Tuesday 1 September 2015

औरंगज़ेब : व्यक्तित्व का छुपा पहलु

अबुल मुज़फ़्फ़र मुहियुद्दीन मुहम्मद औरंगज़ेब आलमगीर मुग़ल शहंशाहों में पहला शहंशाह हुआ जिसने क़ुरआन हिफ़्ज़ किया। सम्राट अकबर के ज़माने से ही हिन्दू मनसबदारों के साथ उदार रवैय्या रखा जाता था जिसे औरंगज़ेब ने भी अपनाया और अपने दरबार में किसी भी हिन्दू को उसके हिन्दू होने की वजह से उसके जायज़ हक़ या तरक़्क़ी से नहीं रोका।
शाहजहाँ हाथियों की लड़ाई देख रहे थे। शहज़ादा औरंगज़ेब हथियार से लैस घोड़े पर सवार मैदान के एक कोने में खड़ा था कि अचानक एक हाथी के हलक़ से बड़ी ख़ौफ़नाक चिंघाड़ निकली। शहज़ादे ने चौंक कर उसे देखा और फ़ौरन अंदाज़ा लगा लिया कि हाथी पर पागलपन का दौरा पड़ने वाला है। हाथी का महावत भी घबरा गया। उधर हाथी ने अपनी सूँढ़ उठाए क़रीब खड़े घोड़े पर हमला कर दिया। शहज़ादा भी मैदान में डट गया। शाहजहाँ आख़िर बाप था उसने गरज कर सिपाहियों को हुक्म दिया, "हाथी को ख़त्म कर दिया जाए" मगर शहज़ादे ने तेज़ आवाज़ में कहा, "अब्बा हुज़ूर ! सिपाहियों को रोकिये, मैं अल्लाह के हुक्म से हाथी का मिजाज़ दुरुस्त कर दूँगा" और अपना भाला हाथी के जिस्म में घोंप दिया जिससे हाथी और पागल हो गया और उसने शहज़ादे के घोड़े को अपनी सूँढ़ में लपेटा और ज़मीन पर पटक दिया। इसी बीच शहज़ादा फुर्ती से घोड़े से नीचे कूद चूका था। उसने अपनी तेज़धार तलवार म्यान से निकली और और ऐसा ज़बरदस्त वार किया कि हाथी की सूँढ़ कट कर दूर जा गिरी। इस ज़ख़्म से हाथी के होश ठिकाने आ गए और वो मैदान से भाग खड़ा हुआ। शहंशाह नेे मसनद से उठ कर शहज़ादा औरंगज़ेब को गले से लगाया और उसी वक़्त सबसे ख़तरनाक इलाक़े बलख़ पर हमला करने वाली फ़ौज का सिपहसालार बना दिया। तब औरंगज़ेब की उम्र महज़ 14 साल थी।
काफ़ी देर से औरंगज़ेब की फ़ौज़ जंग की तैयारी कर रही थी क्योंकि इस बार लड़ाई उज़बेग बाग़ियों से था जो बहुत दिलेरी से लड़ते थे। तैयारी पूरी होते ही शहज़ादा औरंगज़ेब शाही फ़ौज लेकर चल पड़ा और बलख़ शहर के क़रीब पहुँच कर उसने उसने ख़ेमे गड़वा दिए। उज़बेग लड़ाके गुरिल्ला जंग के बड़े माहिर थे। वो छुप कर बैठे रहते फिर मौक़ा पाकर अचानक हमला करते और फ़ौज को नुक़सान पहुँचा कर भाग जाते। शहज़ादे ने दुश्मन सरदार को पैग़ाम भेजा कि ''मेरी फ़ौज तुम्हारी फ़ौज से कम है मगर मेरा हौसला तुमसे चार गुना ज़्यादा है, मैदाने जंग में आकर आज़मा लो।'' दुश्मन सरदार को शहज़ादे की ललकार पसंद आई और वो अपनी भारी फ़ौज लेकर मैदान में आ गया। घमासान की लड़ाई होने लगी। इसी बीच अस्र की नमाज़ का वक़्त हुआ। शहज़ादे ने अपनी तलवार रोक दी, घोड़े की जीन से दबी जाय-नमाज़ खींची और मैदाने जंग में ही एक तरफ़ खड़ा होकर नमाज़ पढ़ने लगा। उज़बेग सरदार ने जब शहज़ादे को सुकून से नमाज़ पढ़ते देखा तो मारे हैरत के उसकी आँख खुली की खुली रह गयी। उसने चिल्ला कर अपनी फ़ौज को हुक्म दिया, "अपने हाथ रोक लो, इस शख़्स को अपने ख़ुदा पर इतना भरोसा है कि इससे लड़ना तक़दीर से लड़ने वाली बात है।" दोनों फ़ौजों में सुलह हो गई और उज़बेग सरदार ने शहज़ादे से दोस्ती कर ली। इस तरह औरगज़ेब पहला मुग़ल हुआ जिसने बलख को मुग़ल साम्राज्य में मिलाया।
मौलाना सालेह जैसे बुज़ुर्ग उस्ताद ने औरगज़ेब को क़ुरआन हिफ़्ज़ कराया था। शहज़ादा मौलाना सालेह के साथ साथ अपने सभी उस्तादों का बहुत एहतराम करता था। उसकी ये आदत शहंशाह बनने के बाद भी जारी रही। शहज़ादा कहा करता था कि ''उस्ताद इल्म देकर हैवान से इंसान बनाता है इसलिए उसकी इज़्ज़त करनी चाहिए।''
