Tuesday 1 July 2014

मिर्ज़ा ग़ालिब से मुलाक़ात

न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता

- मिर्ज़ा ग़ालिब

मैं जब कभी भी दिल्ली आता हूँ चचा ग़ालिब से मिलने ज़रूर जाता हूँ. पिछले दिनों यानी 21 जून को भी उनसे मिलने गया. उनके आरामगाह में जा के कहा - आदाब अर्ज़ है मिर्ज़ा ! मिर्ज़ा ने कोई जवाब नहीं दिया, देते भी कैसे? नाराज़ जो थे. आख़री बार ढंग से दिसम्बर 2009 में मिला था उनसे, जब कुहासे को चीरती हुई तिरछी नर्म धुप उनके आरामगाह के ऊपर पड़ रही थी और हमने ढेर सारी बातें की थी. उसके बाद जब भी दिल्ली आया मसरूफ़ियत की ज़ंजीर पहन के आया. बस चलते चलाते बस से ये निज़ामुद्दीन रेलवे स्टेशन से निकलते हुए उनकी तरफ सलाम उछाल दिया, कभी आराम से बैठ के बात ही नहीं कर सका. सो, अब जो तपती दोपहर में उनसे मिलने गया तो उनकी नाराज़गी धुप की शिद्दत से कहीं ज़्यादा थी. चचा को मनाना था सो निकल पड़ा उनकी हवेली की तरफ़. पुरानी दिल्ली की तारीख़ी गालियाँ जिनकी हर ईंट से इतिहास की सिसकियाँ सुनाई देती हैं, उन्ही गलियों में एक है कूचा-ए-चीलान. जमा मस्जिद के गेट नम्बर-2 से मटिया महल होते हुए निकल गए उस तरफ़. उसी गली में मिला बरसों पुरानी हवेली का खंडहर, जाने वो हवेली किसक थी? हवेली से थोड़ी दूर आगे एक मस्जिद के दरवाज़े पे संगमरमर के छोटे से टुकड़े पे मस्जिद के नाम-पते के साथ लफ्ज़ 'गली मोमिन वाली' उगे हुए थे. याद आये आपको हाकिम मोमिन खान? नहीं न...उनका एक मशहूर शे'र सुनाता हूँ शायद याद आ जायें - ''वो जो हम में तुम में क़रार था तुम्हें याद हो के न याद हो, वही वादा यानी निबाह का तुम्हें याद हो के न याद हो'' याद आ गए न मोमिन साहब? तो मैं बता रहा था कि इन मोमिन साहब की हवेली किसके क़ब्ज़े में है आज तक पता नहीं, अगर मस्जिद के दरवाज़े पे गली मोमिन वाली' नहीं उगा होता तो ये इतिहास भी मिटटी हो चूका होता कि इसी गली में उर्दू के मशहूर शायर हकीम मोमिम खान 'मोमिन' रहा करते थे कभी. कूचा-ए-चीलन की तंग गली से निकल के हम चूड़ीवालान की तरफ़ बढे. पुराने तर्ज़ की होटल पे बड़े ग्लास में चाय की चुस्कियों की बीच गुलज़ार की नज़्म होंटों से चिपकने लगी और ज्यूँ-ज्यूँ हम बल्लीमारान की तरफ़ बढे गुलज़ार के लफ्ज़ ज़िन्दा होने लगे.

बल्‍लीमारान के मुहल्‍ले की वो पेचीदा दलीलों की सी गलियां
सामने टाल के नुक्‍कड़ पे बटेरों के क़शीदे
गुड़गुड़ाती हुई पान की पीकों में वो दाद वो वाह वाह,
चंद दरवाज़ों पे लटके हुए बोसीदा से कुछ टाट के परदे
एक बकरी के मिमियाने की आवाज़
और धुंधलाई हुई शाम के बेनूर अंधेरे
ऐसे दीवारों से मुंह जोड़के चलते हैं यहां
चूड़ीवालान के कटरे की बड़ी बी जैसे
अपनी बुझती हुई आंखों से दरवाज़े टटोलें
इसी बेनूर अंधेरी सी गली क़ासिम से
एक तरतीब चराग़ों की शुरू होती है
एक क़ुराने सुख़न का सफ़ा खुलता है
असद उल्‍ला ख़ां ग़ालिब का पता मिलता है

