Saturday, 23 May 2015

इल्हाम

'उसे तो ज़रा भी इस बात का एहसास नहीं है कि तुम उससे इस क़दर शदीद मुहब्बत करते हो कि उसके इश्क़ में दुनिया-जहान को फ़रामोश कर बैठे हो।'

'ना हो, मुझे इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि मेरे लिए उसके क्या जज़्बात हैं? मैंने उससे इस शर्त पर तो मुहब्बत नहीं की कि वो भी बदले में मुझसे मुहब्बत करे?'

'फिर ऐसी मुहब्बत का क्या फ़ायदा जब सामने वाले को किसी कि चाहत का कोई एहसास ही नहीं?'

'मुहब्बत कोई फ़ायदे या नुक़सान की चीज़ नहीं है, मुहब्बत एक जज़्बा है और अगर जज़्बों में सदाक़त हो तो मुहब्बत अपना आप ज़रूर मनवा लेती है।'

'तो...तुम्हारी इतने सालों पुरानी मुहब्बत के जज़्बे में ज़रा भी सदाक़त नहीं जो तुम्हारी चाहत की हिद्दत उसके सोचों को आज तक पिघला न सकी?'

'अगर दोनों में से किसी एक के दिल में भी सच्ची मुहब्बत हो न तो ये अगन दूसरे के दिल पर भी देर-सबेर असर ज़रूर करती है। एक न एक दिन उसे मेरी मुहब्बत की आँच की तपिश ज़रूर मोम कर लेगी।'

'तुम्हें किस भरोसे इतना यक़ीन है?'

'मुझे अपने जज़्बों की सदाक़त पर रोज़-ए-क़यामत की तरह यक़ीन है, अगर उसे मेरी मुहब्बत का इल्हाम न हुआ तो फिट्टे मुँह ऐसी मुहब्बत का।'

~
- नैय्यर / 21-05-2015

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