Sunday 11 October 2015

शीन

लन्दन के हीथ्रो एयरपोर्ट से एथेंस जा रहे अपने दोस्त को मैं टर्मिनल दो से विदा कर एयर इंडिया से अपने देश भारत आने के लिए जब टर्मिनल नंबर चार पर आया तो वहाँ के वेटिंग लाऊँज में उसे देख मैं देखता ही रह गया. सात साल की मुद्दत शायद बहुत होती है किसी चेहरे के अक्स को दिल के आईने के खुरचने के लिए, मगर वो आजतक बिलकुल वैसे ही मेरे दिल पर क़ाबिज़ है जैसे पहले दिन थी. मुझे उसके यहाँ होने की बिलकुल भी उम्मीद नहीं थी, मगर सच तो यही था कि मैं उसे अपनी नंगी आँखों से देख रहा था और मुझे अपनी ही आँखों पर यक़ीन करना मुश्किल हो रहा था.
***
यूनिवर्सिटी नए सेशन के लिए एक बार फिर से खुल चुकी थी. नए बच्चों के एडमिशन और पुरानों के सेमेस्टर फ़ीस भरने की वजह से यूनिवर्सिटी और बैंक दोनों जगह काफ़ी गहमागहमी थी. बैंक ने लड़कों और लड़कियों के लिए अलग काउंटर बना रखा था मगर स्टूडेंट्स की भीड़ थी कि हनुमान के पूँछ की तरह बढ़ती ही जाती थी जिससे बैंक आने वाली आम पब्लिक भी हलकान थी. मजबूरन बैंक वालों ने सिविल इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट के ख़ाली पड़े एक कमरे में अपना टेम्पररी काउंटर खोला और कमरे की खिड़की के सामने से अजगर नुमा भीड़ कॉरीडोर में रेंग गई. मेरी एक बुरी आदत आज भी है कि मैं आख़िरी दिनों में अपने काम निपटाया करता हूँ. उस दिन भी मैं अपनी सेमेस्टर फ़ीस जमा कराने लाइन में लगा था. चूँकि बैंक ने फ़ीस कलेक्ट करने के लिए अपना टेम्पररी विंडो खोला था इसलिए यहाँ लड़के और लड़कियों के लिए अलग-अलग लाइन नहीं थी. एक ही लाइन में गर्मी से हलकान सब अपनी बारी आने का इंतज़ार कर रहे थे. खड़े-खड़े टाँगें दुखने लगी थी, मगर अजगर जैसी लाइन ने कछुऐ की रफ़्तार को भी मात देने की ठान रखी थी. एक स्टूडेंट कई-कई फ़ार्म साथ में जमा कर रहा था जिससे देर हो रही थी. कितने लोग लाइन में लगते? सबके लिए जगह भी तो नहीं थी. भीड़ देख लगता था कि एक कुम्भ यूनिवर्सिटी में भी है जो हर साल फ़ीस काउंटर पर इकठ्ठा होती है. वो अपनी सहेली के साथ मेरे पीछे ही लाइन में थी, मगर इतनी फ़ुर्सत किसे थी कि उसी निहार सके. हाँ ! कनखियों से कई बार देखा था उसे. टिशु पेपर से पसीने से भीगे अपने गाल पोंछती अच्छी लगी थी वो. वो और उसकी सहेली बिना थके जाने कबसे बात किये जा रही थी और साथ में बैंक वाले को उसकी सुस्ती के लिए कोस भी रही थीं. ये तो नहीं जान पाया कि वो किस डिपार्टमेंट की हैं पर उनकी बक-बक से लग गया था कि ये इंजीनियरिंग फैकल्टी की नहीं हैं. जिस्म का वज़न एक पैर से दुसरे पैर पर अदलते-बदलते और पसीना पोंछते आख़िर मेरा नंबर आ ही गया. रुमाल जींस के पीछे वाली जेब में