Monday, 27 July 2015

इरतआश


मैंने अपनी अबतक की ज़िन्दगी में इस क़दर बेदाग़ हुस्न नहीं देखा था और जब देखा तो उसे देखने में ऐसा मबहुत हुआ कि ख़ुद के मुंजमिद होने का एहसास तक नहीं हुआ।

ईवान-ए-ग़ालिब में एक सेमिनार के दौरान मुझे पहली बार दिखी थी वो। उसके होंट के ऊपरी क़तरे के बायीं तरफ़ बिलकुल कोने में एक तिल है जिसने मुझे केरल के कोल्लम बीच की वो ख़ूबसूरत शाम याद दिला दी जब मैं दो साल पहले अंडमान के सफ़र के दौरान वहाँ सनसेट का मंज़र देख रहा था। कोल्लम बीच के दक्खिनी सिरे के बिलकुल किनारे पर एक टेढ़ा सा नारियल का पेड़ है जो साहिल से लगभग साढ़े छह फ़ीट की लम्बाई के बाद तिरछा हो कर समन्दर के सीने के ऊपर से आसमान की तआक़ुब में निकल पड़ा था। सनसेट के वक़्त उस नारियल के पेड़ से दूर समन्दर में घुलते हुए सूरज को देखकर ऐसा लगता था जैसे समन्दर किसी के होंट का निचला क़तरा हो, आसमान ऊपरी क़तरा और क्षितिज पर पिघलता सूरज उसके होंटों के आख़िरी सिरे का दिलफ़रेब सा तिल।

सेमिनार के पहले सेशन के बाद हाई टी के दौरान वो मुझे लॉन में सिगरेट पीते हुए दिखी। मैं कॉफ़ी का कप थामे उसे देखने लगा, शायद उसे भी किसी के घूरने का एहसास हो गया तभी उसने पलट कर देखा और मुझे अपनी तरफ़ देखता पा कर उसने धुँए के गुच्छे उड़ाते हुए मुझे अपनी पतली सी ब्राउन कलर की सिगरेट ऑफर की।

'सॉरी ! मैं सिगरेट नहीं पिता। शुक्रिया !'

'जब सिगरेट नहीं पीते तो फिर मुझे घूर क्यों रहे थे? उसने सिगरेट का काश अंदर खींचते हुए पूछा।'

'घूर नहीं रहा था, मैं तो धुँए के धुंध के पीछे के ख़ूबसूरत चेहरे को आँखों से टटोलना चाहता था।'

'लफ़्ज़ों के अच्छे जाल बुन लेते हो तुम।'

'नहीं, मुझसे लफ़्ज़ों के जाल नहीं बुने जाते।'

'लफ़्ज़ों के जाल को मुझसे बेहतर कौन जान सकता है भला। इसी जाल की क़ैद में मेरी हसरतों, मेरी आरज़ूओं, मेरी चाहतों, मेरी तमन्नाओं, मेरी ख़ुशियों और मेरे ख़्वाबों ने दम तोड़ दिया मगर मैं बदनसीब ज़िंदा रह गयी।'

'क्यूँ, ऐसा क्या कर दिया लफ़्ज़ों ने?'

'क्यूँ, क्या तुम मेरी कहानी लिखोगे?'

'नहीं, मुझे कहाँ आता है कहानी लिखना।'

'सिगरेट का आख़िरी काश लेकर फ़िल्टर को अपनी सैंडिल से रगड़कर बुझाते हुए उसने कहा, - 'जो डॉक्टर नहीं होता न, वो बीमारी का सिमटम भी नहीं पूछता।'

'मेरी ज़िन्दगी की कहानी बस इतनी है कि ये इश्क़ से शुरू हो कर सुट्टे पर ख़त्म हो गयी है।'

'इश्क़ में नाकाम होने का ये तो मतलब नहीं कि इंसान अपनी ज़िन्दगी धुँए में उड़ा दे।'

'मैं इश्क़ में नाकाम नहीं हुई, हार गयी हूँ। नाकाम तो वो हुआ जिसने इश्क़ का ढोंग दो-दो से रचाया मगर हो किसी का नहीं पाया। ये तो सिगरेट है जिसकी वजह से जी रही हूँ मैं वरना कब की मर गयी होती।'

'सच्ची मुहब्बत अकसर हार जाया करती है पर मरती नहीं है, फिर तुम क्यूँ मर जाती?'

'क्यूँकि जब इंसान ज़हर पी लेता है न तो मर जाता है। सुकरात ने सच्चाई का ज़हर पिया था और मैंने इश्क़ का, सो मरना तो लाज़िम था। जी तो मैं सिगरेट की वजह से रही हूँ।'

'पर...सिगरेट भी तो ज़हर है न?'

