Saturday, 20 June 2015

डर

- ये तुम रातभर क़ब्रिस्तानों में क्या आवारागर्दी करते फिरते हो? तुम्हें उन वीरानों के हौलनाक अंधेरों में ज़रा भी डर नहीं लगता क्या? 

- नहीं ! मुझे तो वहाँ बेहद सुकून मिलता है।

- पर... क़ब्रिस्तान तो रूहों का आमाजगाह है। वहाँ जिन्दों का क्या काम?

- माएँ कभी रूह नहीं बनतीं। माँ तो बस माँ होती है, चाहे वो घर की चारदीवारी में ज़िंदा हो या क़ब्र की अँधेरी तंग कोठरी में। मेरी माँ भी क़ब्र में आज तलक ज़िंदा है और मैं हर रात उसके गोद की गर्मी की तलाश में ही क़ब्रों की आवारागर्दी करता हूँ और क़सम से इस आवारगी में बहुत सुकून है। अब्दी सुकून से भी ज़्यादा सुकून।
~
- नैय्यर / 17-06-2015

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