ठूस कर जैसे ही मैंने अपना फ़ार्म और फ़ीस की रक़म टूटी हुई काँच और ग्रिल के बीच में से हाथ घुसा कर अन्दर बढाया, पीछे से किसी ने धक्का दिया और काँच का नुकीला सिरा मेरी कलाई में धँस गया. ख़ून का एक तेज़ फ़व्वारा मेरे फ़ार्म और पैसे को रंगीन करने लगा. दर्द और टीस के बावजूद मैंने डाँटने की नियत से पीछे मुड़ कर उसे देखा मगर जाने क्यूँ उसे कुछ बोल नहीं पाया. ग़लती उसकी नहीं थी. धक्का बेशक किसी और ने दिया था मगर वो अपनी बकबक में न लगी होतीं तो ख़ुद को संभाल लेती और मैं ज़ख़्मी होने से बच जाता. मेरी कलाई ज़ख़्मी होने और ख़ून निकलने की ख़बर ने वहाँ माहौल को थोड़ी देर गरमाए रखा. ख़बर पाते ही पास के बायो-मेडिकल डिपार्टमेंट से एक सीनियर फ़र्स्ट-ऐड का डब्बा ले आये और मेरी पट्टी कर दी. फ़ार्म तो ख़ून में भीग के बेकार हो चूका था और साथ में कुछ नोट भी. उन्होंने नोट वापिस लिए और मेरा हाथ पकड़ कर मुझे मेरे डिपार्टमेंट की तरफ़ छोड़ने के लिए चले. हम जैसे ही वहाँ से मुड़े उसकी सहेली ने धीरे से कहा – “सॉरी”.
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‘तुम कितनी बेहिस हो यार, तुम्हारे मुँह से एक सॉरी तक नहीं फूटा’, हॉस्टल में अपने कमरे में पहुँचते ही वो उस पर बिफर पड़ी.
‘तुम तो बहुत हस्सास हो न, और वैसे भी तुमने तो सॉरी बोल दिया था न फिर मेरे सॉरी बोलने की क्या ज़रुरत थी? फ़ीस की स्लिप फ़ाइल के पॉकेट में लगाते हुए उसने कहा.
‘यार शीन, उसे धक्का तुम्हारी बेध्यानी की वजह से लगा. ये मैं भी मानती हूँ कि उसे धक्का हमने नहीं दिया पर अगर हम गप्प में न लगे होते तो शायद संभल जाते और तब शायद न उसकी कलाई ज़ख़्मी होती और न इतना ख़ून बहता’, उसने उसे इत्मिनान से समझाया.
‘हाँ ये तो है, ख़ैर अपनी ग़लती नहीं होने के बाद भी तुमने तो एपोलोजाईज़ कर दिया न, बहुत है’, दुपट्टे के सिरे को ऊँगली में लपेटते हुए उसने कहा.
‘कोई बहुत-वहुत नहीं है, तुम कल या परसों जब भी उसे देखो उसे सॉरी कह देना. मैनर्स भी कोई चीज़ होती है यार’.
‘पर हम तो उसे जानते भी नहीं, कौन है, किस डिपार्टमेंट का है, किस ईयर का है, कहाँ....’
‘बंद करो अपने बहाने, एलियन नहीं है वो, अपनी ही यूनिवर्सिटी का है. कभी तो कैंटीन या लाइब्रेरी में दिखेगा. वहाँ एपोलोजाईज़ कर लेना बन्दे से. इतना ख़ून बहाने के बाद भी वो चुप रहा, चाहता तो हमें बहुत कुछ कह भी सकता था, लेकिन नहीं कहा. इतनी शराफ़त के बदले एक ‘सॉरी’ का हक़दार तो है ही वो. और...अब मैं सोने जा रही हूँ, तुम्हारा काम निपट जाए तो लाइट ऑफ़ कर देना’.
‘मैं भी सोने जा रही हूँ एलियन की हमदर्द’, वो उसकी नक़ल उतारते हुए बोली और लाइट ऑफ़ करने स्विच बोर्ड की तरफ़ चली गयी.