'ज़हर ही तो ज़हर को काटता है न, जैसे साँप के ज़हर को ख़त्म करने के लिए उसी के ज़हर का इनजेक्शन लगाना पड़ता है।'

'फिर तुम किसी और से इश्क़ कर लो, तुम्हारे पहले इश्क़ का ज़हर ख़त्म हो जाएगा।'

'निरे बुद्धू हो तुम। इश्क़ तजुर्बा नहीं है जो बार बार किया जाए और मुहब्बत के भी कुछ उसूल और आदाब हुआ करते हैं। तुमने इश्क़ तो किया नहीं जो तुम्हें कुछ एहसास हो। कम से कम सुट्टा ही लगा लेते, कुछ तो अक़ल आती।'

'मेरी शकल ही ऐसी है कि किसी को मुझसे इश्क़ नहीं होता। हाँ, मुझे एकतरफ़ा इश्क़ कई बार हुआ है।'

'तुम न इसी ग़म में सुट्टा पिया करो।'

'तुमने तो सुट्टे की राम कहानी में अपनी कहानी ही गोल कर दी।'

'जैसे मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक वैसे ही मेरी कहानी इश्क़ से सुट्टे तक। और तुम्हें पता है कोई सिगरेट क्यूँ पीता है?'

'क्यूँ?'

'अपने अंदर के ज़हर को मारने के लिए। मरने के लिए तो बस थोड़ी से ज़हर की ज़रुरत होती है मगर ज़िंदा रहने के लिए रोज़ थोड़ा सा ज़हर निगलना पड़ता है। ये ज़हर अंदर के ज़हर को काट कर जीने की थोड़ी सी ही सही स्पेस तो देता ही है। दुनिया के हर सुट्टेबाज़ के पास अपनी एक ज़हरीली कहानी होती है जिसे वो हर रोज़ क़िश्तों में फूँक कर जीने लायक़ ईंधन इकठ्ठा करता है ताकी चंद क़तरा वो भी जी सके।'

'मैंने भी किसी से मुहब्बत की थी। ख़ालिस, भरपूर और दीवानगी की हद तक की मुहब्बत। लेकिन उसने मुझे धोका, हिज्र, रुस्वाई और ज़हर के सिवा कुछ न दिया। मेरी बेइन्तेहा मुहब्बत के बदले उसने मुझे बेवफ़ाई का तोहफ़ा दिया। वो मुहब्बत के दावे तो मुझ से करता रहा मगर क़समें किसी और के मुहब्बत की खाता रहा। मुझे जब तक इस बात का इल्म हुआ कि वो किसी और की आँखों में मुहब्बत के दीप जला रहा है तबतक मैं उसकी मुहब्बत में पोर पोर डूब चुकी थी। मेरे लिए वापसी का सफ़र आसान नहीं था मगर कभी किसी का सफ़र आसान भी हुआ है क्या?'

'मैंने कहीं पढ़ा था कि अगर किसी को एक ही वक़्त में दो लोगों से मुहब्बत हो जाए तो उसे दूसरी मुहब्बत को हासिल करना चाहिए क्यूँकि अगर पहली मुहब्बत सच्ची होती तो दूसरी मुहब्बत का सवाल ही नहीं पैदा होता। सो मैंने उसकी ज़िन्दगी से निकल जाने का फ़ैसला किया क्यूँकि मेरे लिए ये इंकिशाफ़ ही अज़ीयतनाक था कि जिसे मैंने बेहिसाब चाहा वो किसी और का हो चूका है।'

'बिछड़ते वक़्त वो मेरे घुटने पकड़ कर रोता रहा कि मैं तुम्हारे बिना मर जाऊँगा मर वो आज तक ज़िंदा है हालाँकि मैं उससे बिछड़ने के सदमे में छह महीने हॉस्पिटलाइज़ड रही मगर वो मुझसे कभी मिलने तक नहीं आया। कहने को तो वो यही कहता था कि मैं ख़ुदा से हर दुआ में सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम्हें माँगता हूँ और अगर तुम मेरी नहीं हुई तो मैं मर जाऊँगा। मैं तो उसकी हो गयी मगर वो मेरा न हो सका।'

'लोग जीते तो ज़रुर हैं किसी के लिए मगर कोई किसी के लिए नहीं मरता। मैं भी किसी के लिए मरना नहीं चाहती इसीलिए क़तरा-क़तरा जी रही हूँ।'

~
- नैय्यर / 27-07-2015

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