- गुलज़ार

गली क़ासिम में चचा ग़ालिब की हवेली जो 1996 तक अवैध क़ब्ज़े में रही, उसमें हीटर फैक्ट्री चला करती थी. बड़ी मुश्किलों से सरकार कुछ हिस्सा ही ख़ाली करा पाई है. अभी भी अवैध क़ब्ज़े वाले क़ब्ज़ा जमाये बैठे हैं, उनकी आँखों में ज़रा भी शर्म नहीं. जो हिस्सा सरकार ख़ाली करा पाई है उसके एक हिस्से में गुलज़ार का दिया ग़ालिब चचा की एक खुबसूरत स्टेचू रखी है, उनके कुछ बेहतरीन शे'र उर्दू, हिंदी और अंग्रेज़ी में लिखे गए हैं, एक खुबसूरत पेंटिंग लगाई गई है. कुल मिला के उनकी रूह और उनके दिल को बहलाने का साज़-वो-सामन इकठ्ठा किया गया है. भले ही चचा ग़ालिब अपने ससुर के पुश्तैनी क़ब्र जो निज़ामुद्दीन बस्ती में है वहाँ आराम कर रहे हैं लेकिन उनकी रूह तो हवेली में ही रची-बसी है. तभी तो जब उनकी हवेली गया और उनके अंगूठे को हिलाया तो ग़ज़ल लिखते हुए चौंक के मेरी जानिब देखा और आरामगाह पे किये सलाम का जवाब झट से दे दिया. पल में सारे गिले-शिकवे दूर हो गए. उनसे बिछड़ना आसान तो न था लेकिन मैं फिर से मिलने के लिए बिछड़ गया. हवेली से निकलते वक़्त हलकी-हलकी बूंदा-बांदी शुरू हो चुकी थी.

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आंख ही से ना टपका तो फिर लहू क्‍या है

- ग़ालिब

चचा ग़ालिब से मिलने के बाद हम फतेहपुरी मस्जिद की तरफ़ चले, मस्जिद के अहाते में बहुत देर तक बैठे रहे और नमाज़-ए-अस्र अदा कर के वहाँ से निकले. फतेहपुरी मस्जिद चांदनी चौक की पुरानी गली के पश्चिमी छोर पर है. इसे शाहजहाँ की पत्नियों में एक फतेहपुरी बेग़म नें 1650 में बनवाया. वो फतेहपुर की थीं इसलिए फतेहपुरी बेग़म के नाम से मशहूर हुईं. 1857 के सवतंत्रता संग्राम में मुग़ल शहंशाह बहादुर शाह ज़फर के नेतृत्व में लड़ने वाले कई मुस्लिमों की कब्रें भी मस्जिद के अहातें में हैं. स्वतन्त्रता संग्राम के बाद अंग्रेजों ने इस मस्जिद को नीलम कर दिया जिसे लाला चुन्नामल ने उस वक़्त मात्र 11000 रुपये में ख़रीद लिया. 1877 में चार गाँव के बदले में इस मस्जिद को वापस मुसलमानों को सरकार ने वापस कर दिया.

मैं सच कहूँगा तो न आएगा तुझे मुझ पे यकीं
आईने से पूछ वो सच परखने का हुनर जानता है

- नैय्यर

Adnan Kafeel साहब का शुक्रिया, जो मेरे साथ तपती दोपहरी में दिल्ली की गलियों की ख़ाक छानते रहे, यूँ कहूँ कि इन्होने ने ही मुझे इन गलियों और उनके इतिहास से आशना कराया को ग़लत न होगा. सारी तसवीरें इन्होने ही ली है जिसके लिए ढेर सारा शुक्रिया, पर मैंने इनकी कोई भी तस्वीर ढंग की न ली  फिर कभी सही...अब तो इन गलियों में मेरे क़दमों के चाप पड़ते रहेंगे. मिर्ज़ा को फिर से आदाब.
 (5 photos)

No comments:

Post a Comment