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उसके दोस्त ने डिपार्टमेंट से उसका बैग उठाया और यूनिवर्सिटी हेल्थ सेंटर से टेटनस की सुई दिलवाकर उसे हॉस्टल छोड़ने आया. दो घूँट पानी के साथ पेन कीलर की गोली देते हुए उसने कहा, ‘तू आराम कर, मैं तेरा फ़ार्म दुबारा भर के हेड से सिग्नेचर करा कर तेरी फ़ीस भरने की जुगाड़ करता हूँ.
‘यार कल लास्ट डेट है, फ़ीस भरने के बाद बाक़ी की फोर्मलिटीज़ भी तो पूरी करनी है और फ़ीस की स्लिप यहाँ हॉस्टल में भी तो जमा करनी है वरना फिर हॉस्टल ख़ाली करना पड़ेगा’.
‘तू क्यूँ टेंशन ले रहा है, हम लोग हैं न, अगर तू लास्ट डेट पर जमा करने की ज़िद नहीं पाले रहता तो हम अपने साथ ही तेरी भी फ़ीस जमा करा देते. ख़ैर...कोई ना, तू आराम कर. मैं तेरा सब काम देख लूँगा’.
‘शुक्रिया यार, तू...’
‘ओये, या तो यार कह ले या शुक्रिया. दोनों के लिए मेरे दिल में जगह नहीं है. अभी मैं जा रहा हूँ, शाम में तेरा एप्पल शेक लेते हुए बाक़ी दोस्तों के साथ आऊँगा’.
‘ठीक है, जाते हुए दरवाज़ा बंद कर देना और लाइट ऑफ़ कर देना, मुझे अब नींद आने लगी है’.
‘ओके ! बाय !’
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उन दिनों मैं 15 अगस्त के लिए एक ड्रामे का डायलॉग लिखने में मसरूफ़ था. चूँकि ड्रामा प्रेमचन्द की लिखी सोज़ेवतन से प्रेरित थी जिसे मैंने दसवीं क्लास में पहली बार लिखा था और उसमें कई जगह काट-छांट कर उसे नए सिरे से दुबारा यूनिवर्सिटी के लिए लिखा था. उस दिन मैं इंडियन कॉफ़ी हाउस के लॉन में बैठा कॉफ़ी की चुस्की लेते हुए अपना लिखा ड्रामा पढ़ रहा था और डायलॉग को दुबारा लिख रहा था तभी ‘क्या मैं यहाँ बैठ सकती हूँ?’ की आवाज़ पर मैंने सर ऊपर उठाया और उसे देखते ही कहा – आप,...’
‘जी, मैं...मैं मनाल ताहिर’, उसने मुस्कुराते हुए सामने पड़ी कुर्सी पर बैठते हुए कहा.
‘आप वहीँ हैं न, जिसने उस दिन सॉरी कहा था जब फीस भरते वक़्त मेरी कलाई ज़ख़्मी हुई थी?’
‘जी हाँ, मैं वही हूँ पर यही तो मेरी पहचान नहीं हुई न, मैंने अपना ख़ूबसूरत नाम भी आपको बता दिया है. तकल्लुफ़ की ज़रुरत नहीं, आप मुझे मनाल कह सकते हैं’.
‘जी बिलकुल, मैंने झेंपते हुए कहा’
‘आप कुछ मसरूफ़ लग रहे हैं शायद?’
‘अरे नहीं, मैं बस एक ड्रामे पे काम कर रहा था कुछ, आप कॉफ़ी पियेंगी?’
‘श्योर ! वैसे आपने जल्दी ख़याल कर लिया, वरना मुझे तो लग रहा था कि आप मुरव्वतन भी नहीं पूछेंगे’
‘रुकिए, मैं आपके लिए कॉफ़ी ले कर आता हूँ’
‘अब मैं इतना भी बेमुरव्वत नहीं, उसे कॉफ़ी देते हुए मैंने कहा’
‘उसने हँसते हुए कहा, मतलब आप थोड़े से बेमुरव्वत हैं?’
