़ में 'मदरसतुल ओलूम' की बुनियाद रखी जो आगे चल कर 'मोहम्मडन एंग्लो ओरिएण्टल कॉलेज' के नाम से जाना गया और आज पूरी दुनिया में 'अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी' के नाम से जानी जाती है। सर सैयद ने अपनी सारी ज़िन्दगी अपने तालीमी मिशन के लिए वक़्फ़ कर दी और इसके लिए उन्होंने घुँघरू पहनने तक से गुरेज़ नहीं किया। 1875 से 2015 तक इस अज़ीम इदारे ने सैकड़ों नस्लों को तालीम याफ़ता किया है। करोड़ों तालीम याफ़ता लोगों में से सिर्फ़ गिनती के चंद लोग ही सर सैयद के तालीमी मिशन को आगे बढ़ा रहे हैं। ग़ाज़ीपुर में सर सैयद के क़ायम करदा 'साइंटिफ़िक सोसाइटी' को निगल जाने वाली क़ौम अपनी अगली नस्ल में उस दर्द (सर सैयद के तालीमी मिशन) को मुंतकिल करने की बात करती है जो ख़ुद में ही नहीं है। 

सच्चर कमिटी की रिपोर्ट पर पिछली सरकार ने AMU को पाँच ऑफ़ सेंटर दिए जिसमें से आज तक सिर्फ़ तीन (मुर्शिदाबाद, मल्लापुरम और किशनगंज) ही शुरू हो पाये हैं। महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश सरकार सेंटर के लिए ज़मीन देने में सालों से टाल मटोल कर रही है मगर हम कभी इसके लिए एकजुट नहीं हो पाए। अपने नाम के साथ 'अलीग' लिख भर लेने से हम एक हो गए क्या? हम कभी न एक थे न हो पाएँगे। हम हमेशा से बिहारी, आज़मगढ़ी, जौनपुरी, इलाहाबादी, GBS, ककराला, रामपुरी, सहारनपुरी, मेरठी वग़ैरह ही थे और रहेंगे। हम बस S. S. Day डिनर के लिए अलीग बनते हैं। 

हम ये दावा तो करते हैं कि शाम दर शाम तेरी यादों के चराग़ जलाएंगे मगर चराग़ बुझाने वालों में सबसे आगे हम ख़ुद हैं। अलीगढ़ अपनी तहज़ीब, तमद्दुन और रिवायत के जानी जाती थी मगर अब बदतमीज़ी और बेहयाई के लिए जाने जाने लगी है। एक वक़्त था जब यहाँ के तालिब इल्मों के चलने, उठने, बैठने, बोलने के अंदाज़ से लोग समझ जाते थे कि इनकी 'तरबीयत' अलीगढ़ में हुई है। आज ये हाल है कि बताना पड़ता है कि मैंने भी अलीगढ़ से 'पढ़ा' है। पढ़ तो हम-आप किसी भी तालीमी इदारे से सकते हैं मगर तहज़ीब के साँचे में तरबियत हर इदारे में नहीं हो सकती। कल जहाँ बच्चों के लबों पर सलाम और रिवायत हुआ करती थी आज गाली और सिगरेट है। 

साल में एक दिन सर सैयद की तस्वीर को DP बना लेने, शायरी लिख देने से हम उनके हमनवा नहीं हो सकते और ना ही इंक़लाब बपा कर सकते हैं। हम सर सैयद के मिशन से काफ़ी दूर आ चुके हैं। सर सैयद का कहना था कि 'मैं चाहता हूँ कि इस इदारे से पढ़ने वाले बच्चों के दायीं हाथ में क़ुरआन बायीं हाथ में साइंस और सर पर لا الہ اللہ محمد رسول اللہ का ताज हो', आज हम ख़ुद को कटघरे में रख कर सवाल करें कि क्या हमें रत्ती भर भी उनके मिशन का ख़याल है? जिसके दाहिने हाथ में क़ुरआन और माथे पर क़लमा-ए-तौहीद हो क्या वो गाली-गलौच, फ़हश और बेहयाई के रस्ते पर जायेगा? हम अपनी बर्बादी के ख़ुद ज़िम्मेदार हैं। हमसे अपनी एक विरासत संभलती नहीं चले हैं हर शाम उनकी यादों के चराग़ जलाने और नस्ल दर नस्ल उनका दर्द मुंतकिल करने।

~
- नैय्यर  / 17-10-2015

Friday, 16 October 2015

Tagore returned his Knighthood in protest for Jalianwalla Bagh mass killing.

The letter written by Rabindranath Tagore to Lord Chelmsford, the British viceroy, repudiating his Knighthood in protest for Jalianwalla Bagh mass killing.

Your Excellency,

The enormity of the measures taken by the Government in the Punjab for quelling some local disturbances has, with a rude shock, revealed to our minds the helplessness of our position as British subjects in India. The disproportionate severity of the punishments inflicted upon the unfortunate people and the methods of carrying them out, we are convinced, are without parallel in the history of civilised governments, barring some conspicuous exceptions, recent and remote.

Considering that such treatment has been meted out to a population, disarmed and resourceless, by a power which has the most terribly efficient organisation for destruction of human lives, we must strongly assert that it can claim no political expediency, far less moral justification. The accounts of the insults and sufferings by our brothers in Punjab have trickled through the gagged silence, reaching every corner of India, and the universal agony of indignation roused in the hearts of our people has been ignored by our rulers- possibly congratulating themselves for imparting what they imagine as salutary lessons.

This callousness has been praised by most of the Anglo-Indian papers, which have in some cases gone to the brutal length of making fun of our sufferings, without receiving the least check from the same authority, relentlessly careful in something every cry of pain of judgment from the organs representing the sufferers. Knowing that our appeals have been in vain and that the passion of vengeance is building the noble vision of statesmanship in out Government, which could so easily afford to be magnanimous, as befitting its physical strength and normal tradition, the very least that I can do for my country is to take all consequences upon myself in giving voice to the protest of the millions of my countrymen, surprised into a dumb anguish of terror.

The time has come when badges of honour make our shame glaring in the incongruous context of humiliation, and I for my part, wish to stand, shorn, of all special distinctions, by the side of those of my countrymen who, for their so called insignificance, are liable to suffer degradation not fit for human beings.

And these are the reasons which have compelled me to ask Your Excellency, with due reference and regret, to relieve me of my title of knighthood, which I had the honour to accept from His Majesty the King at the hands of your predecessor, for whose nobleness of heart I still entertain great admiration. Yours faithfully,

Yours faithfully,

Rabindranath Tagore
Calcutta, May 30, 1919

Sunday, 11 October 2015

सम्पूर्ण क्रांति के प्रणेता : जयप्रकाश नारायण (भोजपुरी)




