Thursday, 6 August 2015

ज्वालामुखी

उसके रक्तालभ कपोलों से
घुल कर चाँदनी
उसकी मरमरीं जिस्म पर
बिछा जाती है इक गुलाबी चादर
और उसकी आँखों के शफ़्फ़ाफ़ चनाब में
आकाश ऐसे पिघलता है जैसे
सर्दी में ठोप-ठोप टपकता आकाश


मैं असमर्थ हूँ अभी फ़र्क़ करने में
बारिश में भीगी कमल की पत्तियों और
संतरे के नंगी फाँक जैसी उसके होंठों के बीच
मगर मैं अंतर बता सकता हूँ
उसकी ज़ुल्फ़ों के अंधेरों
और बादल की कालिख के बीच का

अपने ज़बान की नोक से
उसके होंठों की चौहद्दी नापते हुए
मैं छू जाता हूँ उसका रक्तालभ कपोल
और भड़क जाती है मुझमें वही पुरानी अगन
जो वक़्त के साथ हो गयी थी
मृत ज्वालामुखी सी

मेरी मरमरीं बुत
दो अलग छोर पर अपनी ऊष्मा
धधकाने से बेहतर है
आ ! मेरी बाहुपाश में
ताकि हम क्षय कर सकें
अपनी अपनी ऊष्मा का
~
- नैय्यर / 04-08-2015

No comments:

Post a Comment