‘इस मतलबी और फ़रेबी दुनिया के लिए इंसान को थोड़ा सा बेमुरव्वत होना ज़रूरी है’, पर मैं इतना भी बेमुरव्वत नहीं हूँ जितनी आपकी सहेली हैं. वैसे उन्होंने ज़ख़्म दे के हाल तक नहीं पूछा, मैंने शरारत से कहा’.
‘मेरी सहेली भी बेमुरव्वत नहीं हैं पर थोड़ी रिज़र्व रहने वाली है. जल्दी किसी से बात नहीं करती. मैं भी जल्दी किसी से घुलती मिलती नहीं पर उस दिन के आपके शुक्रिया जो हमें आपने भीड़ में शर्मिंदा नहीं किया.’
‘ग़लती आपलोगों की थी भी नहीं, तो आपलोगों को शर्मिंदा करने का कोई तुक भी नहीं था’
‘मुझे आपकी यही समझदारी तो अच्छी लगी. वरना मैं आज यहाँ आपके साथ बैठी कॉफ़ी नहीं पी रही होती. मैंने शीन से कहा भी था कि जब आप उसे दिखें तो वो आपको ‘सॉरी’ कहे, शायद फिर आप दोनों कभी मिले नहीं होंगे इतने दिनों में’.
‘एक बार एप्लाइड केमिस्ट्री डिपार्टमेंट से लाइब्रेरी जाते हुए दिखी तो थीं वो. क्या नाम बताया था आपने...हाँ शीन’
‘हाँ, उसके डिपार्टमेंट से एप्लाइड केमिस्ट्री होते हुए लाइब्रेरी थोड़ी नज़दीक पड़ती है, इसलिए वो वहीँ से आया-जाया करती है’.
‘किस डिपार्टमेंट में हैं वो और क्या कर रही हैं?
‘वो कंप्यूटेशनल मैथमेटिक्स में मास्टरज़ कर रही है’
‘और आप?’
‘मैं, बैंकिंग एंड फाइनेंस में’
‘मैंने कॉफ़ी का आख़िरी घूँट भरते हुए कहा, बड़े टफ़ से सब्जेक्ट्स ले रखे हैं आपने?
‘वैसे ज़िन्दगी कौन सी आसान है, ख़ैर...आप बताएँ आप क्या कर रहे हैं?’
‘मैं पेट्रोलियम इंजीनियरिंग में एम. टेक कर रहा हूँ’
‘वाव...गुड, और आपको अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई इतना स्पेस देती हाई कि आप लिट्रेचर पढ़ सकें?’
‘नहीं, वक़्त चुराना पड़ता है, अभी फ्लूइड मैकेनिक्स की क्लास छोड़ कर यहाँ अपने ड्रामे के डायलॉग लिख रहा हूँ’
‘ये तो आसमान से टपके, खजूर पर अटके वाली बात हो गयी. बोरिंग क्लास छोड़ कर बोरिंग काम कर रहे हैं आप. वैसे आप लिख कैसे लेते हैं? मुझसे तो दो लाइन भी ना लिखा जाए. पता नहीं मैं एग्जाम में कैसे लिखती हूँ’.
‘मैं वैसे ही लिख लेता हूँ जैसे आप बोल लेती हैं’
‘अब पहली मुलाक़ात में बेइज़्ज़ती तो न कीजिये, वैसे मैं बोलती कम हूँ पर मेरी सहेलियाँ कहती हैं कि जब मैं बोलती हूँ तो फिर नॉन-स्टॉप बोले चली जाती हूँ. मेरी बकबक झेलने के लिए शुक्रिया. अब मैं चलती हूँ. थोड़ी देर में मेरी क्लास होने वाली है. और अब तक तो आपने मुझे अपना नाम ही नहीं बताया?