शीन

लन्दन के हीथ्रो एयरपोर्ट से एथेंस जा रहे अपने दोस्त को मैं टर्मिनल दो से विदा कर एयर इंडिया से अपने देश भारत आने के लिए जब टर्मिनल नंबर चार पर आया तो वहाँ के वेटिंग लाऊँज में उसे देख मैं देखता ही रह गया. सात साल की मुद्दत शायद बहुत होती है किसी चेहरे के अक्स को दिल के आईने के खुरचने के लिए, मगर वो आजतक बिलकुल वैसे ही मेरे दिल पर क़ाबिज़ है जैसे पहले दिन थी. मुझे उसके यहाँ होने की बिलकुल भी उम्मीद नहीं थी, मगर सच तो यही था कि मैं उसे अपनी नंगी आँखों से देख रहा था और मुझे अपनी ही आँखों पर यक़ीन करना मुश्किल हो रहा था.
***
यूनिवर्सिटी नए सेशन के लिए एक बार फिर से खुल चुकी थी. नए बच्चों के एडमिशन और पुरानों के सेमेस्टर फ़ीस भरने की वजह से यूनिवर्सिटी और बैंक दोनों जगह काफ़ी गहमागहमी थी. बैंक ने लड़कों और लड़कियों के लिए अलग काउंटर बना रखा था मगर स्टूडेंट्स की भीड़ थी कि हनुमान के पूँछ की तरह बढ़ती ही जाती थी जिससे बैंक आने वाली आम पब्लिक भी हलकान थी. मजबूरन बैंक वालों ने सिविल इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट के ख़ाली पड़े एक कमरे में अपना टेम्पररी काउंटर खोला और कमरे की खिड़की के सामने से अजगर नुमा भीड़ कॉरीडोर में रेंग गई. मेरी एक बुरी आदत आज भी है कि मैं आख़िरी दिनों में अपने काम निपटाया करता हूँ. उस दिन भी मैं अपनी सेमेस्टर फ़ीस जमा कराने लाइन में लगा था. चूँकि बैंक ने फ़ीस कलेक्ट करने के लिए अपना टेम्पररी विंडो खोला था इसलिए यहाँ लड़के और लड़कियों के लिए अलग-अलग लाइन नहीं थी. एक ही लाइन में गर्मी से हलकान सब अपनी बारी आने का इंतज़ार कर रहे थे. खड़े-खड़े टाँगें दुखने लगी थी, मगर अजगर जैसी लाइन ने कछुऐ की रफ़्तार को भी मात देने की ठान रखी थी. एक स्टूडेंट कई-कई फ़ार्म साथ में जमा कर रहा था जिससे देर हो रही थी. कितने लोग लाइन में लगते? सबके लिए जगह भी तो नहीं थी. भीड़ देख लगता था कि एक कुम्भ यूनिवर्सिटी में भी है जो हर साल फ़ीस काउंटर पर इकठ्ठा होती है. वो अपनी सहेली के साथ मेरे पीछे ही लाइन में थी, मगर इतनी फ़ुर्सत किसे थी कि उसी निहार सके. हाँ ! कनखियों से कई बार देखा था उसे. टिशु पेपर से पसीने से भीगे अपने गाल पोंछती अच्छी लगी थी वो. वो और उसकी सहेली बिना थके जाने कबसे बात किये जा रही थी और साथ में बैंक वाले को उसकी सुस्ती के लिए कोस भी रही थीं. ये तो नहीं जान पाया कि वो किस डिपार्टमेंट की हैं पर उनकी बक-बक से लग गया था कि ये इंजीनियरिंग फैकल्टी की नहीं हैं. जिस्म का वज़न एक पैर से दुसरे पैर पर अदलते-बदलते और पसीना पोंछते आख़िर मेरा नंबर आ ही गया. रुमाल जींस के पीछे वाली जेब में ठूस कर जैसे ही मैंने अपना फ़ार्म और फ़ीस की रक़म टूटी हुई काँच और ग्रिल के बीच में से हाथ घुसा कर अन्दर बढाया, पीछे से किसी ने धक्का दिया और काँच का नुकीला सिरा मेरी कलाई में धँस गया. ख़ून का एक तेज़ फ़व्वारा मेरे फ़ार्म और पैसे को रंगीन करने लगा. दर्द और टीस के बावजूद मैंने डाँटने की नियत से पीछे मुड़ कर उसे देखा मगर जाने क्यूँ उसे कुछ बोल नहीं पाया. ग़लती उसकी नहीं थी. धक्का बेशक किसी और ने दिया था मगर वो अपनी बकबक में न लगी होतीं तो ख़ुद को संभाल लेती और मैं ज़ख़्मी होने से बच जाता. मेरी कलाई ज़ख़्मी होने और ख़ून निकलने की ख़बर ने वहाँ माहौल को थोड़ी देर गरमाए रखा. ख़बर पाते ही पास के बायो-मेडिकल डिपार्टमेंट से एक सीनियर फ़र्स्ट-ऐड का डब्बा ले आये और मेरी पट्टी कर दी. फ़ार्म तो ख़ून में भीग के बेकार हो चूका था और साथ में कुछ नोट भी. उन्होंने नोट वापिस लिए और मेरा हाथ पकड़ कर मुझे मेरे डिपार्टमेंट की तरफ़ छोड़ने के लिए चले. हम जैसे ही वहाँ से मुड़े उसकी सहेली ने धीरे से कहा – “सॉरी”.
***
‘तुम कितनी बेहिस हो यार, तुम्हारे मुँह से एक सॉरी तक नहीं फूटा’, हॉस्टल में अपने कमरे में पहुँचते ही वो उस पर बिफर पड़ी.
‘तुम तो बहुत हस्सास हो न, और वैसे भी तुमने तो सॉरी बोल दिया था न फिर मेरे सॉरी बोलने की क्या ज़रुरत थी? फ़ीस की स्लिप फ़ाइल के पॉकेट में लगाते हुए उसने कहा.
‘यार शीन, उसे धक्का तुम्हारी बेध्यानी की वजह से लगा. ये मैं भी मानती हूँ कि उसे धक्का हमने नहीं दिया पर अगर हम गप्प में न लगे होते तो शायद संभल जाते और तब शायद न उसकी कलाई ज़ख़्मी होती और न इतना ख़ून बहता’, उसने उसे इत्मिनान से समझाया.
‘हाँ ये तो है, ख़ैर अपनी ग़लती नहीं होने के बाद भी तुमने तो एपोलोजाईज़ कर दिया न, बहुत है’, दुपट्टे के सिरे को ऊँगली में लपेटते हुए उसने कहा.
‘कोई बहुत-वहुत नहीं है, तुम कल या परसों जब भी उसे देखो उसे सॉरी कह देना. मैनर्स भी कोई चीज़ होती है यार’.
‘पर हम तो उसे जानते भी नहीं, कौन है, किस डिपार्टमेंट का है, किस ईयर का है, कहाँ....’
‘बंद करो अपने बहाने, एलियन नहीं है वो, अपनी ही यूनिवर्सिटी का है. कभी तो कैंटीन या लाइब्रेरी में दिखेगा. वहाँ एपोलोजाईज़ कर लेना बन्दे से. इतना ख़ून बहाने के बाद भी वो चुप रहा, चाहता तो हमें बहुत कुछ कह भी सकता था, लेकिन नहीं कहा. इतनी शराफ़त के बदले एक ‘सॉरी’ का हक़दार तो है ही वो. और...अब मैं सोने जा रही हूँ, तुम्हारा काम निपट जाए तो लाइट ऑफ़ कर देना’.
‘मैं भी सोने जा रही हूँ एलियन की हमदर्द’, वो उसकी नक़ल उतारते हुए बोली और लाइट ऑफ़ करने स्विच बोर्ड की तरफ़ चली गयी.
***
उसके दोस्त ने डिपार्टमेंट से उसका बैग उठाया और यूनिवर्सिटी हेल्थ सेंटर से टेटनस की सुई दिलवाकर उसे हॉस्टल छोड़ने आया. दो घूँट पानी के साथ पेन कीलर की गोली देते हुए उसने कहा, ‘तू आराम कर, मैं तेरा फ़ार्म दुबारा भर के हेड से सिग्नेचर करा कर तेरी फ़ीस भरने की जुगाड़ करता हूँ.
‘यार कल लास्ट डेट है, फ़ीस भरने के बाद बाक़ी की फोर्मलिटीज़ भी तो पूरी करनी है और फ़ीस की स्लिप यहाँ हॉस्टल में भी तो जमा करनी है वरना फिर हॉस्टल ख़ाली करना पड़ेगा’.
‘तू क्यूँ टेंशन ले रहा है, हम लोग हैं न, अगर तू लास्ट डेट पर जमा करने की ज़िद नहीं पाले रहता तो हम अपने साथ ही तेरी भी फ़ीस जमा करा देते. ख़ैर...कोई ना, तू आराम कर. मैं तेरा सब काम देख लूँगा’.
‘शुक्रिया यार, तू...’
‘ओये, या तो यार कह ले या शुक्रिया. दोनों के लिए मेरे दिल में जगह नहीं है. अभी मैं जा रहा हूँ, शाम में तेरा एप्पल शेक लेते हुए बाक़ी दोस्तों के साथ आऊँगा’.
‘ठीक है, जाते हुए दरवाज़ा बंद कर देना और लाइट ऑफ़ कर देना, मुझे अब नींद आने लगी है’.
‘ओके ! बाय !’
***
उन दिनों मैं 15 अगस्त के लिए एक ड्रामे का डायलॉग लिखने में मसरूफ़ था. चूँकि ड्रामा प्रेमचन्द की लिखी सोज़ेवतन से प्रेरित थी जिसे मैंने दसवीं क्लास में पहली बार लिखा था और उसमें कई जगह काट-छांट कर उसे नए सिरे से दुबारा यूनिवर्सिटी के लिए लिखा था. उस दिन मैं इंडियन कॉफ़ी हाउस के लॉन में बैठा कॉफ़ी की चुस्की लेते हुए अपना लिखा ड्रामा पढ़ रहा था और डायलॉग को दुबारा लिख रहा था तभी ‘क्या मैं यहाँ बैठ सकती हूँ?’ की आवाज़ पर मैंने सर ऊपर उठाया और उसे देखते ही कहा – आप,...’
‘जी, मैं...मैं मनाल ताहिर’, उसने मुस्कुराते हुए सामने पड़ी कुर्सी पर बैठते हुए कहा.
‘आप वहीँ हैं न, जिसने उस दिन सॉरी कहा था जब फीस भरते वक़्त मेरी कलाई ज़ख़्मी हुई थी?’
‘जी हाँ, मैं वही हूँ पर यही तो मेरी पहचान नहीं हुई न, मैंने अपना ख़ूबसूरत नाम भी आपको बता दिया है. तकल्लुफ़ की ज़रुरत नहीं, आप मुझे मनाल कह सकते हैं’.
‘जी बिलकुल, मैंने झेंपते हुए कहा’
‘आप कुछ मसरूफ़ लग रहे हैं शायद?’
‘अरे नहीं, मैं बस एक ड्रामे पे काम कर रहा था कुछ, आप कॉफ़ी पियेंगी?’
‘श्योर ! वैसे आपने जल्दी ख़याल कर लिया, वरना मुझे तो लग रहा था कि आप मुरव्वतन भी नहीं पूछेंगे’
‘रुकिए, मैं आपके लिए कॉफ़ी ले कर आता हूँ’
‘अब मैं इतना भी बेमुरव्वत नहीं, उसे कॉफ़ी देते हुए मैंने कहा’
‘उसने हँसते हुए कहा, मतलब आप थोड़े से बेमुरव्वत हैं?’
‘इस मतलबी और फ़रेबी दुनिया के लिए इंसान को थोड़ा सा बेमुरव्वत होना ज़रूरी है’, पर मैं इतना भी बेमुरव्वत नहीं हूँ जितनी आपकी सहेली हैं. वैसे उन्होंने ज़ख़्म दे के हाल तक नहीं पूछा, मैंने शरारत से कहा’.
‘मेरी सहेली भी बेमुरव्वत नहीं हैं पर थोड़ी रिज़र्व रहने वाली है. जल्दी किसी से बात नहीं करती. मैं भी जल्दी किसी से घुलती मिलती नहीं पर उस दिन के आपके शुक्रिया जो हमें आपने भीड़ में शर्मिंदा नहीं किया.’
‘ग़लती आपलोगों की थी भी नहीं, तो आपलोगों को शर्मिंदा करने का कोई तुक भी नहीं था’
‘मुझे आपकी यही समझदारी तो अच्छी लगी. वरना मैं आज यहाँ आपके साथ बैठी कॉफ़ी नहीं पी रही होती. मैंने शीन से कहा भी था कि जब आप उसे दिखें तो वो आपको ‘सॉरी’ कहे, शायद फिर आप दोनों कभी मिले नहीं होंगे इतने दिनों में’.
‘एक बार एप्लाइड केमिस्ट्री डिपार्टमेंट से लाइब्रेरी जाते हुए दिखी तो थीं वो. क्या नाम बताया था आपने...हाँ शीन’
‘हाँ, उसके डिपार्टमेंट से एप्लाइड केमिस्ट्री होते हुए लाइब्रेरी थोड़ी नज़दीक पड़ती है, इसलिए वो वहीँ से आया-जाया करती है’.
‘किस डिपार्टमेंट में हैं वो और क्या कर रही हैं?
‘वो कंप्यूटेशनल मैथमेटिक्स में मास्टरज़ कर रही है’
‘और आप?’
‘मैं, बैंकिंग एंड फाइनेंस में’
‘मैंने कॉफ़ी का आख़िरी घूँट भरते हुए कहा, बड़े टफ़ से सब्जेक्ट्स ले रखे हैं आपने?
‘वैसे ज़िन्दगी कौन सी आसान है, ख़ैर...आप बताएँ आप क्या कर रहे हैं?’
‘मैं पेट्रोलियम इंजीनियरिंग में एम. टेक कर रहा हूँ’
‘वाव...गुड, और आपको अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई इतना स्पेस देती हाई कि आप लिट्रेचर पढ़ सकें?’
‘नहीं, वक़्त चुराना पड़ता है, अभी फ्लूइड मैकेनिक्स की क्लास छोड़ कर यहाँ अपने ड्रामे के डायलॉग लिख रहा हूँ’
‘ये तो आसमान से टपके, खजूर पर अटके वाली बात हो गयी. बोरिंग क्लास छोड़ कर बोरिंग काम कर रहे हैं आप. वैसे आप लिख कैसे लेते हैं? मुझसे तो दो लाइन भी ना लिखा जाए. पता नहीं मैं एग्जाम में कैसे लिखती हूँ’.
‘मैं वैसे ही लिख लेता हूँ जैसे आप बोल लेती हैं’
‘अब पहली मुलाक़ात में बेइज़्ज़ती तो न कीजिये, वैसे मैं बोलती कम हूँ पर मेरी सहेलियाँ कहती हैं कि जब मैं बोलती हूँ तो फिर नॉन-स्टॉप बोले चली जाती हूँ. मेरी बकबक झेलने के लिए शुक्रिया. अब मैं चलती हूँ. थोड़ी देर में मेरी क्लास होने वाली है. और अब तक तो आपने मुझे अपना नाम ही नहीं बताया?
‘मैं, ख़ुर्रम सिद्दीक़ी, माफ़ कीजिय बातों-बातों में ध्यान ही नहीं रहा कि मैं ख़ुद का तआरूफ़ कराऊँ’
‘लिखने के लिए बहुत कुछ भूलना पड़ता है, यहाँ तक कि अपना नाम भी’. वो मुस्कुराते हुए बाय करती चली गयी और मैं उसकी इतनी मासूम सी मुस्कराहट पर बहुत देर तक ये सोचता रहा कि क्या आज के दौर में भी बिना मिलावट के भला कोई हँसी होती है क्या?
***
‘तुम अजीब घामड़ लड़की हो यार, बन्दे से मुलाक़ात हुई और मुझसे ज़िक्र तक नहीं किया. और हाँ ! उसे सॉरी क्यूँ नहीं कहा?’ शाम में हॉस्टल जाते हुए उसने उसे लताड़ा.
‘ओहो...तो उसने चुग़ली भी कर दी मेरी? और मुलाक़ात नहीं हुई कोई उससे. वो तो लाइब्रेरी जाते हुए रास्ते में मिला था और तुम क्या चाहती हो, राह चलते हुए मैं किसी से भी बात करने लगूँ?’
‘वो किसी नहीं है, मेरा दोस्त है. आज ही दोस्ती कर के आ रही हूँ उससे. ICH में कॉफ़ी भी पिलाई उसने तो वहीँ थोड़ी देर बात हुई. चुग़ली नहीं की उसने’
‘वाह...पुराने दोस्तों के लिए तो वक़्त ही नहीं है तुम्हारे पास और नयी दोस्ती गाँठी जा रही है, बढ़िया है मन्नो’.
‘दोस्ती सिर्फ़ दोस्ती होती है, नयी-पुरानी नहीं, समझी’
‘हाएँ...आज इतनी बड़ी-बड़ी बातें, तेरी तबियत तो ठीक है न?’
‘तबियत चंगा है शीन मैडम, आज उस से मिल के आई हूँ न तो थोड़ा लिट्रेचर-लिट्रेचर फ़ील कर रही हूँ. बन्दा पेट्रोलियम इंजीनियरिंग में एम. टेक कर रहा है और ड्रामे, कहानियाँ लिखता है. आज भी किसी ड्रामे के डायलॉग लिख रहा था, जो 15 अगस्त को ऑडिटोरियम में चलेगा, देखने चलेगी न?’
‘जब 15 अगस्त आएगा तब देखा जाएगा. अभी तो मुझे भूख लग रही है. चलो कुछ खा कर आते हैं’
‘मैं तेरी इस आदत से तंग हूँ मोटी, जब देखो टूंगते रहती हो. अब चलो भी कैंटीन’
***
हर गुज़रते दिन के साथ उसकी बेरुख़ी मुझे उसके और क़रीब ले जा रही थी. जाने ये दिल की कैसी ज़िद होती है कि ये उसी के लिए धड़का करता है जो कभी इसकी धडकनों पे अपने प्यार की दास्ताँ नहीं लिख सकता. 15 अगस्त के ड्रामे को लेकर मैं उनदिनों बहुत मसरूफ़ था. ड्रामे की स्टोरी के हिसाब से कपड़े, मेकअप सेट, लाइटिंग और साउंड के इंतज़ाम करने थे. माहौल में भी देशभक्ति का एहसास दिखना था, सो इन्हीं सब तैयारियों में इतना मसरूफ़ रहा कि कुछ याद ही नहीं रहा. चूँकि ड्रामे मैंने लिखा था इसलिए टीम से इसके डायरेक्ट करने की ज़िम्मेदारी भी मुझी पर डाल दिया है. इस नई मसरूफ़ियत ने होश से भी बेगाना कर दिया था.
ड्रामा बहुत शानदार हुआ था, सबने बहुत तारीफ़ की. ऑडिटोरियम की खचा-खच भीड़ में मैं उन दो जोड़े आँखों को तलाशने लगा जिनके आने की बहुत उम्मीद थी मुझे मगर नहीं मिली. शायद आई ही ना हों...या भीड़ की वजह से जल्दी निकल गयी हों...या अभी यहीं हों...मुझे नहीं दिख रही हों. दिल हर तरह के सवाल करता और उनके जवाब ख़ुद से तलाशने लगता. कई मर्तबा उसे ढूंढने की कोशिश की मगर इतनी भीड़ में वो दोनों दिखी नहीं, शायद मेरे देखने की ताक़त कम हो गयी थी. उसने कहा तो था आने को...आई ज़रूर होगी. मैं भी तो कितना मसरूफ़ रहा, दुबारा उसे आने को कहा भी नहीं, शायद भूल गयी हो. पर भूल कैसे सकती है...सारी यूनिवर्सिटी तो पोस्टर से अटी पड़ी है. इतनी भीड़ को तो मैंने बुलाया नहीं था, ये सब तो पोस्टर देख के ही आए...फिर वो क्यूँ नहीं आई? ड्रामे के इतिहास रचने की ख़ुशी धीरे-धीरे काफ़ूर होने लगी.
