मैं, ख़्यालों की चोटी पर गुमसुम बैठा
बेमतलब सा यूँही कुछ सोच रहा हूँ
कि दोनों के दिलों में गर बर्फ़ है इतनी
जो कभी पिघलती ही नहीं
तो फिर रावी और गंगा उफनती क्यों है?
सुना है कि इक उम्र के पड़ाव के बाद
पेड़ भी अपनी जड़ों से बिछड़ते नहीं हैं
अगर हम काट भी डालें दरख़्तों को
तो उसके ठूंठ के किसी आवारा से जड़ से
मुद्दतों बाद ही सही मगर
उस बूढ़े दरख़्त की नयी नस्ल
अपने वजूद से
हर नफ़रत को नकारते हुए
उगती ज़रूर है
और उस नयी नस्ल का उगना ही
हार है तुम्हारी
बेमतलब सा यूँही कुछ सोच रहा हूँ
कि दोनों के दिलों में गर बर्फ़ है इतनी
जो कभी पिघलती ही नहीं
तो फिर रावी और गंगा उफनती क्यों है?
सुना है कि इक उम्र के पड़ाव के बाद
पेड़ भी अपनी जड़ों से बिछड़ते नहीं हैं
अगर हम काट भी डालें दरख़्तों को
तो उसके ठूंठ के किसी आवारा से जड़ से
मुद्दतों बाद ही सही मगर
उस बूढ़े दरख़्त की नयी नस्ल
अपने वजूद से
हर नफ़रत को नकारते हुए
उगती ज़रूर है
और उस नयी नस्ल का उगना ही
हार है तुम्हारी
~
- नैय्यर / 21-04-2014
- नैय्यर / 21-04-2014
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