कुछ दिनों पहले फूलन देवी की पुण्यतिथि बीती है. मल्लाह जाति से आने
वाली फूलन देवी का सामूहिक बलात्कार उच्च जाति के दबंगों ने किया और
उन्होंने प्रतिशोध में हथियार उठा लिया. उनके इस कदम को बुद्धिजीवियों ने
‘क्रांतिकारी’ कदम कहा है क्योंकि यह जातीय संघर्ष के लिए था. उनके इस
क्रांतिकारी क़दम ने उन्हें 'बैंडिट क्वीन' बना दिया. अपने यौवन से लेकर
उम्र ढ़लने के पड़ाव तक फूलन देवी और उनकी गैंग ने हज़ारों जाने निगल लीं मगर
कोई सज़ा नहीं. ढलती उम्र में आत्मसमर्पण कर उन्होंने अपने सारे पाप धो लिए
और संसद तक पहुंच गयीं.
भारत का इतिहास दंगों के स्याह रंग से भी पुता हुआ है. बंटवारे और उसके
बाद के सैकड़ों दंगों में मुसलमानों को मारा गया. मुस्लिम महिलाओं के साथ
हिन्दू चरमपंथियों ने बलात्कार किया. उनके गर्भ चीरकर तलवार की नोक पर
अजन्मे बच्चे को लहराया गया. मुस्लिम शिक्षण संस्थानों पर हमले किए गए और
मज़ारों मस्जिदों को नेस्तनाबूत कर दिया गया. यहां पर प्रश्न उठना लाज़िम है
कि इतना सब होने के बाद यदि कोई मुस्लिम प्रतिशोध में हथियार उठा ले तो वो
आतंकवादी क्यों, क्रांतिकारी क्यों नहीं?
यह मानने में कोई गुरेज़ नहीं कि फूलन की तरह याक़ूब की वजह से भी कई
जिंदगियां मिट गयीं मगर सज़ा सिर्फ याक़ूब को, क्यों? आत्मसमर्पण तो दोनों ने
किए मगर फांसी सिर्फ़ याक़ूब को, क्यों? (सनद रहे कि आडवाणी और प्रवीण
तोगड़िया के नाम यहां नहीं लिए जा रहे हैं)
गुजरात में जब मुस्लिमों को चरमपंथियों ने मारा था तो कौन-सा प्रतिशोध
हो पाया था? गुजरात में ही घरों में घुसकर जब पुलिस सुरक्षा में हिंदूवादी
ताकतों ने मुस्लिम औरतों के साथ बलात्कार किया तब क्या कोई जवाब मुस्लिम
समुदाय से उठ पाया था? प्रतिशोध और जवाब सम्बन्धी कोई भी कार्रवाई तब भी
नहीं हो पायी थी जब मुस्लिम भीड़ को सामूहिक रूप से जलाया गया था. हाशिमपुरा
में तो पीएसी ने घरों से मुस्लिम नौजवानों को खींचकर नहर पर गोली मारी थी.
अलीगढ़ से लेकर यवतमाल तक सैकड़ों दंगों में मुस्लिम बर्बाद हुए.
यहां सिर्फ मुस्लिम-मुस्लिम का रोना नहीं है. 1984 के सिख दंगों के बाद
भी दमनकारी हिन्दू ताकतों का सिखों ने क्या बिगाड़ लिया? अलबत्ता 21वीं
शताब्दी में वे उनके साथ राजनीति करते दिख रहे हैं. ईसाई ननों से बलात्कार,
उनकी हत्या और चर्चों पर हमलों के बाद भी ईसाई समाज ने क्या कर लिया?
लक्ष्मणपुर बाथे और बथानी टोला में दलितों के नरसंहार पर दलितों ने क्या कर लिया? छिटपुट नक्सली हमलों से अलग,
जिसमें वे खुद शामिल नहीं होते हैं, बस्तर के आदिवासियों ने ही कौन-सा
पहाड़ तोड़ लिया?
प्रतिशोध में जब सिख हथियार उठाए तो चरमपंथी, आदिवासी उठा ले तो नक्सली,
हिन्दू उठा ले तो राष्ट्रवादी, विद्रोही उठा ले तो अलगाववादी लेकिन एक
मुस्लिम के प्रतिशोधी स्वरुप को आतंकवादी का नाम दिया जाता है. एक ही काम
के इतने अलग नाम क्यों? यहां यह दलील नहीं दी जा रही है कि मुस्लिम को आतंकवादी मत कहो. बल्कि
यह समझाने को कोशिश हो रही है कि एक नियम सब पर लागू हो. आतंकवादी उसे ही
कहा जाए जो आतंकवादी हो. देशद्रोही उसे ही कहा जाए जो देशद्रोही हो. विरोधी
उसे ही कहा जाए जो विरोधी हो. वहां निर्णय एक मानवीय आधार पर लिया जाए, न
कि धर्म के आधार पर.
जिस देश की अदालत में फैसले का आधार मनुस्मृति को बनाया जाता हो, उस देश
में कोई भी दमित वर्ग क्या कर सकता है? वे लिखने और भाषायी विरोध के अलावा
कुछ नहीं कर सकते हैं, लेकिन हिंदूवादी ताकतों का आलम यह है कि वे इस
लिखने और विरोध की आवाज़ से ही बिलबिला उठती हैं. क्या कहें इस बिलबिलाहट
को, लोकतंत्र या नरसंहार?
No comments:
Post a Comment