दोस्तों ने टीम मेम्बर ने कॉफ़ी की फ़रमाइश की तो हमसब ICH के कॉफ़ी हाउस की तरफ़ बढ़ गए. कॉफ़ी का आर्डर दे कर हम सब लॉन से थोड़ी दूर बरगद के पेड़ की जड़ों पर बैठ गए और फिर ड्रामे के सीन और डायलॉगस पर बात होने लगी, कभी सीरियस होते कभी ठहाका उबल पड़ता. मैं उन कहकहों से दूर किसी की सोचों में गुम था.
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‘सॉरी मैं आ नहीं पायी थी उस दिन ड्रामा देखने” लाइब्रेरी के न्यू ब्लॉक से निकलते हुए मनाल ने मुझे देख के कहा. मैंने उसकी आवाज़ पर पलट के देखते हुए कहा, ‘अरे आप...मैं सोच रहा था कि पता नहीं कौन, किसलिए सॉरी कह रहा है.’
‘वो...दरअसल शीन को ये सब ड्रामे-प्लेज़ पसंद नहीं सो वो आना नहीं चाहती थी फिर मेरा भी अकेले आने को दिल नहीं किया, अगेन सॉरी’
‘कोई नहीं...सबकी पसंद अलग होती है...पर ये बात मुझे बहुत अजीब लगती है कि लोग फिल्में तो बहुत देखते हैं पर ड्रामे और प्लेज़ नहीं.’
‘ह्म्म्म...आप अपनी प्ले मुझे मेल कर दीजिये, मैं देखने तो नहीं आ पाई पर पढूंगी ज़रूर.’
‘प्लेज़ और कहानी लिखने में बहुत फ़र्क होता है, शायद पढ़ने में आपको मज़ा न आए क्यूँकी प्लेज़ में स्टोरी की तरह फ़्लो नहीं होता. एक ही फ़्रेम में हर किरदार के लिए अलग सीन और उसके हिसाब डायलॉग होता है. फिर भी आप पढ़ना चाहें तो अपमी ई-मेल आई.डी दे दें, मैं मेल कर दूँगा.’
मनाल ने अपना ई-मेल आई.डी लिख के मुझे दिया फिर हम दोनों दो-चार रस्मी बातचीत के बाद सलाम-दुआ करते अपने-अपने काम को निकाल लिए
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सेमेस्टर एक्ज़ाम की तारीख़ आते ही अजब ही गहमा-गहमी का माहौल दिखने लगा. चाय के अड्डे वाली भीड़ लाइब्रेरी में दिखने लगी. इंजीनियरिंग के स्टूडेंट्स साल भर में बस 2 बार वो भी सेमेस्टर के एक्ज़ाम के वक़्त ही पढ़ा करते हैं. मैंने भी अपनी सारी इधर-उधर की मसरूफ़ियत को ताक़ पर रख कर किताबों में खो गया. इस बीच वो भी कई बार लाइब्रेरी में दिखी थी. पढ़ाई का भुत सबको सता रहा था. ठीक-ठाक पेपर निपटाने के बाद मैं विंटर वेकेशन में घर चला गया ताकि अगले और फ़ाइनल सेमेस्टर के लिए ताज़ा दम हो कर आ सकूँ.
घर पे ही था जब मनाल का मेल मिला, लिखा था - ‘मैं भी घर हूँ, आपका प्ले पढ़ा मैंने, आपने सही कहा था कि प्लेज़ पढ़ना और समझना इतना आसान नहीं है. मैंने आधे से भी कम बहुत मुश्किल से पढ़ा है...लिखा तो अपने अच्छा है पर मेरी समझ में नहीं ज़्यादा नहीं आ रहा है. काश कि मैंने अकेले ही आपका प्ले देखने आई होती...काश’
मैंने रिप्लाई किया, ‘काश...मैंने अगले साल भी यूनिवर्सिटी में होता तो आपके लिए ये प्ले फिर से करता...पर इसके लिए मुझे फ़ेल होना पड़ेगा’
दो दिन बाद उसका मेल फिर से आया, ‘कैसे दोस्त हैं आप जो दोस्त के लिए फ़ेल तक नहीं हो सकते? यही दोस्ती है कि दोस्त को अकेले छोड़ के चले जायेंगे?’
मैंने रिप्लाई किया, ‘दोस्ती निभाने के लिए फ़ेल होने की ज़रुरत नहीं होती. यूनिवर्सिटी छोड़ रहा हूँ, दुनिया थोड़े न.’
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यूनिवर्सिटी विंटर वेकेशन के बाद फिर से खुल चुकी थी. लॉन ताज़ा खिले फूलों से गुलज़ार रहते और ऐसे में शीन की गुलाबी मुखड़े की शिद्दत से याद आती. मनाल यूनिवर्सिटी ज्वाइन कर चुकी थी और उसी ने बताया था कि वो अबतक आई नहीं है, शायद नेक्स्ट वीक तक आ जाए. वो दुश्मन-ए-जाँ हर गुज़रते वक़्त के साथ मेरे दिल पर अपना इख्तियार बढ़ाए चली जा रही थी मगर हम दोनों में अबतक बात तक भी न हुई थी. ‘हम उसी के हो गए जो न हो सका हमारा’ के मिसदाक़ मैं उसके इश्क़ के दरिया में डूबता चला जा रहा था मगर उसे ख़बर ही कहाँ थी. कई बार सोचा कि ये बात उसकी सहेली मनाल को ही बता दूँ जो उसतक मेरा पैग़म पहुँचा दे मगर दिल ने इजाज़त नहीं दी.
इस बीच वक़्त अपनी तेज़ रफ़्तार से कहीं ज़्यादा तेज़ी से गुज़रता रहा और एक ही दिन मेरे लिए दो ख़ुशियाँ ले कर आया. पहला, IOCL जैसी टॉप की कंपनी में सेलेक्शन और दूसरी फुलब्राइट फ़ेलोशिप के लिए चुना जाना. इतनी मुश्किल तो मुहब्बत में भी नहीं होती शायद कि ‘उसे भूल जाना है ये उसे याद रखना है’ जितनी अब हो रही थी. नौकरी छोडूँ या फ़ेलोशिप? एक आम इंजिनियर का तो बस यही सपना होता है कि पढ़ाई के बाद जल्दी से कोई अच्छी सी नौकरी मिल जाए. मुझे तो बहुत ज़बरदस्त नौकरी भी मिली थी और दूसरी तरफ़ दुनिया के चौथे नम्बर की ‘स्टेनफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी’ से पीएचडी का मौक़ा भी. दिल और दिमाग़ में मुसलसल कई रोज़ तक एक जंग सा होता रहा.
दोस्तों और घरवालों का कहना था कि जब पीएचडी के बाद जॉब की करनी है तो अभी क्यूँ नहीं? मेरे पीएचडी करने की ज़िद पर बड़े भाई ने कहा था ‘महीने के आख़िर में अकाउंट में एक मोटी रक़म आनी चाहिए बस...चाहे वो टीचिंग जॉब से आये या फील्ड जॉब से, कोई फ़र्क नहीं पड़ता. फ़र्क इससे पड़ता है कि तुम्हारी अकाउंट ख़ाली है या भरी हुई’ और दोस्तों का ये तुक कि ‘दुनिया पैसे को सलाम करती है, जेब में पैसा हो तो सब पूछेंगे वरना कंगाली में तो कुत्ता भी नहीं भौंकता स्साला.’
सबकी जॉब करने के सलाह के बाद भी मैंने पीएचडी करने का सोचा और मेरे इस फ़ैसले से कई दोस्त, भाई और टीचर नाराज़ भी हुए मगर मैंने अपने दिल की सुनी. अमेरिका जाने से पहले सारे दोस्तों को ट्रीट दी. मैं उससे भी मिलना चाहता था. मनाल को मेल भी किया था, वो आने को तैयार भी नहीं मगर सबके साथ नहीं...अलग पार्टी में क्यूँकी उसका कहना था जिसे मैं जानती नहीं उसके साथ मैं कम्फ़र्ट फ़ील नहीं कर पाऊँगी. वैसे भी जब कम लोग होंगे तभी तो हम बात कर पायेंगे वरना मिलने का फ़ायदा क्या? सिर्फ़ पार्टी के नाम पर मिलना मुझे सही नहीं लगता. हमने अलग से एक दिन लंच का प्रोग्राम बनाया मगर ढाक के वही तीन पात. शीन ने नहीं आना था नहीं आई, वजह...मैं उसकी दोस्त तो हूँ नहीं जो उसकी पार्टी में जाउँ.
वो जितना मुझ से दूर-दूर रहती मैं उतना ही उसके क़रीब होता चला जा रहा था...मैं अपनी मुहब्बत में उससे बस उतना ही दूर था जितना उसके आँख और काजल के बीच का फ़ासला था मगर ये दूरी नदी के दो पाटों की तरह थी, जो साथ साथ चलने के बावजूद कभी एक नहीं होते. मैं अपने दिल में उसका प्यार और उसके दिल में अपने लिए दूरी लिए लगभग 7000 किलोमीटर दूर अपने सपने की परछाई को उजाले की रौशनी में देखने की हसरत लिए चला गया.
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लगभग 10 की लम्बी और थका देने वाले सफ़र के बाद मैंने उस ज़मीन पर क़दम रखा जहाँ से मेरे सपने हक़ीक़त के रूप में मेरी आँख में सजने वाले थे. हफ़्ते-दस दिन तक तो एडमिशन, रहने-खाने और दुसरे ज़रूरी इंतज़ाम में निकल गए. यहाँ किसी को किसी के लिए वक़्त नहीं होता, सबकुछ ख़ुद सीखना, समझना और करना होता है. जब ज़रा फ़ुर्सत हुई तो मन्नो को मेल किया. यहाँ की पीएचडी में वक़्त निकालना बहुत ही मुश्किल काम होता है. 5 दिन जैम कर काम...काम...काम और सिर्फ़ काम और बाक़ी दो दिन दुनिया जहाँ की मस्ती, लेकिन ये छुट्टी के दो दिन भी मेरे अपने काम में निकल जाते, कमरे की सफ़ाई करना, कपड़े धोना, खाना बना के फ्रीज़ कर लेना, किताबें पढ़ना और कभी कुछ वक़्त बाख जाए तो घूमने निकल जाना.
सच कहूँ तो पीएचडी के 5 साल मैं अमेरिका में कोल्हू के बैल की तरह जूता रहा...फ़ुर्सत तो जैसे मेरे लिए अजायबघर में रखे किसी क़ीमती चीज़ की तरह तरह था जिसे बस दूर से निहार सकता था, पा नहीं सकता था. बीते 5 सालों में मैंने मनाल को अनगिनत मेल किये...उसके मेल में कभी-कभार उसकी खैरियत मिल जाया करती थी. यूँ तो हम अक्सर और ज़्यादा अपनी ही बातें किया करते थे मगर दिल में एक चोर सा था कि काश वो बिना पूछे उस दुशम-ए-जाँ की भी ख़बर दे दिया करे और वो कभी-कभी मुझ पर मेहरबां हो भी जाती थी.
शीन की मुहब्बत जो इण्डिया में एक चिंगारी के रूप में शुरू हुई थी उसने मेरे वजूद को बहुत जल्द की इश्क़ की अगन के लपेट में ले लिया था मगर उसके लिए-दिए और बेगानेपन के अंदाज़ ने इसपर राख की एक तह बिछा दी थी जो गुज़रते वक़्त के साथ शोला बन चुकी है. हाँ ये सच है कि मैं उसे बेपनाह चाहता हूँ, उसकी तमामतर बेरुख़ी और बे मुरव्वती के बावजूद क्यूँकी मुहब्बत कोई व्यापार नहीं जिसमें दिल के बदले दिल दिया ही जाए. ये वो जज़्बा है जिसमें एक को दुसरे के लिए क़ुर्बान होना ही पड़ता है. जैसे पतंगा शमा की लौ से मुहब्बत का इक़रार सुनने की हसरत में फ़ना हो जाता है मगर अपने इश्क़ के हक़ से दस्तबरदार नहीं होता. मुहब्बत सिर्फ़ पाने का नाम नहीं है, खो देने का नाम भी मुहब्बत है और मुहब्बत की तारीख़ में वही अमर हुआ है जिसने अपने आप को किसी के लिए खो दिया है, पाने वालों के इश्क़ के चर्चे सिर्फ़ चन्द रोज़ होते हैं, वाह-वाहियाँ बस ज़माने के लिए होती हैं मगर किसी की इश्क़ में फ़ना हो जाने की दास्ताँ सदियों तक लोगों ज़ुबां पर दास्ताँ बन कर मचलता रहता है और उनका ग़म गातों और अफ़सानों में ज़िन्दा रहते हैं.
मुहब्बत किसी फ़ॉर्मूले की मोहताज नहीं होती और मेरी मुहब्बत में भी किसी फ़ॉर्मूले की ज़रुरत नहीं थी. हाँ, इतना ज़रूर था कि मुझे उसकी बेरुख़ी से इश्क़ हो गया था. ये ज़रूरी तो नहीं कि इश्क़ सिर्फ़ दिल से हो, बेमुरव्वती और बेरुख़ी भी तो दिल से ही की जाती है सो मैंने उसकी बेरुख़ी पर अपने आप को फ़ना कर दिया था.
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अभी मैं पीएचडी के फाइनल ईयर में ही था कि ब्रिटिश पेट्रोलियम से जॉब की ऑफर हुई और इस बार मैंने किसी को शिकायत का मौक़ा नहीं दिया. आख़िरी साल बहुत मसरूफ़ गुज़रा. पीएचडी सबमिशन और जॉब जॉइनिंग...दम मरने तक की फ़ुर्सत नहीं थी मुझे. ब्रिटिश पेट्रोलियम का ट्रेनिंग शेडयूल इतना सख्त था कि मरने तक की फ़ुर्सत नहीं थी. कभी कभार मनाल से मेल से बात हो जाया करती थी मगर अब उसने भी अब उसकी ख़बर देनी बंद कर दी थी. उसे पता ही कब थी मेरे दिल के कैफ़ियत की. मैं तो बस इश्क़ के अगन और उसकी बेरुख़ी के सहारे ज़िन्दगी के दिन गिन रहा था. लोग मौत के दिन करते हैं, इश्क़ में किसी को हासिल न कर पाना मौत से कम है क्या? पर नाकामी-ए-इश्क़ के जनाज़े में कोई नहीं आता शायद इसे शरियत इजाज़त नहीं देता हो, मगर दिलों पर कब किसका ज़ोर चल पाया है.
ब्रिटिश पेट्रोलियम का एक साल का सख्त ट्रेनिंग शेडयूल था और इस एक साल में उन्होंने लगभग आधी दुनिया तो घुमा ही दी थी. एक पैर तो मानो सफ़र में ही रहता है. जिस देश, जिस नगर भी गया उसके यादों के उसके यादों के निशाँ हमेशा मेरे साथ रहे. मगर एक वो थी अपना दिल तक मेरे नाम से ज़ख़्मी न कर सकी और मैंने दर्जनों देश की फ़िज़ाओं में उसके नाम के हर्फ़ घोल आया था. शायद कभी हवा वो सारे हर्फ़ जो मैंने उसकी याद में फ़िज़ाओं में बिखेरे थे उसके कानों को छु कर मेरा नाम बता जाए, शायद उसे तब भी यक़ीन न हो मेरी चाहत पर. यकीन तो तब हो जब वो मिलती मुझसे, उसने तो दिल तक पहुँचने के सारे रास्ते पहले ही बंद कर दिए थे. पर आँखों के रास्ते दिल में उतरने का हुनर इश्क़ को बख़ूबी आता है और शायद वो मेरी बोलती आँखों के सवालों के जवाब न बन पाने के डर से सामने न आती हो. मैंने भी ख़ुद को वक़्त, हालत और इश्क़ के धारे और तकाज़े पर छोड़ दिया था. बस मुहब्बत की और उसे निभाए जा रहा हूँ बिना किसी बदले की उम्मीद की.
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‘अरे अब उठिए भी...’ किसी ने मेरा कंधा ज़ोर से हिलाया तो मैं चौंक के उठा, देखा तो सामने वही थी. मेरी तो जैसे आवाज़ ही बंद हो गयी थी.
‘आपकी फ्लाइट का वक़्त हो चूका है, कब से आपके नाम की अनाउंसमेंट हो रही है. पहले तो मैंने नाम पर ध्यान नहीं दिया मगर जब ख़ुद के लिए कॉफ़ी लेने आई तो आपको और आपके बाग में लगे ट्रेवलिंग स्लिप से अंदाज़ा लगाया कि फ्लाइट में आपका ही इंतज़ार हो रहा है’ उसका वही पुराना नपा-तुला अंदाज़ था.
दरअसल मैं उसे वेटिंग लाउन्ज में बैठा देख पास के कैफेटेरिया एरिया में कॉफ़ी में चला आया ट्रेनिंग के दौरान कई लोगों से दोस्ती भी हुई जिसमें मेरा ये यूनानी दोस्त भी था. दरअसल ट्रेनिंग के बाद घर जाने की छुट्टी मिली और हम दोनों की फ्लाइट एक ही दिन चन्द घंटे के वक्फे से थी. जब मैं उसे सी-ऑफ कर के आ रहा था तभी उस दुश्मन-ए-जाँ का दीदार हुआ और मैं वक़्त की पुरानी रवीश पर चलने में इतना खो गया कि वक़्त के गुजरने और अपनी फ्लाइट के वक़्त और अनाउंसमेंट का भी होश नहीं रहा.
‘किसी को पा लेने की इतनी ख़ुशी नहीं होती जितना किसी को खो देने का दुःख होता है’ उसे देख के एक हुक सी दिल में उठी, इतना क़रीब हो कर भी हम कितने दूर थे. कोई ख़ास रिश्ता तो था नहीं उसकी तरफ़ से मगर फिर भी उसने मेरे लिए फ़िक्र इतनी फ़िक्र मेरी चाहत की लौ को उम्र भर जलाने के लिए काफ़ी थी. वक़्त ने सात सालों बाद मिलाया था दूरी उतनी ही थी जितनी उसके आँख और काजल के दरमियान पहले थी. वही कजरारे नैन वहीँ गुलाब सा चेहरा बस नहीं था कुछ तो मेरी चाहत की तहरीर. शायद कुछ लोग मिलते ही बिछड़ने के लिए हैं. मैंने अपना शोल्डर बैग कंधे से लटकाया और ट्राली को घसीटते हुए टर्मिनल नम्बर चार की तरफ़ बढ़ चला.
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- © नैय्यर / 12-10-2015

