Tuesday 1 September 2015

जवाब

लाजपत नगर के 'वेस्टसाइड' से शॉपिंग कर दोनों हाथों में बैग थामे निकला तो घड़ी की सुईयाँ रात के 10:55 बजने का इशारा कर रही थीं। पास से गुज़रते रिक्शे को सर के इशारे से रोका और तेज़ क़दम बढ़ाते हुए 'मेट्रो' कह बैठ गया। चारों बैग्स को बग़ल में रख वॉलेट में चेंज टटोला और डेबिट कार्ड को शर्ट की ऊपरी जेब से निकाल कर वॉलेट में रखा और बीस का नोट रिक्शे वाले को देने के लिए उसमें से निकाल लिया।
- 'ज़रा तेज़ चलो यार', वॉलेट पैंट की पिछली जेब में सरकाते हुए मैंने कहा।
- 'भाई साब, ! ये रिक्शा है, कोई प्लेन थोड़ी न है जो चलने की बजाय उड़ने लगे', उसने पैडल पर दबाव बढ़ा कर गर्दन पीछे मोड़ते हुए कहा। मैंने अपने बैग्स उठा कर गोद में रखे और स्ट्रीट लाइट के लैम्प्स से बिखर कर सड़क पर गिरती पीली रौशनी की क़तार को देखने लगा। मेट्रो स्टेशन पहुँचते ही मैं बैग्स सँभालते हुए उतरा और उसे बीस का नोट थमाते हुए आगे बढ़ गया तभी पीछे से उसकी आवाज़ उभरी।
- 'दस रुपये और', पसीना पोंछते हुए उसने कहा।
- 'पर...किराया तो बीस ही रुपये है फिर दस रुपये...'
- 'साब टाइम भी तो देखो, 11 से ऊपर हो गया है'
- 'तो...रिक्शे वालों ने भी नाईट चार्ज वसूलना शुरू कर दिया क्या?'
- 'साब पेट क्या सिर्फ़ ऑटोवालों के ही पास होता है क्या?' उसके जवाब ने मुझे लाजवाब कर दिया और मुझसे कुछ कहते नहीं बना। चुपचाप उसे दस का नोट थमाया और स्टेशन के अंदर दाख़िल हो कर सिक्यूरिटी चेकिंग की तरफ़ बढ़ चला।
जब प्लेटफ़ॉर्म पर पहुंचा तो वहाँ लगी घड़ी 11:19 का वक़्त बता रही थी और अभी मेट्रो ट्रेन आने में तीन मिनट बाक़ी थे। प्लेटफ़ॉर्म पर ब-मुश्किल 15 से 18 लोग थे। रात की तारीकी स्टेशन को छोड़ बाक़ी सबको अपनी कालिख में धीरे-धीरे रंग रही थी तभी ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म पर आ लगी। पाँच स्टेशन पार कर केंद्रीय सचिवालय तक पहुँचने में महज़ दस मिनट का वक़्त लगा। केंद्रीय सचिवालय से मैंने वायलेट लाइन छोड़ येलो लाइन की मेट्रो पकड़ी। भीड़ न के बराबर थी, कई सीटें ख़ाली थी फिर भी दिन भर ऑफ़िस में बैठे रहने की वजह से बैठने का दिल नहीं चाहा सो बोगी के दरवाज़े के ठीक सामने वाली स्टैंड से पीठ टिकाया और बैग्स को पैरों के बीच में रख दिया। अगले स्टेशन पटेल चौक पर वो चढ़ी और खम्भे से पीठ टिका कर मेरी दूसरी तरफ़ मुँह करके खड़ी हो गयी। मैं कनखियों से उसका चेहरा देखना चाहा पर नाकाम रहा। राजीव चौक पर भीड़ का एक रेला आया ख़ाली पड़ी सीटों पर बिखर गया। भीड़ को रास्ता देने के चक्कर में वो मेरे बाएँ तरफ़ खिसक कर आ चुकी थी। ऍफ़.एम के चैनल बदलते हुए मेरी नज़रें व्हॉट्स एप्प पर मैसेज टाइप करती उसकी उँगलियों पर टिक गयी। तराशे हुए नाख़ूनों पर बेबी पिंक कलर की नेल पॉलिश बहुत जँच रही थी। नाख़ून बढ़ने की वजह से जड़ की तरफ़ के सफ़ेद नाख़ून की पतली लकीर ऐसे लग रही थी जैसे बेबी पिंक कलर पर सिल्वर कलर की कोटिंग की गयी हो। शायद मेरी नज़रों की तपिश थी या उसकी छठी हिस का कमाल, उसने मेरी तरफ़ देखते हुए भवें उचकाते हुए देखा मानो पूछ रही हो कि 'क्या है?'
