Thursday, 23 July 2015

ईदी

'मेरी ईदी' - उसने ख़ूबसूरत मेहँदी की डिज़ाइन से सुर्ख़ हुई हथेली को उसके सामने फैलाते हुए अदाए नाज़ से कहा।
'ईदी ! आपको भी ईदी चाहिए क्या?

'हाँ ! क्यूँ नहीं। सुबह जब मैं तैयार हो रही थी तब आप ईदगाह जाने की जल्दी में थे, इसलिए मैंने आपको टोका नहीं। अब आप ईद की नमाज़ से फ़ारिग़ हो कर घर तशरीफ़ ला चुके हैं तो निकालिये मेरी ईदी।

'लेकिन ईदी तो बच्चों के लिए होती है, बड़ों के लिए नहीं। उसे शरारत से उसकी थोड़ी छूते हुए कहा।'

'जी नहीं, ईदी पे हक़ शरीक-ए-हयात का भी होता है और मैं अपने हक़ से दस्तबरदार नहीं होने वाली।'

'शरीक-ए-हयात का एक हिस्सा तो मैं भी हूँ, तो ईदी पर मेरा भी कुछ हक़ बनता है या नहीं? उसने उसके ख़ूबसूरत सरापे को नज़र भर कर देखते हुए कहा।'

'आपका हक़ इतना ही है कि आप जल्दी से मुझे मेरी ईदी दें।'

'अच्छा ! इतनी जल्दी है ईदी की?'

'जी ! जल्दी दें, उसने मुस्कुराते हुए कहा।'

उसने उसकी फैली हुई हिनाई हथेली को अपने हाथों में लेते हुए उसे ख़ुद से और क़रीब कर उसके कंधारी अनार जैसे नर्म वो सुर्ख़ लबों पर अपना प्यासा होंठ रख दिया। इस अजीब वो ग़रीब मगर दिलचस्प ईदी पर उसके गाल बुरांश के ताज़ा खिले फूलों की तरह दहक उठे मगर मारे शर्म के वो उससे नज़रें तक न मिला सकी।
~
- नैय्यर / 18-07-2015

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