Wednesday, 7 October 2015

कबूतर ख़ाना

‘दीवारों के भी कान होते हैं मगर ज़बान नहीं इसलिए दीवारें इंसानों से बहुत बेहतर और भरोसेमंद राज़दार हुआ करती हैं.’ मेरी यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी की किताबों से सजी रैक इस मामले में बिलकुल भी भरोसे के क़ाबिल नहीं है क्यूँकी तरह-तरह की ढेरों मोटी-पतली, छोटी-बड़ी, नयी-पुरानी किताबों से सजी रैक यूँ तो काम दीवारों वाला ही करती हैं मगर ख़ासियत दीवारों वाली बिलकुल भी नहीं है और मैं चूँकि नॉवेल्स का दीवाना हूँ इसलिए ख़रबूजे को देख कर ख़रबूजे के रंग पकड़ने वाले मुहावरे ने मुझपर काफ़ी असर डाला है और आजकल मैं भी राज़ फ़ाश करने के मामले में लाइब्रेरी की किताबों से सजी रैक से होड़ लगाए बैठा हूँ. इसलिए आपसे गुज़ारिश है कि आप भूल कर भी अपने राज़ मुझ तक न पहुँचने दें वरना आप ख़्वाह-म-ख़्वाह ही मुझपर भरोसा करना छोड़ मुझे चुग़लख़ोर कहने लगेंगे.
मेरी छोड़िये और पिछले दिनों ताज़ा-ताज़ा घटी एक रुदाद सुनिए. मैं लाइब्रेरी की रीडिंग सेक्शन में बैठा ‘सात-फेरे’ पढ़ रहा था कि पास से झींगुर जैसी आती आवाज़ पे कान अटक गया. मैंने अपनी कान को सही जगह पर सही सलामत पा कर सुकून का साँस लिया और झींगुर जैसी आती आवाज़ पे खोजी निगाह दौड़ाई तो ध्यान पास वाली टेबुल के गिर्द रखी कुर्सी पर बैठे जोड़े पर टंग गया. निगाह तो वहीँ टांग निगाह को जब वहाँ अटकाया तो एक अलग ही नज़ारा आँखों के फ़िल्म रील पे चलने लगा. लड़की ने लड़के के पैर पर अपनी सैंडिल से ठोकर मारते हुए कहा, - ‘ये तू कैसे कपड़े पहनता है बे? ऐसा लगता है जैसे कपड़े किसी फूटपाथ से उठा लाया है. और ये तूने जींस किस कलर की पहन रखी है? कम्पनी वालों से इसे कुछ ज़्यादा ही वाश नहीं कर दिया? मुझे देखो, मैं कितनी ब्रांडेड और स्टाइलिश कपड़े पहनती हूँ. मैं अपनी सारी शॉपिंग बड़े-बड़े मॉल के ब्रांडेड शो-रूम से ही करती हूँ और एक तू है कि कपड़े भी पहनने का ढंग नहीं. तुझ से अच्छे कपड़े तो आजकल भंगी पहनने लगे हैं. और तेरे जूते तो ऐसे होते हैं कि मोची उसे मरम्मत करते वक़्त जूते को कम तेरे थोबड़े को ज़्यादा देखता होगा. ख़ुद तो तू लंगूर जैसी शकल का है ऊपर से तेरे में ज़रा भी स्टाइल नहीं, अबे अपनी नहीं तो कम से कम मेरी रेपो का तो ख़याल कर ले. मेरी ज़रा भी तुझे परवाह तो है नहीं और आये दिन शादी के लिए प्रोपोज़ करता रहता है. हुन्ह्ह्हह !’
ऐसी फटी-पुरानी इश्क़ की दास्तान सुन कर भला किस पढ़ाकू का दिल पढ़ने में लगेगा? मैं किताब वापस कर लाइब्रेरी से बाहर निकल आया और लॉन के कोने में खड़े पुराने इमली के पेड़ से टेक लगाए ये सोचने लगा कि रविश कुमार ने क्या सोचकर, क्या देखकर ‘इश्क़ में शहर होना’ लिखा है? मेट्रो शहरों की प्रेम-गाथाएँ ऐसी ही होती हैं क्या? शायद रविश ने शहरों की लाइब्रेरीयों में उगते-बढ़ते प्रेम बेल को नहीं देखा होगा. शहर तो पहले ही कंक्रीट का जंगल बन चूका है. पार्क ऐसे ग़ायब हो गए जैसे लोगों की ज़िन्दगी से अच्छे दिन. बचे-खुचे पेड़-पौधे हारे हुए नाकाम आशिक़ की तरह अपनी इश्क़ की झूटी कहानी पर बदहाली के आँसू बहा रहे हैं. ऐसे में नौवाजन जोड़े जायें तो जायें कहाँ? बैठे तो बैठे कहाँ? विकास के मेट्रो पे सवार शहरों से रिवायती इश्क़ तो पहले ही पानी के घटते जल-स्तर की तरह कम हो गया है, बचे-खुचे इश्क़ को उसकी दिन दुनी-रात चौगुनी बिगड़ती भाषा ने आत्महत्या के लिए मजबूर कर दिया है और 21वीं सदी के इन ना मुराद आशिक़ों ने सड़कों, गलियों, पार्कों, मेट्रो स्टेशनों पर पहले ही क़ब्ज़ा जमाया हुआ था और अब मजनू के रिश्तेदारों ने लाइब्रेरी को भी कबूतर ख़ाना बना दिया है. ऐसे में मुझ जैसे किताबों से इश्क़ बघारने वाले पुराने आशिक़ कहाँ जायें? हमारे लिए तो कोई जगह पहले भी नहीं थी और जो एक जगह यानी लाइब्रेरी आशिक़ों की नज़र से बची रह गयी थी (क्यूँकी आशिक़ों और किताबों की दुश्मनी रोज़-ए-अव्वल से जग जाहिर है) अब वहाँ भी गुटूर गूँ सुनने के अलावा कोई चारा नहीं बचा और विकास के दौर में कबूतरों के जोड़ों का इश्क़ भी महज़ कपड़ों तक ही सिमट कर रह गया है.
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- नैय्यर / 15-09-2015

Sunday, 4 October 2015

شور

'تصویر مکّمل ہو گئی؟' رات کے تین بجے جب میں پورے انحماق سے آئینے کے سامنے بیٹھا 'سیلف پورٹریٹ' کو آخری ٹچ دینے میں محو تھا تبھی موبائل اسکرین پر اسکے نام کے کمکے جلنے لگے اور فون اسکے نام کی لن ترانی بجانے کے چکّر میں چیخ اٹھا- رنگوں کی ٹیوب کے پاس پڑے فون کو بائیں کان سے لگا کر میرے 'ہوں' کہتے ہی اسنے سوال پوچھ ڈالا-
'نہیں، ابھی آنکھوں اور ہونٹوں کی فینیشنگ باقی ہے جسے دن میں پورا کروں گا'- میں نے دائیں ہاتھ میں پکڑی ہوئی کلر مکسنگ پلیٹ اور برش کو پاس پڑے اسٹول پر رکھ کر سگریٹ سلگاتے ہوے کہا-
'تو میں صبح آ جاؤں دیکھنے'، اسنے التجائی لہجے میں پوچھا-
'اب صبح تم کیا زحمت کروگی، کل گیارہ بجے سیدھے نمائش میں ہی چلی آنا اور وہیں دیکھ لینا- اب جیسا ہوں پورٹریٹ بھی تو ویسا ہی ہوگا نہ- ابھی میری برش میں یہ کمال پیدا نہیں ہوا کہ رنک کو راجہ بنا ڈالے اور نا ہی میرے برش میں کوئی جادوئی طاقت ہے-'
'نہیں نہ میرے بدّھو راجا، میں صبح آؤں گی اور نمائش پانچ تاریخ کو ہے اور آج چار تاریخ ہے- میں پورے ایک دن تمھاری پورٹریٹ دیکھنے کے لئے انتظار نہیں کر سکتی-'
'کہہ تو ایسے رہی ہو جیسے چوبیس گھنٹے تم میرے ہی ساتھ رہتی ہو-'
'اچھّا... اب لڑو تو نہیں، اور سنو... میں دوپہر میں تمہارے ہاتھ کا بنا 'دم آلو' کھاؤں گی اور ساتھ میں بریڈ کے میٹھے ٹکرے بنانا مت بھولنا- کل دن میں ملتے ہیں اور شام میں ساحل پر ہوا کھوری کے لئے بھی چلیں گے-' اپنا پروگرام سنا کر اسنے کال منقطع کر دیا-
ساحل...ہاں تم بھی تو بالکل ساحل کی ریت کی طرح میری مٹّھی سے پھسل چکی ہو، مٹّھی ہی کیا تم تو میرے قسمت میں ہی نہیں تھی شاید- قسمت بھی لکیروں کی عجیب بھول بھلیّا ہے، جو ماتھے کی لکیروں میں ہوتے ہیں وہ ہاتھوں کی لکیروں میں نہیں اور قسمتوں کے پرے جا کر اگر کسی کا ہاتھ تھامنا چاہو تو زمانہ جانے کیوں مخالفت میں اتر جاتا ہے- رنگ سے سنے اپنے ہاتھوں میں اسکے نام کی لکیر کھوجتا رہا اور جب اسکے نام کی ایک بھی لکیر نہیں ملی تو تھک ہار کر بالوں کو رنگنے کے لئے مکس کئے ہوئے بلیک اور گرے رنگ کے امتجاز کو ہتھیلیوں پر رگڑ سیاہ آسمان کے ہمرنگ کر اسکے سامنے پھیلا دیا جسکا یہ دعوٰی ہے کہ وہ سبکی تقدیریں بنا کسی امتیاز کے لکھتا ہے- اگر وہ جوڑے آسمانوں پر بناتا ہے تو دل کی دھڑکنوں کو سلب کر اپنے اختیار میں کیوں نہیں رکھتا؟ وہ تو ہر چیز پر قادر ہے پھر جب دل کسی غیر کے لئے دھڑکتا ہے جسے اسنے ہماری تقدیر میں نہیں لکھا تو وہ ہماری خواہشوں کو روک کیوں نہیں دیتا؟
کاتبِ تقدیر سے شکوہ کرتے کرتے جانے کب میں نیند کی وادی میں اتر گیا- صبح جب آنکھ کھلی تو سورج کی نرم کرنیں زمیں کے لبوں کو بوسہ دے رہی تھیں- رنگ اور برش سوکھ کر اکڑ چکے تھے- کافی کا مگ بناتے ہوئے میں نے سگریٹ سلگایا اور گرم پانی میں برش کو ڈال کافی کی چوکی لیتے ہوئے رنگوں کا نیا آمیزہ تیّار کرنے لگا-
'یہ تم نے کتنی اداس آنکھیں بنائی ہیں اپنی، ایسا لگ رہا ہے جیسے سمندر کی ساری ویرانی تمھاری آنکھوں میں اتر آئی ہے- ایسی آنکھیں یا تو کسی دیوانے کی ہوتی ہیں یا پھر کسی قاتل کی-'
'میں تو دونوں ہوں، تمھارا دیوانہ اور اپنی محبّت کا قاتل-'
'ایسی باتیں کر کے میرا دل کیوں دکھاتے ہو تم؟ یہ تو تم ہی کہا کرتے تھے نہ کہ سچّی محبّت کبھی مکمل نہیں ہوتی اور شاید ہم دونوں ایک دوسرے کی قسمت میں تھے ہی نہیں پھر کیوں تم کو خود کو ہماری محبّت کا قاتل سمجھتے ہو-'
'کچھ لفظ اور سچّائیاں صرف کہنے اور کتابوں میں پڑھنے میں ہی اچھّی لگتی ہیں جیسے قسمت، محبّت، سماج وغیرہ اور ہر بار ہم قسمت کو ہی موردِ الزام کیوں ٹھہرائیں؟ تمھارے باپ ہی تو ہماری محبّت کے بیچ دیوار بن کر کھڑے ہوئے تھے، کبھی انہیں بھی کوس لیا کرو-' میں نے ہونٹوں کی لکیروں کو گہرا کرتے ہوئے کہا-
'وہ میرے باپ ہیں، سمجھا کرو ... اور جب والدین اپنی بیٹی کو بیاہ کر خود سے الگ دوسرے گھر بھیجتے ہیں تو وہ چاہتے ہیں کہ لڑکا مالی اعتبار سے مستحکم ہو تاکہ اس کی نازوں پلی بیٹی کو کوئی تکلیف نہ ہو-'
'ہاں... میں تو جیسے سڑک پہ تھا نہ، اچھّی خاصی تعلیم ہے میرے پاس اور میری پینٹنگز لاکھوں میں بکتی ہیں پھر تمھارے باپ کو یہ خدشہ کیوں تھا کہ میں مالی اعتبار سے مستحکم نہیں ہوں-'
'کیونکہ تم نے اپنی اچھّی بھلی آرکیٹیکچر کی جاب چھوڑ کر پینٹ برش تھام لیا اور میرے باپ کے حساب سے یہ کوئی مستحکم جاب نہیں ہے، کبھی دل کیا تو ایک دن میں درجنوں تصاویر بنا ڈالی اور کبھی ہفتوں برش تک نہیں چھوا-'
'انجینئرنگ کرانا میرے باپ کا سپنا تھا اور پینٹ برش کے ساتھ کینوس پر کھیلنا میرا سپنا تھا اور میں نے دونوں سپنے پورے کئے، ویسے تمھارے باپ کی پرابلم کیا تھی... مالی مستحکم یا مستحکم جاب؟ میری ایک پینٹنگ لاکھوں میں بکتی ہے اور میں آرکیٹیکچر کی جاب میں ایک مہینے میں لاکھوں کماتا تھا پر بھی تمھارے باپ کو اعتراض جانے کس بات پر تھا- انہیں تو بس ہماری محبّت کی راہ میں دیوار بننا تھا سو وہ بن گئے-'
'یار تو میرے باپ کی وجہ سے تم مجھ سے کیوں لڑ رہے ہو؟ چلو کھانا تو کھلاؤ بہت تیز بھوک لگ رہی ہے اب-'
'واؤ...بہت ہیترین ذائقہ، اسنے لقمہ منہ میں رکھتے ہوئے دل کھول کر تعریف کیا-' شکر تھا کہ کھانے کے دوران ہم دونوں کسی بات پر زیادہ غیر متّفق نہیں ہوئے-
منہ میں میٹھے بریڈ کا ٹکرا رکھتے ہوئے چھاؤں میں سوکھ رہی میری پورٹریٹ کو تنقیدی نگاہ سے دیکھتے ہوئے اس نے شاباشی میں میرے کندھے تھپتھپاتے ہوئے کہا 'یار کسی دن میرا بھی پورٹریٹ بنا دو-'
'نہیں...میں تمھارا پورٹریٹ نہیں بناؤں گا-'
'پر...کیوں؟'
'کیوں کہ میں اپنی زندگی کا ایک کینوس کھالی رکھنا چاہتا ہوں تاکہ میں جب کبھی اس کینوس کو دیکھوں تو تمھاری تصویر ابھر جائے-'
'پر خالی کینوس پر تصویر کیسے ابھر سکتی ہے؟ '
'تمھاری تصویر میری ان آنکھوں میں بسی ہے اور میں جب بھی اپنی زندگی کے خالی کینوس کو دیکھوں گا تمھاری تصویر ابھر جایا کرے گی-'
'یہ جانتے ہوئے بھی کہ ہم ایک نہیں ہو سکتے، مجھے اس قدر دیوانہ وار نہ چاہو کہ ہماری جدائی تمھاری آنکھوں میں ٹوٹے کانچ کی مانند چبھنے لگے- تمھارا دل جو میری پناہگاہ تھا وہ تم نے پہلے ہی ویران کر رکھا ہے، اب میں تمھاری آنکھوں میں مقیم ہوں تو اسے تو کم سے کم مجروح نہ کرو، کہتے ہوئے وہ بے اختیار مجھ سے لپٹ گئ اور میری آنکھوں کو چوم لیا-
'اب تو سورج کی تپش بھی کم ہونے لگی ہے، تیّار ہو جاؤ ساحل پر چلتے ہیں... غروبِ آفتاب کا دلفریب منظر دیکھیں گے-'
'نہیں...دل نہیں کر رہا ہے، ویسے بھی اب مجھے ڈوبتے سورج کا منظر دلفریب نہیں لگتا-'
'کیوں بھلا...کبھی غروبِ آفتاب دیکھنا تو تمھارا دلچسپ مشغلہ ہوا کرتا تھا اب کیا ہو گیا؟'
'جب سے میں نے قسمت کے ساحل سے اپنی محبّت کو ڈوبتے دیکھا ہے مجھے ہر ڈوبتی چیز سے نفرت ہو گئ ہے، چاہے وہ ڈوبتا سورج ہو یا ڈوبتی ناؤ-'
'اب ایسے تو نہ کہو... تمنے ہی تو کبھی کہا تھا کہ قسمتیں ندیوں کی طرح ہوتی ہیں اور ہر ندی کی قسمت میں ساگر نہیں ہوتا-' اب اٹھ بھی جاؤ، ساحل پر صرف چہل قدمی کر کے چلے آئیں گے-
'نہیں...مجھ سے عشق میں ناکام عاشقوں کی حالت نہیں دیکھی جاتی-'
'اب ساحل پر کون مرگِ بسمل ہوا پڑا ہے؟'
'لہریں...جو ساحل سے محبّت کرتی ہیں مگر اسکی بےرخی سے گھائل ہو کر واپس پلٹ جاتی ہیں-' کبھی تم نے ان گھائل لہروں کی پُر درد آواز سنی ہے؟ ان ماتم کناں شور سے میرا دل بھٹّی بن جاتا ہے اور اب مجھ میں اتنی سکت نہیں کہ میں ہجر کی آگ کے ساتھ ساتھ ناکامیِ محبّت کی آگ میں بھی جلوں-'
~
- نیّر امام / 05-10-2015

Monday, 21 September 2015



मेरे सवाल "क्या आप मुझसे शादी करेंगी?" का बजाए जवाब देने के उसने तमक कर साढ़े सैंतालिस डिग्री के कोण से मेरे चेहरे को घूरते हुए पूछा, - "कभी अपनी शकल देखी है आईने में?" मैंने उसकी शर्बती आँखों को नज़रों से चखते हुए कहा, - “आज तक तो मैं अपनी शकल आईने में ही देखता आया हूँ और अगर आप मेरे सवाल का जवाब ‘हाँ’ में दे दें मैं वादा करता हूँ कि मैं जल्दी ही अपनी शकल आपकी इन झील सी आँखों में देखने लगूँगा”. 

‘बड़े बदतमीज़ हो तुम’, उसने अपनी आँखों पे चश्मा जमाते हुए कहा.

‘जी, ज़र्रा नवाज़ी का बहुत-बहुत शुक्रिया लेकिन मैं आपकी इस तारीफ़ को इक़रार समझूँ या इनकार?’ चश्मे के पीछे छुपी उसकी आँखों को घूरते हुए मैंने पूछा.

