Sunday 22 May 2016

डिग्रीनामा

पढ़ने-पढ़ाने के दौरान लगभग आधा दर्जन शिक्षण संस्थानों से डिग्री/प्रमाणपत्र हासिल करने के बाद भी घरवालों की नज़र में मेरी हैसियत 'घर की दाल मुर्गी बराबर' से तोला भर भी ज़्यादा नहीं है। मुर्गी खाना तो तभी से बंद है जब मैंने शाकाहारी बनने का निर्णय लिया था और अब तो राष्ट्रवादी सरकार की कृपा से कटोरी में दाल भी दिनों-दिन कम होती जा रही है। एक दौर भ्रष्ट्र और लुटेरी सरकार का भी था जब शुद्ध देशी घी में बघारे हुए अरहर दाल से गला तर होता था और अब राष्ट्रवादी सरकार में ये आलम है कि खेसारी दाल खा कर भी भक्ति का जयकारा लगाना पड़ता है। मैं तो ठहरा विद्रोही, सो खेसारी तो खाता नहीं और अरहर ने तो मुआ ऐसा धरना दिया है कि बजट से समझौता ही नहीं कर रहा है। आजकल मैं हींग में बघारा हुआ मूँग की दाल खाकर डिग्री के प्रकोप को कम करने की कोशिश कर रहा हूँ। राजा अकबर को भी हींग में छौंका हुआ मूँग का दाल पसंद था सो आजकल हर वक़्त शाही फ़ीलिंग फ़ीलिया रहा हूँ। देखिए मैं भी कहाँ से कहाँ पहुँच गया, बात कर रहा था डिग्रीनामे की पहुँच गया दालनामे पर।
वापस आते हैं डिग्रीनामे पर। एक बार की बात है कि हमारे तालाब से कोई कई दिनों से चोरी से मछलियों का शिकार कर रहा था। एक दिन पकड़ में आ गया। बजाए ग़लती मानने के उल्टा शेर बनने लगा। बात बिगड़ते-बिगड़ते थाना-पुलिस तक जा पहुँचा और फिर कोर्ट में। हम केस जीते और मछलीचोर की डिग्री हो गयी। उन दिनों मैं 9वीं क्लास में था। मैथ्स की डिग्रियों से उलझे दिमाग़ को पहली बार किसी दूसरी डिग्री के बारे में पता चला। आगे जब +2 में फिज़िक्स और मैथ्स के जाले में उलझा तो ज़िन्दगी अपकेंद्रिये और उभयकेंद्रिये बल के डिग्री से चक्रव्यूह से अबतक बाहर नहीं निकल पाई है।
RTI लगाकर जिनसे डिग्री माँगी गयी उन्होंने ने तो डिग्री दिखाई नहीं, उलटे लोड ले लिया है सौर मंडल के मुखिया जी ने। बौखलाए हुए सुबह ही सुबह निकल पड़ते हैं और दिन भर तमतमाए रहते हैं। दिन की ही कौन कहे, शाम तक जलवा दिखाते रहते हैं। उनके जलवों का ही नतीजा है कि रात भी आधी रात को ही होती है। अगर मुखिया जी के जलवों का यही हाल रहा तो मुझे डर है कि कहीं चौकीदार जी के विश्व-रिकॉर्ड छाती का कीर्तिमान न टूट जाए। हालाँकि टूटा तो 'अच्छे दिन' का भरम है फिर भी किसी के आँख में पानी नहीं है। अब देश की जनता देश के मुखिया और सौर मंडल के मुखिया की तरह कठकरेज तो है नहीं जो देश के 12 राज्यों में सुखा पड़ने पर भी आँख तर कर ले। तर तो ख़ैर बुंदेलखंड पहुँची 'जलदूत' भी नहीं थी लेकिन ख़ून में व्यापार रखने वाले व्यापारी जी के मंत्रालय ने लातूर में भेजे गए 'जलदूत' के लिए 4 करोड़ से भी ज़्यादा का 'संवेदनहीन' बिल भेजा है पर भक्तों की टोली का कहना है कि जब दानवीर सरकार ने 'आपदा राहत' के तहत करोड़ों रूपए दिए हैं तो वापस लेने में कैसी शर्म? इसपर ईमानदारी के ताऊ का कहना है कि जब दिल्ली और गुजरात विश्विद्यालय ने 'असली' डिग्री दी है तो दिखाने में कैसी शर्म? वैसे भी जब आर्ट ऑफ़ धरना वाले श्री श्री डिग्रीवाल जी डिग्री वेरीफ़ाई करने बैठे हैं तो डिग्री सत्यापित करा लेने में क्या हर्ज है? इसी मुद्दे पर अभी ताज़ा-ताज़ा लिखा मेरा शे'र मुलाहिज़ा फ़रमाइये।
दो और दो पाँच क्या?
साँच को आँच क्या?
वैसे एक राज़ की बात बताऊँ डिग्री सत्यापित करने का परिणाम तो मैं भी भुगत रहा हूँ। मौसम विभाग जो कहता है वो सच तो होता नहीं है, यही सोच कर मैं आज के उसके प्रवचन 46 डिग्री तापमान को फ़र्ज़ी मान कर प्रचंड गर्मी में बाहर निकल गया। शाम में वापस आया तो सनबर्न, दही और पपीता लेकर। दही और पपीते के मैश को स्किन पर लगा कर जब जलन पर ठंडक पहुँचने की उम्मीद कर रहा हूँ ये बात मुझपर सत्यापित हो चुकी है कि कम से कम ये डिग्री तो फ़र्ज़ी नहीं है।
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- नैय्यर

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