‘मैं, ख़ुर्रम सिद्दीक़ी, माफ़ कीजिय बातों-बातों में ध्यान ही नहीं रहा कि मैं ख़ुद का तआरूफ़ कराऊँ’
‘लिखने के लिए बहुत कुछ भूलना पड़ता है, यहाँ तक कि अपना नाम भी’. वो मुस्कुराते हुए बाय करती चली गयी और मैं उसकी इतनी मासूम सी मुस्कराहट पर बहुत देर तक ये सोचता रहा कि क्या आज के दौर में भी बिना मिलावट के भला कोई हँसी होती है क्या?
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‘तुम अजीब घामड़ लड़की हो यार, बन्दे से मुलाक़ात हुई और मुझसे ज़िक्र तक नहीं किया. और हाँ ! उसे सॉरी क्यूँ नहीं कहा?’ शाम में हॉस्टल जाते हुए उसने उसे लताड़ा.
‘ओहो...तो उसने चुग़ली भी कर दी मेरी? और मुलाक़ात नहीं हुई कोई उससे. वो तो लाइब्रेरी जाते हुए रास्ते में मिला था और तुम क्या चाहती हो, राह चलते हुए मैं किसी से भी बात करने लगूँ?’
‘वो किसी नहीं है, मेरा दोस्त है. आज ही दोस्ती कर के आ रही हूँ उससे. ICH में कॉफ़ी भी पिलाई उसने तो वहीँ थोड़ी देर बात हुई. चुग़ली नहीं की उसने’
‘वाह...पुराने दोस्तों के लिए तो वक़्त ही नहीं है तुम्हारे पास और नयी दोस्ती गाँठी जा रही है, बढ़िया है मन्नो’.
‘दोस्ती सिर्फ़ दोस्ती होती है, नयी-पुरानी नहीं, समझी’
‘हाएँ...आज इतनी बड़ी-बड़ी बातें, तेरी तबियत तो ठीक है न?’
‘तबियत चंगा है शीन मैडम, आज उस से मिल के आई हूँ न तो थोड़ा लिट्रेचर-लिट्रेचर फ़ील कर रही हूँ. बन्दा पेट्रोलियम इंजीनियरिंग में एम. टेक कर रहा है और ड्रामे, कहानियाँ लिखता है. आज भी किसी ड्रामे के डायलॉग लिख रहा था, जो 15 अगस्त को ऑडिटोरियम में चलेगा, देखने चलेगी न?’
‘जब 15 अगस्त आएगा तब देखा जाएगा. अभी तो मुझे भूख लग रही है. चलो कुछ खा कर आते हैं’
‘मैं तेरी इस आदत से तंग हूँ मोटी, जब देखो टूंगते रहती हो. अब चलो भी कैंटीन’
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हर गुज़रते दिन के साथ उसकी बेरुख़ी मुझे उसके और क़रीब ले जा रही थी. जाने ये दिल की कैसी ज़िद होती है कि ये उसी के लिए धड़का करता है जो कभी इसकी धडकनों पे अपने प्यार की दास्ताँ नहीं लिख सकता. 15 अगस्त के ड्रामे को लेकर मैं उनदिनों बहुत मसरूफ़ था. ड्रामे की स्टोरी के हिसाब से कपड़े, मेकअप सेट, लाइटिंग और साउंड के इंतज़ाम करने थे. माहौल में भी देशभक्ति का एहसास दिखना था, सो इन्हीं सब तैयारियों में इतना मसरूफ़ रहा कि कुछ याद ही नहीं रहा. चूँकि ड्रामे मैंने लिखा था इसलिए टीम से इसके डायरेक्ट करने की ज़िम्मेदारी भी मुझी पर डाल दिया है. इस नई मसरूफ़ियत ने होश से भी बेगाना कर दिया था.