‘तुम्हारा सर’ ... और वो पैर पटकती वहाँ से चली गयी. 
~
- नैय्यर / 21-09-2015
 

Tuesday, 1 September 2015

औरंगज़ेब : व्यक्तित्व का छुपा पहलु

अबुल मुज़फ़्फ़र मुहियुद्दीन मुहम्मद औरंगज़ेब आलमगीर मुग़ल शहंशाहों में पहला शहंशाह हुआ जिसने क़ुरआन हिफ़्ज़ किया। सम्राट अकबर के ज़माने से ही हिन्दू मनसबदारों के साथ उदार रवैय्या रखा जाता था जिसे औरंगज़ेब ने भी अपनाया और अपने दरबार में किसी भी हिन्दू को उसके हिन्दू होने की वजह से उसके जायज़ हक़ या तरक़्क़ी से नहीं रोका।
शाहजहाँ हाथियों की लड़ाई देख रहे थे। शहज़ादा औरंगज़ेब हथियार से लैस घोड़े पर सवार मैदान के एक कोने में खड़ा था कि अचानक एक हाथी के हलक़ से बड़ी ख़ौफ़नाक चिंघाड़ निकली। शहज़ादे ने चौंक कर उसे देखा और फ़ौरन अंदाज़ा लगा लिया कि हाथी पर पागलपन का दौरा पड़ने वाला है। हाथी का महावत भी घबरा गया। उधर हाथी ने अपनी सूँढ़ उठाए क़रीब खड़े घोड़े पर हमला कर दिया। शहज़ादा भी मैदान में डट गया। शाहजहाँ आख़िर बाप था उसने गरज कर सिपाहियों को हुक्म दिया, "हाथी को ख़त्म कर दिया जाए" मगर शहज़ादे ने तेज़ आवाज़ में कहा, "अब्बा हुज़ूर ! सिपाहियों को रोकिये, मैं अल्लाह के हुक्म से हाथी का मिजाज़ दुरुस्त कर दूँगा" और अपना भाला हाथी के जिस्म में घोंप दिया जिससे हाथी और पागल हो गया और उसने शहज़ादे के घोड़े को अपनी सूँढ़ में लपेटा और ज़मीन पर पटक दिया। इसी बीच शहज़ादा फुर्ती से घोड़े से नीचे कूद चूका था। उसने अपनी तेज़धार तलवार म्यान से निकली और और ऐसा ज़बरदस्त वार किया कि हाथी की सूँढ़ कट कर दूर जा गिरी। इस ज़ख़्म से हाथी के होश ठिकाने आ गए और वो मैदान से भाग खड़ा हुआ। शहंशाह नेे मसनद से उठ कर शहज़ादा औरंगज़ेब को गले से लगाया और उसी वक़्त सबसे ख़तरनाक इलाक़े बलख़ पर हमला करने वाली फ़ौज का सिपहसालार बना दिया। तब औरंगज़ेब की उम्र महज़ 14 साल थी।
काफ़ी देर से औरंगज़ेब की फ़ौज़ जंग की तैयारी कर रही थी क्योंकि इस बार लड़ाई उज़बेग बाग़ियों से था जो बहुत दिलेरी से लड़ते थे। तैयारी पूरी होते ही शहज़ादा औरंगज़ेब शाही फ़ौज लेकर चल पड़ा और बलख़ शहर के क़रीब पहुँच कर उसने उसने ख़ेमे गड़वा दिए। उज़बेग लड़ाके गुरिल्ला जंग के बड़े माहिर थे। वो छुप कर बैठे रहते फिर मौक़ा पाकर अचानक हमला करते और फ़ौज को नुक़सान पहुँचा कर भाग जाते। शहज़ादे ने दुश्मन सरदार को पैग़ाम भेजा कि ''मेरी फ़ौज तुम्हारी फ़ौज से कम है मगर मेरा हौसला तुमसे चार गुना ज़्यादा है, मैदाने जंग में आकर आज़मा लो।'' दुश्मन सरदार को शहज़ादे की ललकार पसंद आई और वो अपनी भारी फ़ौज लेकर मैदान में आ गया। घमासान की लड़ाई होने लगी। इसी बीच अस्र की नमाज़ का वक़्त हुआ। शहज़ादे ने अपनी तलवार रोक दी, घोड़े की जीन से दबी जाय-नमाज़ खींची और मैदाने जंग में ही एक तरफ़ खड़ा होकर नमाज़ पढ़ने लगा। उज़बेग सरदार ने जब शहज़ादे को सुकून से नमाज़ पढ़ते देखा तो मारे हैरत के उसकी आँख खुली की खुली रह गयी। उसने चिल्ला कर अपनी फ़ौज को हुक्म दिया, "अपने हाथ रोक लो, इस शख़्स को अपने ख़ुदा पर इतना भरोसा है कि इससे लड़ना तक़दीर से लड़ने वाली बात है।" दोनों फ़ौजों में सुलह हो गई और उज़बेग सरदार ने शहज़ादे से दोस्ती कर ली। इस तरह औरगज़ेब पहला मुग़ल हुआ जिसने बलख को मुग़ल साम्राज्य में मिलाया।
मौलाना सालेह जैसे बुज़ुर्ग उस्ताद ने औरगज़ेब को क़ुरआन हिफ़्ज़ कराया था। शहज़ादा मौलाना सालेह के साथ साथ अपने सभी उस्तादों का बहुत एहतराम करता था। उसकी ये आदत शहंशाह बनने के बाद भी जारी रही। शहज़ादा कहा करता था कि ''उस्ताद इल्म देकर हैवान से इंसान बनाता है इसलिए उसकी इज़्ज़त करनी चाहिए।''
औरगज़ेब को हुक़ूमत करते कई साल गुज़र चुके थे। अब वो सारे हिन्दुस्तान का शहंशाह था। एक दिन मौलाना सालेह की बीवी ने अपने शौहर से कहा, "तुम्हारा शागिर्द बहुत बड़ा बादशाह बन गया है। तुम जाकर उससे बात करो तो वो हमारी ग़रीबी को बहुत आसानी से दूर कर सकता है।" मौलाना सालेह ने बहुत आराम से बीवी को समझाया, "नेक बख़्त ! क्यूँ मेरी नेकी बर्बाद करने पर तुली बैठी हो? उस्ताद अपने शागिर्द को देता है, लेता कुछ नहीं। दूसरी बात ये कि मेरा शागिर्द नाजायज़ काम करने को पसंद नहीं करता और अगर उसने मुझे दौलत वग़ैरह देने की कोशिश की तो मैं समझूँगा कि मेरी मेहनत बर्बाद हो गयी।" मौलाना सालेह ने अपनी बीवी को समझाने की बहुत कोशिश की मगर वो अल्लाह की बंदी अपनी ज़िद पर क़ायम रही।
आख़िरकार मौलाना सालेह ने हथियार डाल दिए और अपने शागिर्द से मिलने की तैयारी करने लगे। मौलाना सालेह एक ग़रीब इंसान थे मगर ख़ाली हाथ बादशाह के दरबार में जाना भी उन्हें पसंद नहीं था। उनकी बीवी ने गुड़ मिले आटे के गुलगुले बना दिए और एक मिट्टी के बर्तन में उसे बंद कर दिया। मौलाना सालेह ये तोहफ़ा लेकर शाही दरबार की तरफ़ रवाना हो गए। शदीद गर्मी का मौसम था, लम्बा सफ़र करके जब वो शाही दरबार में पहुँचे तो गुलगुलों से बदबू आने लगी थी। औरगज़ेब तख़्ते शाही पे बैठा कोई मुक़दमा सुन रहा था कि उसकी निगाह अपने उस्ताद पर पड़ी। वो फ़ौरन तख़्त से नीचे उतर पड़ा और भागता हुआ उस्ताद के सामने एहतराम से झुक गया। फिर बहुत इज़्ज़त से उन्हें तख़्त पर बिठा कर उनसे बातें करने लगा। "बरखुरदार औरंगज़ेब ! तुम्हारी माँ ने तुम्हारे लिए ये तोहफ़ा भेजा है" उस्ताद ने मिट्टी का बर्तन बादशाह के हवाले करते हुए कहा। औरंगज़ेब मिट्टी का बर्तन लेकर अपनी तख़्त पर जा बैठा और एक गुलगुला उठा कर मुँह में रखा। वह इतना बद-ज़ायक़ा और बदबूदार था कि कोशिश के बावजूद औरंगज़ेब उसे निगल नहीं सका। उस्ताद ने शागिर्द की हालात देखी तो उन्हें जलाल आ गया और कहने लगे, "मुहियुद्दीन औरंगज़ेब क्या बात है, बादशाह बन कर हलाल का निवाला खाने की आदत नहीं रही जो अब मिठाई भी तुम्हारे गले में अटकने लगी है?" सारे दरबार में ख़ामोशी छा गई। औरगज़ेब ने फ़ौरन गुलगुला निगल लिया और मुस्कुरा कर कहा, "हुज़ूर ! ऐसी कोई बात नहीं, मेरी तरफ़ से अम्मा जान का शुक्रिया अदा कीजियेगा। दरअसल मैं बे-वक़्त खाने का आदि नहीं इसलिए ज़रा मुश्किल हुई थी वरना मिठाई तो वाक़ई बहुत लज़ीज़ है।"
बादशाह ने एक और गुलगुला मुँह में डाला और आराम से खाते हुए मिट्टी का बर्तन अपने बेटे के हवाले कर दिया और मुस्कुरा कर कहा, "इसे हिफ़ाज़त से घर पहुँचा दो।" शहज़ादे ने दरबार से बाहर आकर मिठाई चखी तो उसे उबकाई आ गयी। उसने फ़ौरन मिठाई ज़मीन पर थूक दिया मगर शाहज़ादे को उस्ताद का मर्तबा और बाप की अज़मत का अंदाज़ा हो गया था।
औरंगज़ेब मुल्क की भलाई और तरक़्क़ी के कामों में इतना मसरूफ़ रहता था कि वो सिर्फ़ तीन घंटे सोता था। वो कुशल शासक होने के साथ ही बेहतरीन ख़त्तात था। उसने शाही ख़ज़ाने को अवाम का ख़ज़ाना समझा और उसे कभी अपनी ज़ाती ज़रूरतों के लिए ख़र्च नहीं किया। अपने घर में नौकर तक नहीं रखा और ख़र्च बचाने के लिए उनकी बीवी ख़ुद खाना बनाती थीं। औरंगज़ेब क़ुरआन के नुस्ख़े लिख कर और टोपियाँ सी कर अपने परिवार का ख़र्च पूरा करता मगर शाही ख़ज़ाने की अमानत में कभी ख़यानत नहीं की।

जवाब

लाजपत नगर के 'वेस्टसाइड' से शॉपिंग कर दोनों हाथों में बैग थामे निकला तो घड़ी की सुईयाँ रात के 10:55 बजने का इशारा कर रही थीं। पास से गुज़रते रिक्शे को सर के इशारे से रोका और तेज़ क़दम बढ़ाते हुए 'मेट्रो' कह बैठ गया। चारों बैग्स को बग़ल में रख वॉलेट में चेंज टटोला और डेबिट कार्ड को शर्ट की ऊपरी जेब से निकाल कर वॉलेट में रखा और बीस का नोट रिक्शे वाले को देने के लिए उसमें से निकाल लिया।
- 'ज़रा तेज़ चलो यार', वॉलेट पैंट की पिछली जेब में सरकाते हुए मैंने कहा।
- 'भाई साब, ! ये रिक्शा है, कोई प्लेन थोड़ी न है जो चलने की बजाय उड़ने लगे', उसने पैडल पर दबाव बढ़ा कर गर्दन पीछे मोड़ते हुए कहा। मैंने अपने बैग्स उठा कर गोद में रखे और स्ट्रीट लाइट के लैम्प्स से बिखर कर सड़क पर गिरती पीली रौशनी की क़तार को देखने लगा। मेट्रो स्टेशन पहुँचते ही मैं बैग्स सँभालते हुए उतरा और उसे बीस का नोट थमाते हुए आगे बढ़ गया तभी पीछे से उसकी आवाज़ उभरी।
- 'दस रुपये और', पसीना पोंछते हुए उसने कहा।
- 'पर...किराया तो बीस ही रुपये है फिर दस रुपये...'
- 'साब टाइम भी तो देखो, 11 से ऊपर हो गया है'
- 'तो...रिक्शे वालों ने भी नाईट चार्ज वसूलना शुरू कर दिया क्या?'
- 'साब पेट क्या सिर्फ़ ऑटोवालों के ही पास होता है क्या?' उसके जवाब ने मुझे लाजवाब कर दिया और मुझसे कुछ कहते नहीं बना। चुपचाप उसे दस का नोट थमाया और स्टेशन के अंदर दाख़िल हो कर सिक्यूरिटी चेकिंग की तरफ़ बढ़ चला।
जब प्लेटफ़ॉर्म पर पहुंचा तो वहाँ लगी घड़ी 11:19 का वक़्त बता रही थी और अभी मेट्रो ट्रेन आने में तीन मिनट बाक़ी थे। प्लेटफ़ॉर्म पर ब-मुश्किल 15 से 18 लोग थे। रात की तारीकी स्टेशन को छोड़ बाक़ी सबको अपनी कालिख में धीरे-धीरे रंग रही थी तभी ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म पर आ लगी। पाँच स्टेशन पार कर केंद्रीय सचिवालय तक पहुँचने में महज़ दस मिनट का वक़्त लगा। केंद्रीय सचिवालय से मैंने वायलेट लाइन छोड़ येलो लाइन की मेट्रो पकड़ी। भीड़ न के बराबर थी, कई सीटें ख़ाली थी फिर भी दिन भर ऑफ़िस में बैठे रहने की वजह से बैठने का दिल नहीं चाहा सो बोगी के दरवाज़े के ठीक सामने वाली स्टैंड से पीठ टिकाया और बैग्स को पैरों के बीच में रख दिया। अगले स्टेशन पटेल चौक पर वो चढ़ी और खम्भे से पीठ टिका कर मेरी दूसरी तरफ़ मुँह करके खड़ी हो गयी। मैं कनखियों से उसका चेहरा देखना चाहा पर नाकाम रहा। राजीव चौक पर भीड़ का एक रेला आया ख़ाली पड़ी सीटों पर बिखर गया। भीड़ को रास्ता देने के चक्कर में वो मेरे बाएँ तरफ़ खिसक कर आ चुकी थी। ऍफ़.एम के चैनल बदलते हुए मेरी नज़रें व्हॉट्स एप्प पर मैसेज टाइप करती उसकी उँगलियों पर टिक गयी। तराशे हुए नाख़ूनों पर बेबी पिंक कलर की नेल पॉलिश बहुत जँच रही थी। नाख़ून बढ़ने की वजह से जड़ की तरफ़ के सफ़ेद नाख़ून की पतली लकीर ऐसे लग रही थी जैसे बेबी पिंक कलर पर सिल्वर कलर की कोटिंग की गयी हो। शायद मेरी नज़रों की तपिश थी या उसकी छठी हिस का कमाल, उसने मेरी तरफ़ देखते हुए भवें उचकाते हुए देखा मानो पूछ रही हो कि 'क्या है?'
- 'आपके नाख़ून...', मैंने झेंपते हुए कहा।
- 'वेल शेप्ड एंड वेल फाईल्ड हैं और बढ़े हुए भी नहीं हैं जो आपको डर लगे। वैसे भी नाख़ून हैं कोई हथियार नहीं।' उसके जवाब में मैं बस मुस्कुरा के रह गया। उसकी बातूनी तबियत ने ये बताने की मोहलत ही नहीं दी की मुझे उसके नेल पॉलिश के कलर और शेड्स अच्छे लगे।
- 'कहाँ तक जाना है?' कश्मीरी गेट पर भीड़ के उतरने के बाद उसने पूछा।
- 'G.T.B नगर और आप?' बाएँ कान से हेडफ़ोन का ईयर पीस निकालते हुए मैंने कहा।
- 'मैं भी वहीँ तक' कहते हुए उसने अगला सवाल दाग दिया, 'Civil Aspirant?'
- 'और मैंने हाँ में सर हिला दिया जबकि मैं सिविल की तैयारी भी नहीं कर रहा था। हाँ, फ़र्स्ट एटेम्पट में प्री नहीं निकाल पाने के बाद ये चाहत थी कि एक बार तैयारी कर के सेकंड एटेम्पट दूँ पर तैयारी नहीं कर पाया। आज उसके इस सवाल ने उस कसक की टीस को फिर से ज़िंदा कर दिया था।
- 'व्हिच एटेम्पट?' उसके इस सवाल पर मैं वापस होश में आया तो इस बार सच बोला 'सेकंड।'
G.T.B. स्टेशन पर उतर हम ख़ामोशी से बाहर आये। उसने रिक्शा रोक कर उसपे बैठते हुए पूछा कहाँ?
- 'गाँधी विहार', मेट्रो कार्ड जेब में रखते हुए मैंने कहा।
- 'शेयरिंग?'
- मेरे 'श्योर' कहते ही वो दाएँ तरफ़ खिसक गयी मेरे बैठते ही रिक्शा चल पड़ा और उसका सवाल भी। सो, 'in which coaching you are?'
- 'Vajirao and Ravi', मुझे एक और झूठ बोलना पड़ा।
- 'तभी शौपिंग्स हो रही है, मुस्कुराते हुए उसने कहा। By the way, I am in Chanakya IAS Academy'
- 'योर सब्जेक्ट्स?' मैंने पूछा।
- 'पब्लिक ऐड. एंड जियोग्राफी', एंड योर्स?
- 'हिस्ट्री एंड पोल. साइंस' मैंने एक और झूठ गढ़ा'
बस यहीं...यहीं ! उसने रिक्शे वाले को रोकते हुए कहा। 'मेरा हॉस्टल आ गया', D-329 के सामने रिक्शा रुकते हुए उसने कहा और बीस रुपये का नोट मुझे पकड़ाते हुए गुड़ नाईट कहती चली गयी और रिक्शा आगे बढ़ने लगा तभी जाते-जाते उसने मुड़ कर कहा, by the way, 'I am Ananya Bharadwaj'. शुक्र है तब तक रिक्शा रफ़्तार पकड़ चुका था और उसने मेरा नाम नहीं पूछा वरना मुझे एक और झूठ गढ़ना पड़ता। रिक्शा आगे बढ़ते ही मन में ये ख़याल उभरा कि 'क्या मैं फिर से सिविल सर्विसेज़ की तैयारी करूँ?' और दिल ने जब ढंग का कोई जवाब नहीं दिया तो मैंने हेडफ़ोन जब दुबारा कानों में लगाया तो उसपर 'तेरे मेरे सपने अब एक रंग हैं' बज रहा था। शायद मुझे मेरा जवाब मिल गया था।
~
- नैय्यर / 28-08-2015

