Monday 2 May 2016

मज़दूर दिवस : साहिर लुधियानवी और अल्लामा इक़बाल की नज़र में

साहिर का कलाम इंक़लाब और बग़ावत के लिए उकसाता है लेकिन वह तशद्दुद (हिंसा) और तख़रीब (तबाही, बर्बादी) का हामी (समर्थक) नहीं। इस मामले में साहिर अल्लामा इक़बाल से भी टक्कर लेने को तैयार हैं जिन्हें वो हमेशा बीसवीं सदी का सबसे बड़ा शायर मानते रहे। साहिर की नज़्म 'विरसा' इस ज़मन (सन्दर्भ) में बेहद अहमियत का हामिल है। इसमें वो इंक़लाब के लिए तख़रीब-व-तशद्दुद पर आमादा (उतारू) एहतजाजी (ऐतराज़ करने वाली जनता, धरना) भीड़ से ख़िताब करते हुए कहते हैं -

जिस से दहक़ाँ को रोज़ी नहीं मिलने पाती
मैं न दूँगा तुझे वो खेत जलाने का सबक़
फसल बाक़ी है तो तक़सीम बदल सकती है
फसल की खाक से क्या मांगेगा जम्हूर का हक़

साहिर ने ये शे'र अल्लामा इक़बाल के इस शेर के जवाब में कहा था -

जिस खेत से दहक़ाँ को मयस्सर न हो रोज़ी
उस खेत के हर ख़ुशा-ए-गन्दुम को जला दो
~
दहक़ान/दहक़ाँ = किसान, जम्हूर = आम जनता
मयस्सर = उपलब्ध, ख़ुशा = बाली, गन्दुम = गेहूँ

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