ड्रामा बहुत शानदार हुआ था, सबने बहुत तारीफ़ की. ऑडिटोरियम की खचा-खच भीड़ में मैं उन दो जोड़े आँखों को तलाशने लगा जिनके आने की बहुत उम्मीद थी मुझे मगर नहीं मिली. शायद आई ही ना हों...या भीड़ की वजह से जल्दी निकल गयी हों...या अभी यहीं हों...मुझे नहीं दिख रही हों. दिल हर तरह के सवाल करता और उनके जवाब ख़ुद से तलाशने लगता. कई मर्तबा उसे ढूंढने की कोशिश की मगर इतनी भीड़ में वो दोनों दिखी नहीं, शायद मेरे देखने की ताक़त कम हो गयी थी. उसने कहा तो था आने को...आई ज़रूर होगी. मैं भी तो कितना मसरूफ़ रहा, दुबारा उसे आने को कहा भी नहीं, शायद भूल गयी हो. पर भूल कैसे सकती है...सारी यूनिवर्सिटी तो पोस्टर से अटी पड़ी है. इतनी भीड़ को तो मैंने बुलाया नहीं था, ये सब तो पोस्टर देख के ही आए...फिर वो क्यूँ नहीं आई? ड्रामे के इतिहास रचने की ख़ुशी धीरे-धीरे काफ़ूर होने लगी.
दोस्तों ने टीम मेम्बर ने कॉफ़ी की फ़रमाइश की तो हमसब ICH के कॉफ़ी हाउस की तरफ़ बढ़ गए. कॉफ़ी का आर्डर दे कर हम सब लॉन से थोड़ी दूर बरगद के पेड़ की जड़ों पर बैठ गए और फिर ड्रामे के सीन और डायलॉगस पर बात होने लगी, कभी सीरियस होते कभी ठहाका उबल पड़ता. मैं उन कहकहों से दूर किसी की सोचों में गुम था.
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‘सॉरी मैं आ नहीं पायी थी उस दिन ड्रामा देखने” लाइब्रेरी के न्यू ब्लॉक से निकलते हुए मनाल ने मुझे देख के कहा. मैंने उसकी आवाज़ पर पलट के देखते हुए कहा, ‘अरे आप...मैं सोच रहा था कि पता नहीं कौन, किसलिए सॉरी कह रहा है.’
‘वो...दरअसल शीन को ये सब ड्रामे-प्लेज़ पसंद नहीं सो वो आना नहीं चाहती थी फिर मेरा भी अकेले आने को दिल नहीं किया, अगेन सॉरी’
‘कोई नहीं...सबकी पसंद अलग होती है...पर ये बात मुझे बहुत अजीब लगती है कि लोग फिल्में तो बहुत देखते हैं पर ड्रामे और प्लेज़ नहीं.’
‘ह्म्म्म...आप अपनी प्ले मुझे मेल कर दीजिये, मैं देखने तो नहीं आ पाई पर पढूंगी ज़रूर.’
‘प्लेज़ और कहानी लिखने में बहुत फ़र्क होता है, शायद पढ़ने में आपको मज़ा न आए क्यूँकी प्लेज़ में स्टोरी की तरह फ़्लो नहीं होता. एक ही फ़्रेम में हर किरदार के लिए अलग सीन और उसके हिसाब डायलॉग होता है. फिर भी आप पढ़ना चाहें तो अपमी ई-मेल आई.डी दे दें, मैं मेल कर दूँगा.’
मनाल ने अपना ई-मेल आई.डी लिख के मुझे दिया फिर हम दोनों दो-चार रस्मी बातचीत के बाद सलाम-दुआ करते अपने-अपने काम को निकाल लिए
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सेमेस्टर एक्ज़ाम की तारीख़ आते ही अजब ही गहमा-गहमी का माहौल दिखने लगा. चाय के अड्डे वाली भीड़ लाइब्रेरी में दिखने लगी. इंजीनियरिंग के स्टूडेंट्स साल भर में बस 2 बार वो भी सेमेस्टर के एक्ज़ाम के वक़्त ही पढ़ा करते हैं. मैंने भी अपनी सारी इधर-उधर की मसरूफ़ियत को ताक़ पर रख कर किताबों में खो गया. इस बीच वो भी कई बार लाइब्रेरी में दिखी थी. पढ़ाई का भुत सबको सता रहा था. ठीक-ठाक पेपर निपटाने के बाद मैं विंटर वेकेशन में घर चला गया ताकि अगले और फ़ाइनल सेमेस्टर के लिए ताज़ा दम हो कर आ सकूँ.