फोन कॉल, चिप्स, कॉफ़ी ई.टी.सी.

- 'तो लोग पहुँच गए?' मेरे गला साफ़ करने वाली स्टाइल की नक़ल उतारने के बाद उसने सलाम करने के बाद खिलखिलाते हुए पूछा।
- 'कौन से लोग, मैं तो अकेला ही हूँ?' मैंने सलाम का जवाब देते हुए अनजान बनते हुए बेपरवाह अंदाज़ में कहा।
- 'पर उससे मिलने के बाद तो लोग दो हो गए हैं न?' सब ख़बर है मुझे वैसे, पर उसे कुछ पता नहीं कि लड़का कहाँ-कहाँ घूम रहा है?
- 'किसे?' मैंने अनजान बनते हुए पूछा जिसके जवाब में उसने कहा कि 'अरे वही आपकी...'
- 'पर वो तो फ़ेसबुक पर मुझसे जुड़ी ही नहीं है तो उसे कैसे ख़बर होगी मेरे आवारागर्दी के हरकतों की', उसका इशारा समझते ही मैंने मुस्कुराते हुए कहा।
- 'आए-हाय! क्या बात है, उसका ज़िक्र आते ही लोग मुस्कुराने लगे।
- और क्या, वो है ही इस क़ाबिल। वैसे उसे मेरी हरकतों से आगाह रखो, मैं अच्छा लड़का हूँ कहीं उसके हाथ से निकल न जाऊँ? मैंने शरारत से कहा।
- 'और बताएँ'
- 'वापस कमरे पर जा रहा था की कॉल आया कि आपको मुझसे बात करनी है, सो मैं ख़बर मिलते ही आ गया आपसे बतियाने।'
- 'रहने दें, रहने दें! मिलने गए हैं किसी और से और बहाना मेरा। बातें बनाना कोई आपसे सीखे।'
- 'बात नहीं बना रहा मैं, सच कह रहा हूँ।' वैसे तुम इनबॉक्स में तो बहुत हड़काते रहती हो मुझे और फोन पर तो आवाज़ बिलकुल बच्चों जैसी है।
- 'हाय...! अरे इस लड़की ने मेरे भौकाल का फ़ालूदा निकाल दिया।' उसकी इस बात पर हम दोनों के ज़ोरदार कहकहे उबाल पड़े। हँसी रुकते ही उसने पूछा, वैसे है कहाँ ये लड़की?'
- 'कॉफ़ी बना रहा ही मेरे लिए' मोबाइल पर मैसेज चेक करते हुए कहा मैंने।
- 'मुझे फ़ोटो भेज दीजियेगा कॉफ़ी का'
- 'क्यूँ, कॉफ़ी का फ़ोटो किसलिए? मैंने हैरत से पूछा।
- 'मुझे देखनी है कि उसने आपके लिए कैसी कॉफ़ी बनाई है?'
- 'एक ही इंसान दो तरह की भी कॉफ़ी बनाता है क्या?'
- 'अरे वो बहुत घुन्नी है, दो लोगों के लिए दो तरह की कॉफ़ी बना सकती है। उसकी शकल पर मत जाइये। वैसे आज इतने दिनों बाद बात हो ही गयी अपनी, है न?' मुस्कुराते हुए उसने कहा।
- 'हाँ! हो तो गयी, पर दोस्ती की जड़ से बतियाना अभी तो बाक़ी ही है। ये तो डाली है।'
-'राइटर से बतियाने का यही फ़ायदा है, बात को कितनी ख़ूबसूरती से मोड़ देते हैं न?
- 'कौन राइटर, कहाँ का राइटर?
- 'आप, दिल्ली घूमने वाले राइटर।'
- 'इसलिए लोग ख़ुद से बतियाने से डरते हैं, आज बात भी कर रहे हैं तो दूसरे की वजह से।'
- 'आप बार-बार इससे मिलने आते रहा करिये मैं बतियाते रहा करुँगी आपसे।'
- 'ख़ुद फ़ोन करना तब बतियाना, अभी दूसरे का पैसा काट रहा है, वैसे भी हम बहुत देर से गपिया रहे हैं।'
- 'अरे आप उसके बैलेंस का टेंशन न लो, बहुत अमीर है वो। अच्छा, चलिए जब अगली बार आएँगे आप तब फिर बात करेंगे, इसी वादे के साथ हम दोनों ने एक दूसरे को ख़ुदा हाफ़िज़ कहा और कॉल डिसकनेक्ट कर दिया।'
-'क्या हुआ, फिर लड़ाई हो गयी क्या?' जब वो कॉफ़ी लिए आई तो मुझे चुप देख कर बेसाख़्ता पूछ बैठी।
- 'नहीं, लड़ाई नहीं हुई, बात ख़त्म हो गयी।'
- 'आप दोनों इतना लड़ते हैं न कि आप दोनों की चुप्पी से यही डर लगता है कि कहीं फिर तो नहीं लड़ बैठे।'
- 'हमारी दोस्ती ही ऐसी है।' और फिर हमदोनों कॉफ़ी और चिप्स से इंसाफ़ करते हुए कितनी देर बतियाते रहे पता ही नहीं चला। अचानक घडी पर नज़र पड़ी तो उसने चुपके से डेढ़ घंटे गुज़र जाने का एहसास दिलाया। कुछ देर और बात करने के बाद हम दोनों एक दूसरे को अलविदा कहते हुए अपने-अपने राह लगे।
~
- नैय्यर / 19-08-2015