- 'आपके नाख़ून...', मैंने झेंपते हुए कहा।
- 'वेल शेप्ड एंड वेल फाईल्ड हैं और बढ़े हुए भी नहीं हैं जो आपको डर लगे। वैसे भी नाख़ून हैं कोई हथियार नहीं।' उसके जवाब में मैं बस मुस्कुरा के रह गया। उसकी बातूनी तबियत ने ये बताने की मोहलत ही नहीं दी की मुझे उसके नेल पॉलिश के कलर और शेड्स अच्छे लगे।
- 'कहाँ तक जाना है?' कश्मीरी गेट पर भीड़ के उतरने के बाद उसने पूछा।
- 'G.T.B नगर और आप?' बाएँ कान से हेडफ़ोन का ईयर पीस निकालते हुए मैंने कहा।
- 'मैं भी वहीँ तक' कहते हुए उसने अगला सवाल दाग दिया, 'Civil Aspirant?'
- 'और मैंने हाँ में सर हिला दिया जबकि मैं सिविल की तैयारी भी नहीं कर रहा था। हाँ, फ़र्स्ट एटेम्पट में प्री नहीं निकाल पाने के बाद ये चाहत थी कि एक बार तैयारी कर के सेकंड एटेम्पट दूँ पर तैयारी नहीं कर पाया। आज उसके इस सवाल ने उस कसक की टीस को फिर से ज़िंदा कर दिया था।
- 'व्हिच एटेम्पट?' उसके इस सवाल पर मैं वापस होश में आया तो इस बार सच बोला 'सेकंड।'
G.T.B. स्टेशन पर उतर हम ख़ामोशी से बाहर आये। उसने रिक्शा रोक कर उसपे बैठते हुए पूछा कहाँ?
- 'गाँधी विहार', मेट्रो कार्ड जेब में रखते हुए मैंने कहा।
- 'शेयरिंग?'
- मेरे 'श्योर' कहते ही वो दाएँ तरफ़ खिसक गयी मेरे बैठते ही रिक्शा चल पड़ा और उसका सवाल भी। सो, 'in which coaching you are?'
- 'Vajirao and Ravi', मुझे एक और झूठ बोलना पड़ा।
- 'तभी शौपिंग्स हो रही है, मुस्कुराते हुए उसने कहा। By the way, I am in Chanakya IAS Academy'
- 'योर सब्जेक्ट्स?' मैंने पूछा।
- 'पब्लिक ऐड. एंड जियोग्राफी', एंड योर्स?
- 'हिस्ट्री एंड पोल. साइंस' मैंने एक और झूठ गढ़ा'
बस यहीं...यहीं ! उसने रिक्शे वाले को रोकते हुए कहा। 'मेरा हॉस्टल आ गया', D-329 के सामने रिक्शा रुकते हुए उसने कहा और बीस रुपये का नोट मुझे पकड़ाते हुए गुड़ नाईट कहती चली गयी और रिक्शा आगे बढ़ने लगा तभी जाते-जाते उसने मुड़ कर कहा, by the way, 'I am Ananya Bharadwaj'. शुक्र है तब तक रिक्शा रफ़्तार पकड़ चुका था और उसने मेरा नाम नहीं पूछा वरना मुझे एक और झूठ गढ़ना पड़ता। रिक्शा आगे बढ़ते ही मन में ये ख़याल उभरा कि 'क्या मैं फिर से सिविल सर्विसेज़ की तैयारी करूँ?' और दिल ने जब ढंग का कोई जवाब नहीं दिया तो मैंने हेडफ़ोन जब दुबारा कानों में लगाया तो उसपर 'तेरे मेरे सपने अब एक रंग हैं' बज रहा था। शायद मुझे मेरा जवाब मिल गया था।
~
- नैय्यर / 28-08-2015

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