Monday, 16 June 2014

लघुकथा / जेल

***_ लघुकथा / जेल _*** 
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''कब तक मुँह बनाये बैठे रहोगे? तुम्हें यहाँ आये तीन दिन से ज़्यादा हो गया है और...''

बैरक का सबसे पुराना क़ैदी उस से बातें कर रहा था पर उसके लटके हुए मुँह को देख के उसने अपनी बात अधूरी रहने दी. 

बैरक में छाई ख़ामोशी से उकता कर थोड़ी देर बाद उसने फिर कहा - ''कपड़े-लत्ते से तो तुम शरीफ़ लगते हो और शकल से पढ़े लिखे भी...फिर भला तुम किस जुर्म में अन्दर हो?''

''मैंने बस फेसबुक पर अपने दोस्त का क्रांतिकारी टाइप स्टेटस लाइक किया था और वो भी इसी जेल में किसी दुसरे बैरक में बंद है'' - उसने घुटने पे रखे हाथ पे ठोड़ी टिकाये हुए कहा.

''फिर उदास क्यूँ हो? क्रांतिकारियों के लिए तो जेल स्वर्ग हुआ करता है'' - उसने अपनी मुछों को मरोड़ते हुए कहा.

''या तो क्रांति बंद करो या जेल में जीने की आदत बना लो'' - बीड़ी सुलगाते हुए उसने अपना ज्ञान उंडेला और एक लम्बा कश खींच के धुवें के छल्ले उड़ाते हुए गुनगुनाने लगा.

''इस अंजुमन में आपको आना है बार-बार
दीवार-वो-दर को ग़ौर से पहचान लीजिये''

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- नैय्यर / 16-06-2014

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