Friday, 14 August 2015

सरहद

लाहौर के डिफ़ेन्स एरिया में 250 एकड़ में फैले ‘ख़ान विला’ ने अभी ढंग से सुबह का इस्तक़बाल भी नहीं किया था कि क़यामत ने दस्तक दे दी थी. वो फज्र की नमाज़ के बाद मौलाना आज़ाद की लिखी क़ुरान की तफ़सीर लेने लाइब्रेरी गयी. चूँकि क़ुरान की तफ़सीर पढ़ना उसका रोज़ का मामूल था इसलिए उसने बिना बत्ती जलाए ही लाइब्रेरी के पश्चिमी सिरे पर रखी किताबें टटोलनी शुरू कर दी. लाइब्रेरी का पश्चिमी सिरा अरबी के किताबों और लिटरेचरों से अटा पड़ा था. दाएँ से चौथे नम्बर पर उसकी मतलूबा किताब रखी रहती थी. उसने जैसे ही किताब रैक से खींची, कोई सामान गिरा. लगभग दो हाथ के फ़ासले पर बिजली का स्विच था, उसने एक क़दम दाएँ बढ़ते हुए बिजली का स्विच ऑन किया तो देखा कि लाल रंग के कपड़े से बंधी एक पोटली गिरी हुई थी और राख सफ़ेद संगमरमर के फ़र्श पर बिखर पड़ी थी. वो किताब हाथ में थामे हैरान खड़ी राख, पोटली और लाल कपड़े के बीच की गुत्थी को सुलझाने की नाकाम कोशिश कर ही रही थी कि बग़ल उसके दादा के आवाज़ उसके कानों पे पड़ी.
‘क्या गिराया महीन?’
‘कुछ नहीं दादू ! पता नहीं, कैसी पोटली गिरी है, जिससे फ़र्श पर राख बिखर गयी है’
‘क्...क्क...क्या? पोटली...पर वो गिरी कैसे? मैंने तो सबसे ऊपर वाले रैक में रखा था.’
‘मुझे नहीं पता दादू, पर...ये पोटली है कैसी? और इसमें राख क्यूँ रखी है आपने?
‘ठहरो मैं आता हूँ वहाँ’
‘आप रहने दें दादू, मैं अभी साफ़ कर देती हूँ’
‘नहीं ! उसे वैसे ही रहने दो...मैं आ रहा हूँ, वो मेरा बोझ है और मुझे ख़ुद ही उठाना है अपना बोझ’
‘रिटायर्ड प्रोफ़ेसर एहसान ख़ान महोगनी की स्टिक के सहारे चलते हुए लाइब्रेरी आए और चुटकी भर राख सुरमे की तरह आँखों में लगाया ही था कि रो पड़े.
‘दादू, आप रोने क्यूँ लगे? और ये राख आपने आँखों में क्यूँ लगा ली? लाइए मैं अपने दुपट्टे से इसे साफ़...’
‘ये राख नहीं है बेटा. ये मेरी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी कमाई है, ये पिछले 68 सालों की अमानत है. ये सरहद पार आने का इनाम है बेटा’
‘68 सालों की अमानत? सरहद पार आने का इनाम? मैं कुछ समझी नहीं दादू?’
‘पहले अपने पापा को बुलाओ, मुझे भी उस से अपनी अमानत से ख़यानत का हिसाब लेना है’
‘जी अब्बा ! आपने मुझे बुलाया?’
‘महीन के साथ मेजर ज़ीशान ख़ान ने लाइब्रेरी में क़दम रखते ही बहुत इज़्ज़त से अपने वालिद एहसान ख़ान से पूछा’
‘गिरी हुई पोटली की तरफ़ इशारा करते हुए उन्होंने पूछा, - इसे तुमने हटाया था?’
‘लेकिन ये गिरी कैसे?’
‘पहले मेरे सवाल का जवाब दो’
‘जी, मैंने हटाया था’
‘क्यूँ?’
‘क्यूँ का जवाब तो आपको भी पता है अब्बा, आज 14 अगस्त है और आज ही के दिन...’
‘हाँ, मुझे पता है आज ही के दिन मैंने....’
‘अब जाओ तुम दोनों, जो बोझ मैंने आज से 68 साल पहले मैंने उतारा था उसे जब तक मैं ज़िन्दा हूँ मुझे ख़ुद ही उठाना होगा’, आँसुओं के सैलाब से भरी आँखों से साथ उन्होंने कहा.
‘ये सब क्या है पापा? दादू ने उस राख को अपनी आँखों में क्यूँ लगाया? वो उस राख के लिए रो क्यूँ रहे हैं पापा? ख़ामोशी से कॉरिडोर से गुज़रते ज़ीशान ख़ान को उसने झंझोड़ते हुए फिर पूछा, - कुछ तो बोलिए पापा, आप इतने चुप से क्यूँ हो गए पापा?
‘तुम ये सारे सवाल अपने दादू से पूछना क्यूँकी सवाल उन्हीं से जुड़े हुए हैं’
‘अगर सारे सवाल दादू से ही जुड़े हुए हैं तो आपने उस पोटली को क्यूँ हटाया? वो कौन सा सवाल है जो पोटली के हटाने और आपकी ख़ामोशी के बीच रुकावट है, बोलिए न पापा?
‘मुझे देर हो रही है, तुम मेरी वर्दी निकाल दो, मुझे फ्लैग होस्टिंग के लिए निकलना है, कहीं देर न हो जाए.’ और हाँ, अपने दादू को नाश्ता करा देना, उन्हें ज़्यादा तंग न करना.
***
मेजर ज़ीशान ख़ान के आर्मी यूनिफ़ार्म में तैयार हो कर फ्लैग होस्टिंग के लिए निकलने के बाद माहीन दादू के पसंदीदा नाश्ते चाय और नमकीन पराठे लिए उनके कमरे में पहुँची मगर वो वहाँ नहीं थे. नाश्ते की ट्रे मेज़ पर रख कर वो लॉन में उन्हें ढूंढने चली आई, मगर सनोबर के दरख़्त के पास रहने वाली उनकी सफ़ेद कुर्सी ख़ाली पड़ी थी. कहाँ गए दादू? ख़ुद से ही सवाल पूछने और उसे हल करने की कोशिश में उसे ध्यान आया कि कहीं वो पास के आर्मी स्कूल में फ्लैग होस्टिंग देखने तो नहीं चले गए? लेकिन तभी उसे ख़याल आया कि दादू तो बताये कहीं नहीं जाते, फिर आज कहाँ चले गए? और इस बार वो मन के जवाब पर तेज़ी से लाइब्रेरी की तरफ़ भागी थी. देखा तो दादू वहीँ लाइब्रेरी की फ़र्श पर बैठे ज़ार-व-क़तार रो रहे थे और अपने कुर्ते के दामन से संगमरमर के बेहिस पड़े सीने पर से बिखरी हुई राख समेट रहे थे.
‘आप यहाँ हैं, मैं आपको सारे घर में खोजती फिर रही हूँ, लॉन तक में देख आई आपको. आज आपने नाश्ता नहीं करना?’
‘जिस गले में आँसुओं के गोले अटके हों न तो उस गले से निवाले नहीं निगले जाते’
‘लेकिन आप रोये क्यूँ जा रहे हैं? कुछ तो बताएँ न दादू?’
‘अब मुझमें इतनी ताक़त नहीं कि मैं पुश्त-दर-पुश्त अपनी कमज़र्फ़ी का ऐतराफ़ करता रहूँ. मैं अपना बोझ उठाते-उठाते मैं बहुत थक गया हूँ बेटा’
‘कैसा बोझ दादू? बोलें न?
‘अपने पापा से पूछना.’
‘पापा से पूछा तो उन्होंने कहा कि आप से पूछूँ, और आप से पूछने पर आप कह रहे हैं कि अपने पापा से पूछना.’ जाएँ, मुझे नहीं पूछना किसी से, काश मेरी मम्मा इतनी जल्दी ख़ुदा के पास मेरी शिकायतें करने नहीं गयी होतीं तो मैं उन्हीं से पूछती. वो बहुत अच्छी थी, मेरे हर सवाल का जवाब देती थीं. मैं ही बुरी हूँ इसीलिए तो मम्मा भी मुझे छोड़ कर चले गए, पापा भी कुछ नहीं बताते और आप भी कुछ नहीं बता रहे.’
‘नहीं...मेरी बेटी तो बहुत प्यारी और समझदार है’
‘इसलिए मुझसे कोई कुछ भी शेयर नहीं करता’
‘दादू आपके साथ सबकुछ शेयर करेंगे, पर...एक शर्त है?’ – उन्होंने पोटली को लाल रंग के कपड़े से बाँध कर अपने आँसू पोंछते हुए कहा.
‘मुझे मंज़ूर है’
‘पहले हम दोनों साथ में नाश्ता करेंगे फिर...’
‘ओके, डन ! आप चलें अपने कमरे में, मैं दूसरा नाश्ता ले कर आती हूँ. वो तो कबका ठंडा हो चूका होगा.
***
हाँ, अब बताएँ.’ – नाश्ते के बर्तन किचन में रख वापस आकर उसने कहा.
हम राजपूत हैं वो भी जंजुआ और जंजुआ राजपूतों का इतिहास गवाह रहा है - वफ़ादारी, इमानदारी और इज़्ज़त के लिए ख़ुद को अपने ख़ानदान को क़ुर्बान कर देना. हमारे बाप-दादाओं ने कई राजाओं के फ़ौज की कमान संभाली है. हमारी नई नस्ल तलवार के साए में पैदा होती रही और पुरानी तलवार के साए में ही दम तोड़ती रही. हमने कभी जंग के मैदान में पीठ नहीं दिखाई. अना और बग़ावत को हमने तलवार की नोक से चीर कर अपनी शमसीर पर फ़तह की तारीख़ लिखी है. हमारे बाप-दादाओं की बहादुरी की चर्चे बादशाह सिकंदर लोधी के कानों तक भी पहुँची और सन 1501 में धौलपुर स्टेट फ़तह के साथ ही हमारे ख़ानदान के क़दम आज के हिन्दुस्तान में पड़े.
‘तो क्या हम बँटवारे के बाद हिन्दुस्तान से भाग कर पकिस्तान आये थे?’
जब हमारा ख़ानदान आज के हिन्दुतान में आया तब पाकिस्तान का वजूद ही नहीं था. तब सिर्फ़ हिन्दुस्तान था, राजा-रजवाड़ों का हिन्दुस्तान, भोले-भाले मासूम लोगों का देश हिन्दुस्तान. हमारा ख़ानदान स्यालकोट का है जो बँटवारे के बाद पाकिस्तान के हिस्से में आ गया. लगभग 26 सालों तक हमारे बाप-दादा सिकंदर लोधी के लिए लड़ते रहे और फिर सन 1527 में धौलपुर को बाबर ने जीत लिया. हारे हुए राजा के सैनिक क़ैद कर लिए गए और उनमें से चन्द बेहतरीन सैनिकों को मुग़ल सेना के साथ वफ़ादारी निभाने की क़समों के साथ फ़ौज में भर्ती कर लिया गया. इस तरह तरह हम सन 1527 से 1857 तक मुग़ल फ़ौज और मुग़ल शहंशाहों के वफ़ादार बने रहे. इस बीच हमारे ख़ानदान ने शहजादा ख़ुर्रम का वो बग़ावती तेवर भी देखा जब उन्होंने सम्राट जहाँगीर के ख़िलाफ़ दिल्ली के तख़्त के लिए तलवार उठाया. तब हमने दोनों ख़ेमों के लिए ख़ून बहाई थी. शहजादा ख़ुर्रम ने धौलपुर पर क़ब्ज़ा जमाने के बाद फ़तेहपुर सीकरी पर हमला किया और आसानी से जीत हासिल कर अकबराबाद (आज का आगरा) के लाल क़िला पर धावा बोला मगर जीत नहीं सके. अपनी फ़ौज वापस मोड़ बुरहानपुर में पनाह ली. इतिहास ने फिर करवट ली और जब शहजादा ख़ुर्रम बादशाह बन कर शाहजहाँ के नाम से तख़्त पर बैठे तब उनके बेटों ने उनके ख़िलाफ़ भी बग़ावत बुलंद की. औरंगज़ेब नहीं चाहते थे कि दारा शिकोह को धौलपुर क़िले पर फ़तह नसीब हो. उस बार भी दोनों ख़ेमों के परचम को हमने अपने वफ़ादारी से रंग डाला.
सन 1761 में धौलपुर पर मुग़लों की पकड़ कमज़ोर हुई और फ़ायदा उठाया राजा कल्याण सिंह भदौरिया ने. उसके बाद जाट महाराजा सूरजमल ने सन 1775 में इसपर क़ब्ज़ा जमाया फिर सिंधिया राजघराने ने सन 1782 में और आख़िर में अग्रेज़ों ने सन 1803 में. हमारे बाप-दादा ने सन 1761 में धौलपुर से मुग़ल राज ख़तम होते ही धौलपुर छोड़ दिया. शहजादा ख़ुर्रम की फ़ौज की तरफ़ से फ़तेहपुर सीकरी जीतने में मदद करने के एवज़ में उनके बादशाह बनते ही हमें भरतपुर में जागीर मिल गयी. कई पुश्तें भरतपुर में पैदा हुईं और कई वहीँ मर-खप गयीं. दिल्ली में सन 57 के ग़दर के कमान संभाली आख़िरी मुग़ल शहंशाह बहादुर शाह ज़फर ने. मेरे दादा ने सन 1857 में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आख़िरी बार मुग़ल शहंशाह बहादुर शाह ज़फर के लिए तलवार उठाई.  ज़बरदस्त मार-काट मची थी, अपनों की मुख़बरी और अंग्रेज़ों की भारी फ़ौज के सामने कमज़ोर पड़ चुकी मुग़ल सेना कबतक लड़ती. हार यक़ीनन थी और हुई भी. शहंशाह हुमायूँ के मक़बरे से गिरफ़्तार हुए और फिर शुरू हुआ कभी न रुकने वाला फाँसियों का सिलसिला. ख़ूनी दरवाज़े पर मेरे दादा को फाँसी दे दी गयी. लाश कई दिनों तक झूलती रही, किसी में इतनी हिम्मत नहीं थी कि लाश उतार कर कफ़न और जनाज़े के बारे में सोचे.
***
मेरे अब्बा भरतपुर से दिल्ली आ गए. मैं दिल्ली में ही पैदा हुआ और वहीँ जवान हुआ. वो ख़ुद गुप-चुप तरीक़े से आज़ादी की लड़ाई में शामिल हो गए और मैं दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज में पढ़ने लगा. आख़िरी साल में था तब जाने कैसे कॉलेज के अंग्रेज़ प्रिंसिपल को इस बात की भनक लग गई कि मैं दिलावर ख़ान का बेटा हूँ, जो अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ साजिश करता है, नज्में लिखता है और लोगों को अंग्रेज़ी सरकार के ख़िलाफ़ भड़काता है. प्रिंसिपल ने वादा किया कि अगर मैं अपने अब्बा को पकड़वा दूँ या उनका पता बता दूँ तो मैं इस कॉलेज में आगे भी पढ़ सकता गुण, अंग्रेज़ी सरकार को कोई ऐतराज़ नहीं होगा. किस बेटे को ये गवारा होगा कि उसका बाप उसकी वजह से जेल जाए. मैंने इंकार कर दिया जिसके बदले में मुझे कॉलेज से निकाल दिया गया. उन्हीं दिनों अमृतसर में ख़ालसा कॉलेज की बुनियाद रखने की चर्चा ज़ोरों पर थी. दो साल मैं दिल्ली में पड़ा रहा पर पढ़ने को दिल नहीं चाहा, अब्बा ने भी ज़ोर नहीं दिया. एक दिन मैं जब हॉकी खेलने लिए तैयार निकला तो उन्होंने पकड़ लिया.
‘ऐसा कबतक चलेगा?’
‘क्या? – मैंने हॉकी स्टिक से अपनी पिंडली थपथपाते हुए कहा.
‘यूँ मारे-मारे कबतक फिरोगे?’
‘क्या करूँ? अंग्रेज़ी सरकार में तो नौकरी मिलना भी मुश्किल है.’
‘सिर्फ़ B. A. के भरोसे नौकरी मिल भी तो नहीं सकती, तुम आगे पढ़ाई क्यूँ नहीं करते?’
‘कॉलेज से तो निकाल दिया गया, अब किस कॉलेज में जाउँ पढ़ने?
‘तुम अमृतसर क्यूँ नहीं चले जाते?
‘ख़ालसा कॉलेज, अमृतसर...’
‘हाँ’
‘अच्छा, सोच के बताऊँगा आपको’
मेरे सोचने और बताने से पहले ही उन्होंने मुझे अमृतसर भेजने का फ़ैसला कर लिया था. जब हॉकी खेल कर वापस आया तो एक ख़त देते हुए कहा कि - ‘मैंने तुम्हारे और अपने हवाले से तमाम बातें लिख दी हैं, वहाँ तुम्हारा नाम भी लिख जाएगा और कोई परेशानी भी नहीं होगी, रहने-खाने का भी इंतज़ाम हो जायेगा.’
‘रहने-खाने का, पर कहाँ, किसके पास?’
‘प्रोफ़ेसर रयान थॉमस के घर’
‘अंग्रेज़ के घर?’
‘वो मेरा दोस्त है, बाक़ियों की तरह नहीं है, भला आदमी है.’
‘अंग्रेज़ और भला’ – मैंने नफ़रत से कहा
‘अच्छा, पहले मिल तो लो, अच्छा न लगे तो मत रहना उसके वहाँ, बाक़ी तुम्हारी मर्ज़ी. तुम अपने फ़ैसले करने के लिए आज़ाद हो.’
तैयारी तो क्या करनी थी, ख़ुद को समझाने में ज़रा वक़्त लगा. हफ़्ते भर सोचने के बाद मैंने अपना सामान बाँध लिया. अमृतसर पहुँच कर एक धर्मशाला देखा और वहीँ डेरा-डंडा डाल लिया. 2-3 दिन इधर-उधर घूमता रहा और फिर एक दिन ख़त ले कर ख़ालसा कॉलेज में प्रोफ़ेसर रयान थॉमस के पास पहुँच गया. उन्होंने ख़त की तारीख़ देखी और फिर मुझे. थोड़ी देर बाद मेरी तरफ़ देखा और पूछा,
‘एम. ए क्यूँ करना चाहते हो?’
मैंने कहा, - अब्बा ने कहा है?
एक बारीक सी मुस्कराहट उनके होंठों पर रेंग गयी.
फिर पूछा, - ‘किस सब्जेक्ट में?’
मुझे पसंद तो इंग्लिश था और मैं चाहता भी वही था पर इतिहास कह दिया और कहा भी इसलिए कि फ़ेल हो गया तो पढ़ाई और अंग्रेज़ों से पीछा छुटे.
‘ठीक है, कल सुबह आ जाना तुम्हारा एडमिशन हो जाएगा. और अभी तक कहाँ थे तुम? तुम्हारा सामान....?’
‘वो तो धर्मशाला में है.’
‘क्यूँ? तुम्हारे अब्बा ने तो ख़त में तुम्हें मेरे साथ रहने को लिखा है.’
‘हाँ, लिखा तो है पर...मुझे अंग्रेज़ पसंद नहीं.’
मेरे जवाब पर उनका गोरा रंग मांड पड़ गया, एक चुप्प से लग गयी उन्हें. मुझे वहाँ खड़ा देखकर उन्होंने सर के इशारे से मुझे जाने को कहा. अगली सुबह मैं कॉलेज गया और मेरा एडमिशन हो गया. मैं पढ़ाई के साथ आज़ादी की सरगर्मियों में भी हिस्सा लेने लगा. देखते-देखते कब दो साल बीत गए पता ही नहीं चला. बस इतना पता चला कि मैं इतिहास लेकर भी फ़ेल नहीं हुआ और प्रोफ़ेसर रयान थॉमस बिलकुल भी वैसे नहीं थे जैसा मैं सोचता था. वो मेरी सोचों से कहीं ज़्यादा अच्छे इंसान थे, मेरे दोस्त और हमदर्द थे.