औरगज़ेब को हुक़ूमत करते कई साल गुज़र चुके थे। अब वो सारे हिन्दुस्तान का शहंशाह था। एक दिन मौलाना सालेह की बीवी ने अपने शौहर से कहा, "तुम्हारा शागिर्द बहुत बड़ा बादशाह बन गया है। तुम जाकर उससे बात करो तो वो हमारी ग़रीबी को बहुत आसानी से दूर कर सकता है।" मौलाना सालेह ने बहुत आराम से बीवी को समझाया, "नेक बख़्त ! क्यूँ मेरी नेकी बर्बाद करने पर तुली बैठी हो? उस्ताद अपने शागिर्द को देता है, लेता कुछ नहीं। दूसरी बात ये कि मेरा शागिर्द नाजायज़ काम करने को पसंद नहीं करता और अगर उसने मुझे दौलत वग़ैरह देने की कोशिश की तो मैं समझूँगा कि मेरी मेहनत बर्बाद हो गयी।" मौलाना सालेह ने अपनी बीवी को समझाने की बहुत कोशिश की मगर वो अल्लाह की बंदी अपनी ज़िद पर क़ायम रही।
आख़िरकार मौलाना सालेह ने हथियार डाल दिए और अपने शागिर्द से मिलने की तैयारी करने लगे। मौलाना सालेह एक ग़रीब इंसान थे मगर ख़ाली हाथ बादशाह के दरबार में जाना भी उन्हें पसंद नहीं था। उनकी बीवी ने गुड़ मिले आटे के गुलगुले बना दिए और एक मिट्टी के बर्तन में उसे बंद कर दिया। मौलाना सालेह ये तोहफ़ा लेकर शाही दरबार की तरफ़ रवाना हो गए। शदीद गर्मी का मौसम था, लम्बा सफ़र करके जब वो शाही दरबार में पहुँचे तो गुलगुलों से बदबू आने लगी थी। औरगज़ेब तख़्ते शाही पे बैठा कोई मुक़दमा सुन रहा था कि उसकी निगाह अपने उस्ताद पर पड़ी। वो फ़ौरन तख़्त से नीचे उतर पड़ा और भागता हुआ उस्ताद के सामने एहतराम से झुक गया। फिर बहुत इज़्ज़त से उन्हें तख़्त पर बिठा कर उनसे बातें करने लगा। "बरखुरदार औरंगज़ेब ! तुम्हारी माँ ने तुम्हारे लिए ये तोहफ़ा भेजा है" उस्ताद ने मिट्टी का बर्तन बादशाह के हवाले करते हुए कहा। औरंगज़ेब मिट्टी का बर्तन लेकर अपनी तख़्त पर जा बैठा और एक गुलगुला उठा कर मुँह में रखा। वह इतना बद-ज़ायक़ा और बदबूदार था कि कोशिश के बावजूद औरंगज़ेब उसे निगल नहीं सका। उस्ताद ने शागिर्द की हालात देखी तो उन्हें जलाल आ गया और कहने लगे, "मुहियुद्दीन औरंगज़ेब क्या बात है, बादशाह बन कर हलाल का निवाला खाने की आदत नहीं रही जो अब मिठाई भी तुम्हारे गले में अटकने लगी है?" सारे दरबार में ख़ामोशी छा गई। औरगज़ेब ने फ़ौरन गुलगुला निगल लिया और मुस्कुरा कर कहा, "हुज़ूर ! ऐसी कोई बात नहीं, मेरी तरफ़ से अम्मा जान का शुक्रिया अदा कीजियेगा। दरअसल मैं बे-वक़्त खाने का आदि नहीं इसलिए ज़रा मुश्किल हुई थी वरना मिठाई तो वाक़ई बहुत लज़ीज़ है।"
बादशाह ने एक और गुलगुला मुँह में डाला और आराम से खाते हुए मिट्टी का बर्तन अपने बेटे के हवाले कर दिया और मुस्कुरा कर कहा, "इसे हिफ़ाज़त से घर पहुँचा दो।" शहज़ादे ने दरबार से बाहर आकर मिठाई चखी तो उसे उबकाई आ गयी। उसने फ़ौरन मिठाई ज़मीन पर थूक दिया मगर शाहज़ादे को उस्ताद का मर्तबा और बाप की अज़मत का अंदाज़ा हो गया था।
औरंगज़ेब मुल्क की भलाई और तरक़्क़ी के कामों में इतना मसरूफ़ रहता था कि वो सिर्फ़ तीन घंटे सोता था। वो कुशल शासक होने के साथ ही बेहतरीन ख़त्तात था। उसने शाही ख़ज़ाने को अवाम का ख़ज़ाना समझा और उसे कभी अपनी ज़ाती ज़रूरतों के लिए ख़र्च नहीं किया। अपने घर में नौकर तक नहीं रखा और ख़र्च बचाने के लिए उनकी बीवी ख़ुद खाना बनाती थीं। औरंगज़ेब क़ुरआन के नुस्ख़े लिख कर और टोपियाँ सी कर अपने परिवार का ख़र्च पूरा करता मगर शाही ख़ज़ाने की अमानत में कभी ख़यानत नहीं की।

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