***
फ़र्स्ट क्लास फ़र्स्ट एम. ए पास करते ही मुझे कॉलेज में ही पढ़ाने का मौक़ा मिल गया. ये प्रोफ़ेसर रयान थॉमस की एक और मेहरबानी थी मुझपर. उनदिनों अपने-अपने सब्जेक्ट्स के टॉपर को अमूमन पढ़ाने का न्योता मिल जाया करता था. नौकरी लगी और अब अब्बा ने मेरी शादी कर दी. ख़ुदा ने मुझे 2 बेटी और तीन बेटों ने नवाज़ा. तुम्हारा बाप सबसे छोटा है. उसकी पैदाइश के 3-4 सालों के बाद ही तुम्हारी दादी इस दुनिया से कूच कर गयीं. इसी बीच आज़ादी की लड़ाई ने बहुत ज़ोर पकड़ लिया था.  लाला लाजपत राय की मौत और भगत सिंह की फाँसी ने नौजवानों को पागल कर दिया था. हर रोज़ एक नयी तंजीम बनती और अंग्रेज़ों की नींद हराम कर देती. गोलमेज़ कांफ्रेंस ने अलग हंगामा किया हुआ था. मुस्लिम लीग और कांग्रेस लीडरों के आपसी ताफ़रक़े ने देश के बँटवारे कि नींव रख दी थी. सन 42 का भारत छोड़ो आन्दोलन बहुत कामयाब गुज़रा था और देशभर में अब ये चर्चा आम हो चली थी कि अंग्रेज़ अब गए कि तब गए.
कुछ दिनों से उमस बहुत बढ़ गयी थी. मैं कॉलेज से रिटायर हो चूका था और कभी-कभार प्रोफ़ेसर रयान थॉमस से मिलने उनकी कोठी पर पहुँच जाता था. उस दिन सुबह-सुबह हलकी बूंदा-बांदी हो रही थी. मैं छाता लिए पैदल ही प्रोफ़ेसर रयान थॉमस के घर की तरफ़ चल पड़ा. लाल ईंटों वाली उनकी कोठी दूर से ही दिख जाती थी. कॉले खम्भे पर तरतीब से ऊपर की तरफ़ चढ़े बोगनबलिया पर हलके गुलाबी और सरसों के रंग के फूल खिले थे. दुसरे खम्भे से मनी प्लांट और चमेली की डालियाँ ऊपर को चली गयीं थी, चमेली की डालियों पर भी सफ़ेद फूलों की बहार थी. प्रोफ़ेसर रयान थॉमस लॉन में केन की कुर्सी पर उदास बैठे थे. इतने उदास कि उन्हें मेरे आने का एहसास तक नहीं हुआ. क्या हुआ? आज इतने उदास क्यूँ हैं? मुझे देख उनकी बूढी आँखों में थोड़ी चमक आई और बुझ गयी. अल्मांडा के पीले फूल से भी ज़्यादा पीला हो रहा था उनका चेहरा. मैंने फिर पूछा, क्या हुआ? कोई परेशानी?
‘माउंटबेटन ने इस देश के बँटवारे की तजवीज़ को क़बूल कर लिया है. जैसे 1905 में बंगाल के नक्शे पर एक लकीर ने लोगों के दिलों को बाँट दिया था वैसा ही इस बार भी होगा. रेडक्लिफ़ को पंजाब के नक्शे और मुसलमान इलाक़े को बाक़ी के भारत से अलग करने का ज़िम्मा सौंपा गया है.’
‘लार्ड माउंटबेटन ने?’ – मैंने हैरत से कहा
‘उसे लार्ड मत कहो एहसान, वो सभ्य समाज का एक शातिर हत्यारा होगा. मेरी ये बात याद रखना.’
प्रोफ़ेसर रयान थॉमस की बात सच साबित हुई. बँटवारे के दस्तावेज पर दस्तख़त होने से पहले ही दंगों की आहट थी और कई जगहों पर हुई भी थी. दस्तख़त ने मानो दंगों को मंज़ूरी दे दी. दंगों पाँच लाख लोगों का मारा जाना इस बात का सबूत है कि इसकी तैयारी पहले से थी और जम की थी. सन 47 में ब्रिटिश इंडिया से दो देश उगे. भारत और पकिस्तान. पकिस्तान की तरह भारत टुकड़ों में नहीं बंटा. ईस्ट और वेस्ट पाकिस्तान की सरहर्दों पर जम कर ख़ून-ख़राबा हुआ और सांप्रदायिक दंगे दोनों दिशाओं की सरहदों पर हुए. बंगाल, बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के मुसलमान पूर्वी पाकिस्तान में पनाह की ग़र्ज़ से भागे जो 1905 के बंगाल विभाजन के बाद और और बदहाल और कंगाल हो चूका था. पश्चिमी उत्तरप्रदेश, कश्मीर और पंजाब के मुसलमान पश्चिमी पाकिस्तान में पनाह की ग़र्ज़ से भागे और पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान से सिख और हिन्दू हिंदुस्तान की ओर. साउथ इंडिया के मुसलमान दंगों से ज़्यादा बर्बाद नहीं हुए पर सन् 48 के ऑपरेशन पोलो में अकेले हैदराबाद में ढाई लाख मुसलमानों का क़त्ल हुआ. सेंट्रल इंडियाके मुसलमान भी दिल्ली के रास्ते पकिस्तान के लिए चल पड़े, पर कितने लोग सरहद पार कर पाये?
गढ़मुक्तेश्वर के रास्ते दिल्ली को जाने वाले लाखों मुसलमान कभी दिल्ली नहीं पहुँच पाये, पश्चिमी पाकिस्तान क्या पहुँचते? लाखों लाशें नहर में तैरती मिलीं. वैसे ही बंगाल और बिहार के लाखों मुसलमान पूर्वी पाकिस्तान पहुँचने से पहले मौत के घाट उतार दिए गए. नोअखोली में लाखों हिन्दुओं को मुसलमानों ने मारा. दंगों में सिर्फ़ मुसलमान ही नहीं मरे. कई बार मुसलमान के धोके में ईसाई भी मारे गए. रावलपिंडी के दंगों में लाखों हिन्दू और सैकड़ों सिख भी मारे गए. वो जगहें गिनती की हैं जहाँ मुसलमानों ने हिन्दू और सिखों को मारा मगर वो अनगिनत जगहें इतिहास से नदारद हैं जहाँ हिन्दू और सिखों ने मुसलमानों को मारा. कहीं मरने वाले मुसलमान थे तो मारने वाले हिन्दू और सिख तो कहीं हिन्दू और सिख मरने वालों में थे और मारने वाले मुसलमान थे मगर हर जगह मरी सिर्फ़ इंसानियत और मिली सिर्फ़ लाशें. मासूम बच्चियों की इज़्ज़तें उनके भाई और बाप के उम्र के लड़कों ने लूटी . औरतों को घरों से निकाल कर सरे आम उनकी इज़्ज़त उनके बेटे और भाई के उम्र के लड़कों ने लूटी. बूढों तक ने उनपे रहम न किया.
‘दादू ये सब तो मैंने दर्जनों किताबों में पढ़ी है पर इन सबका आपके रोने और उस राख वाली पोटली से क्या रिश्ता है? मुझे तो अबतक समझ नहीं आया.
***
जब दंगे अपनी शबाब पर थे तब हम अपनी जागीर गुरदासपुर में थे. पहले ये पाया गाया था कि ये हिस्सा पाकिस्तान को दे दिया जाएगा लेकिन ऐन वक़्त पर ये हिन्दुस्तान के हिस्से में आ गया और फिर शुरू हुआ हैवानियत का नंगा नाच. झुण्ड के झुड सरदार आते घरों से बहु, बेटियों बीवियों को उठा कर ले जाते और उनकी इज़्ज़तें तार-तार कर देते. गोल-गोल हिन्दू और सिख आते और मिनटों में दर्जनों आदमी के सर उनके तन से जुदा कर दिए जाते. मैं चूँकि कॉलेज में पढ़ा चूका था इसलिए आस-पास के लोग मेरी इज़्ज़त करते थे. अबतक हमारे घारों पर किसी ने धावा नहीं बोला था ना ही किसी ने बुरी नज़र से देखा था. रोज़ रात में नीम के बड़े से पेड़ के नीचे चौपाल जमती और मौत पर नंगी हँसी से चौपाल शरमा जाता. ऐसे ही एक दिन सुखविंदर और त्रिलोचन चौपाल पर लाशों की गिनती और अपनी कमीनी हरकतों पर दाद वसूल रहे थे जब मैंने उन्हें टोक दिया कि मज़हब के नाम पर लोगों को क़त्ल करते हुए तुमलोगों को शर्म नहीं आती? उन्होंने पलट कर जवाब दिया, - आप हमारे गाँव के हो इसलिए अभी तक सही-सलामत बचे हो, कहीं ऐसा न हो कि हम किसी दिन गुरदासपुर लूटने में लगे हों और कोई और जत्था आपकी बेटियों को लूट ले. अगर सलामती चाहते हो तो रातों-रात सरहद पार जाओ. वरना हम कब तक तुम्हारी रखवाली करेंगे. किसी दिन हमारी भी नियत.....’
इसके आगे सुनने की न मुझे ज़रुरत थी न मैंने कोशिश की. इंसान को हैवान बनते देर नहीं लगती. उनकी बातों से मेरी रीढ़ की हड्डी तक में सिहरन उतर गयी मगर वो बेशर्मी से हँसते रहे और नीम की लड़की से दाँत खोदते रहे. मैं वहाँ से भारी मन से उठा और सोने के लिए लेट गया, मगर नींद आँखों से कोसों दूर थी. ऐसे हालात में भला नींद किसे आती? जो कल तक मुहाफ़िज़ थे वो आज भेड़िये बन हैं. और भेड़ियों को सिर्फ़ गोश्त का लोथड़ा दीखता है चाहे वो किसी का भी हो. जब हैवानियत पर उतर आयेंगे तब वो ये न सोचेंगे कि मेरी बेटियाँ उनकी भी कुछ लगती हैं. वो उन्हें भी भभोड़ देंगे. जिन्हें मैं ता-उम्र इंसानियत का सबक़ डेटा रहा वो एक पल में हैवान बन गए. सिर्फ़ धर्म के नाम पर बदला लेने के लिए.
सारी रात मैं जागता रहा और सुलगता रहा. सुबह अपने तीनों बच्चों से मशवरा किया कि क्या हमें सरहद पार चलना चाहिए. जिस ज़मीन को हमने लगभग साढ़ेचार सौ सालों तक ख़ून से सींचा था उसे छोड़ने पर कोई रज़ामंद नहीं दिखा. मगर मैं अपने फैसले पर अडिग था. ये फ़ैसला एक मुसलमान की नज़र से नहीं एक बाप की हैसियत से किया था मैंने. मैं ये कैसे देख सकता था कि मेरी बेटियों की इज़्ज़त मेरे सामने लुट जाए. मुझमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि मैं उनके बिखरे वजूद की किरचियाँ समेट पाता. मुझेमें क्या, किसी भी बाप में इतनी हिम्मत नहीं होती.
मेरे दोनों बड़े बेटों ने पकिस्तान जाने से इनकार कर दिया था. ज़ीशान को दिल्ली भेज कर मैंने अपनी जागीरों की नक़ल मँगवाने की कोशिश की थी. सुना था सरहद पार जागीर के बदले जागीर मिल रही है. काश इज़्ज़त के बदले इज़्ज़त मिलती. हफ़्ते भर बाद ज़ीशान जागीरों के नक़ल ले कर वापस आ गया. और हम चारों ने 13 अगस्त को हमेशा-हमेशा के लिए पकिस्तान जाने का इरादा कर लिया. हम चरों में मैं, ज़ीशान और मेरी दोनों बेटियाँ. कलेजे पर पत्थर रख कर मैंने दोनों बेटों को यहाँ रहने की इजाज़त दी थी. ये जानता था कि वो भेड़ियों से वो बाख नहीं पायेंगे मगर आख़िरी वक़्त में उस ज़मीन को प्यासा कैसे रखता जिसे मेरी नस्ल-दर-नस्ल अपने ख़ुन से सींचती आई है. जैसे-जैसे 13 अगस्त का दिन नज़दीक आ रहा था वैसे-वैसे बेकली बढ़ती जा रही थी. एक बाप के दिल को भला ऐसे हालत में कैसे चैन मिल सकता है जब उसकी दो बेटियाँ जवानी की दहलीज़ पर क़दम रखने को तैयार हों और चारों ओर भेड़िये घात लगाए बैठे हों.
11 अगस्त की बात थी, ज़बरदस्त लूट-खसोट और क़त्ल-वो-ग़ारत की ख़बर मिली. 13 साल की बच्ची को उसके भाई-बहनों, माँ-बाप से छीन कर उनके सामने उसकी इज़्ज़त लूटी गयी और उसे क़त्ल कर दिया गया और उसकी माँ को भीड़ अपने साथ ले भागी. मेरा कलेजा मुँह को आ गया. अगर यही कुछ मेरे साथ और मेरी बच्चियों के साथ हुआ तो? मुझे मेरे ख़ानदान के सैकड़ों सालों की क़ुर्बानी का यही सिला देगा मेरा देश? नहीं...मैं अपने बुज़ुर्गों की रूह को शर्मिंदा नहीं करूँगा. ज़ीशान से मैंने मशवरा किया और उसे दो तेज़ धार हथियार लाने को कहा. हमारे बीच ये तय हुआ कि बाप और बेटा अपनी बेटी और बहन का गला उसी तरह रेत डालेंगे जिस तरह कभी हमने जंग में अपनों का गला उतारा था. वफ़ादारी और इज़्ज़त की पास के लिए ये जुर्म हमने करना था क्यूंकि कोई हमारी इज़्ज़त पर हाथ डाले ये हम राजपूतों को गवारा नहीं. तय हुआ कि 13 की बजाय 12 अगस्त को उन्हें क़त्ल कर हम रात के अँधेरे में सरहद पार कर जायेंगे ताकि इन्हें कोई शक न हो.
रात का पुर हौल सन्नाटा पसरा था. ज़ीशान तुम्हारी छोटी फ़ूफ़ी और मैं तुम्हारी बड़ी फ़ूफ़ी के बिस्तर के सिरहाने पहुँच गए मगर दोनों में से किसी की हिम्मत नहीं पड़ी कि उन्हें क़त्ल कर सकें. जंग और जज़्बात यही फ़र्क़ होता है शायद. हम दोनों वापस अपने कमरे में हारे हुए जुआरी की तरह लौटे और उन्हें क़िस्मत के धारे पर छोड़ने का इरादा कर लिया कि अब उनके साथ जो हो वो और ख़ुदा ही समझें मगर राजपूती ख़ून और वफ़ादारी का पास. पल-पल बढ़ता भेड़ियों का वहशीपन. अगली सुबह ख़बर मिली कि पास के गाँव में किसी वहशी ने मुसलमानों के 7 घर फूँक डाले. बस यही वो लम्हा था जब मैं भी वहशी बन गया. 13 अगस्त धीरे-धीरे गुज़र रहा था. वर्षों इंसानियत का पाठ पढ़ाने वाला उस्ताद आज ख़ुद वहशीपने की जाल बुन रहा था, पहले भी जाल बुना था मगर कामयाब नहीं हो पाया. दोनों बड़े बेटों को खालिहान की हिफाज़त के बहाने भेज दिया. अब घर में सिर्फ़ हम चार लोग थे जिन्हें सरहद पार जाना था. काली अंधेरी रात मौत का सन्नाटा लिए धीरे-धीरे उतर रही थी. सबलोग खाना खा कर सोने चले गए. मैंने बेटियों को गले से लगाया और कहा कि आधी रात को चुप-चाप अँधेरे में निकलना है, तबतक तुमलोग थोड़ा लो. सामान पहले ही बंध चूका था. वो सोने गयीं और हम जागने. लगभग घंटे भर बाद ज़ीशान मिटटी के तेल में भीगे कंडे ले आया और साथ में कई गैलन मिटटी का तेल भी. अभी 12 बजने में आधा घंटा रहता था. जब मैंने बेटियों के कमरे को बाहर से बंद किया और मिटटी का तेल उंडेल दिया. चरों तरफ़ मीट्टी तेल से भीगे कंडे ज़ीशान ने रखे और इस बार जज़्बात पर जंग हावी हुआ और मैं चौपाल के पास जानवरों को भगाने के लिए जलाए गए आग में से चन्द शोले उठा लाया और देखते-ही देखते आग की ऊँची लपट उठने लगी. उस आग में मेरा वहशी चेहरा भी आसमान ने देखा होगा. बच्चियों की चीख़ने की आवाज़ पर मैं तड़पा ज़रूर मगर वो तड़प से कम ही थी जो अपनी आँखों ने सामने अपनी बच्चियों के बिखरे वजूद को देख कर होता. जब लपटें आसमान को छूने लगीं हम दोनों पश्चिम की तरफ़ मुँह किये और मन-मन भर के क़दम उठाते लाहौर की तरफ़ चलने को तैयार हुए.
आग की लपटों को देखकर मेरे दोनों बेटे खलिहान से दौड़े-दौड़े आये और हम दोनों को बचाओ-बचाओ की आवाज़ के साथ पुकारने लगे. उन्हें लगा कि किसी दंगाई ने हम सबको आग के हवाले कर दिया है और वो बचाने की ग़र्ज़ से घर के अन्दर जाने की कोशिश करने लगे मगर आग ने उन्हें भी अपने चपेट में ले लिया. ज़ीशान चीख़ना चाहता था मगर वो चीख़ न पाया क्यूँकी मैंने उसका मुँह बहुत ज़ोर से दबा दिया और इस ज़ोर से दबाया कि वो बेहोश हो गया. उसे घसीट कर पास के पेड़ के पीछे किया और इतना रोया कि आँसू सुख गए. सुबह का उजाला फैलने लगा था जब उसे होश आया. 14 अगस्त की सुबह थी. आज़ादी की सुबह. इतनी उदास और ग़मज़दा. ख़ून में नहाई हुई. इसका तो मैंने तसव्वुर भी नहीं किया था. आग अब भी तेज़ थी मगर दिल के अलाव से कम. मैंने अपनी पगड़ी खोली...आँगन से एक मुट्ठी गर्म राख उठाई और बाँध लिया. ये वही राख है और वो जो लाल कपड़ा था न वो तुम्हारी बड़ी फ़ूफ़ी की शादी के लिए ख़रीदा था. जिसे मैंने आँगन में ही दफ़ना दिया...उन्हें कफ़न तो दे नहीं सका. बस याही आख़िरी नज़राना था उन चारों को मेरी तरफ़ से.
माहीन की आँखों से चनाब जारी थी, कुछ भी कहने की हालत में नहीं थी वो. बस अपने दादू को टुकर-टुकर देखे जा रही थी. देख रही थी अपने दादू को जिन्होंने अपनी इज़्ज़त की ख़ातिर कितनी बड़ी क़ुर्बानी दी थी. बहुत देर बाद जब होश में आई तो दादू के सीने से लगकर कहने लगी, ‘वो राख कोई आम राख नहीं मुक़द्दस राख है जिसे सुर्मे की तरह आँखों में लगाया जा सकता है. उन आखों में जिसने आज़ाद मुल्क सपना देखा था मगर किस क़ीमत पर? आज़ादी की क़ीमत होती है क्यूँकी वो क़ुर्बानी मांगती है. और दादू आप वहशी नहीं हो, आपने वो क़ुर्बान किया जो आपका था, आपने आख़िरी वक़्त में भी उस ज़मीन को अपने ख़ून से सींचा. अपने जिगर को किसी और मुल्क में रख कार किस्सी और मुल्क में जीना ही सबसे बड़ी क़ुर्बानी है. आज से ये राख भी मेरे लिए उतनी ही मुक़द्दस है जितनी आपके और पापा के लिए है. सलाम इस अज़ीम क़ुर्बानी को. सरहद पार करने की क़ीमत तो होती है और आपने अपनी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी क़ीमत चुकाई है दादू.
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 © नैय्यर /14-08-2015