घर पे ही था जब मनाल का मेल मिला, लिखा था - ‘मैं भी घर हूँ, आपका प्ले पढ़ा मैंने, आपने सही कहा था कि प्लेज़ पढ़ना और समझना इतना आसान नहीं है. मैंने आधे से भी कम बहुत मुश्किल से पढ़ा है...लिखा तो अपने अच्छा है पर मेरी समझ में नहीं ज़्यादा नहीं आ रहा है. काश कि मैंने अकेले ही आपका प्ले देखने आई होती...काश’
मैंने रिप्लाई किया, ‘काश...मैंने अगले साल भी यूनिवर्सिटी में होता तो आपके लिए ये प्ले फिर से करता...पर इसके लिए मुझे फ़ेल होना पड़ेगा’
दो दिन बाद उसका मेल फिर से आया, ‘कैसे दोस्त हैं आप जो दोस्त के लिए फ़ेल तक नहीं हो सकते? यही दोस्ती है कि दोस्त को अकेले छोड़ के चले जायेंगे?’
मैंने रिप्लाई किया, ‘दोस्ती निभाने के लिए फ़ेल होने की ज़रुरत नहीं होती. यूनिवर्सिटी छोड़ रहा हूँ, दुनिया थोड़े न.’
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यूनिवर्सिटी विंटर वेकेशन के बाद फिर से खुल चुकी थी. लॉन ताज़ा खिले फूलों से गुलज़ार रहते और ऐसे में शीन की गुलाबी मुखड़े की शिद्दत से याद आती. मनाल यूनिवर्सिटी ज्वाइन कर चुकी थी और उसी ने बताया था कि वो अबतक आई नहीं है, शायद नेक्स्ट वीक तक आ जाए. वो दुश्मन-ए-जाँ हर गुज़रते वक़्त के साथ मेरे दिल पर अपना इख्तियार बढ़ाए चली जा रही थी मगर हम दोनों में अबतक बात तक भी न हुई थी. ‘हम उसी के हो गए जो न हो सका हमारा’ के मिसदाक़ मैं उसके इश्क़ के दरिया में डूबता चला जा रहा था मगर उसे ख़बर ही कहाँ थी. कई बार सोचा कि ये बात उसकी सहेली मनाल को ही बता दूँ जो उसतक मेरा पैग़म पहुँचा दे मगर दिल ने इजाज़त नहीं दी.
इस बीच वक़्त अपनी तेज़ रफ़्तार से कहीं ज़्यादा तेज़ी से गुज़रता रहा और एक ही दिन मेरे लिए दो ख़ुशियाँ ले कर आया. पहला, IOCL जैसी टॉप की कंपनी में सेलेक्शन और दूसरी फुलब्राइट फ़ेलोशिप के लिए चुना जाना. इतनी मुश्किल तो मुहब्बत में भी नहीं होती शायद कि ‘उसे भूल जाना है ये उसे याद रखना है’ जितनी अब हो रही थी. नौकरी छोडूँ या फ़ेलोशिप? एक आम इंजिनियर का तो बस यही सपना होता है कि पढ़ाई के बाद जल्दी से कोई अच्छी सी नौकरी मिल जाए. मुझे तो बहुत ज़बरदस्त नौकरी भी मिली थी और दूसरी तरफ़ दुनिया के चौथे नम्बर की ‘स्टेनफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी’ से पीएचडी का मौक़ा भी. दिल और दिमाग़ में मुसलसल कई रोज़ तक एक जंग सा होता रहा.
दोस्तों और घरवालों का कहना था कि जब पीएचडी के बाद जॉब की करनी है तो अभी क्यूँ नहीं? मेरे पीएचडी करने की ज़िद पर बड़े भाई ने कहा था ‘महीने के आख़िर में अकाउंट में एक मोटी रक़म आनी चाहिए बस...चाहे वो टीचिंग जॉब से आये या फील्ड जॉब से, कोई फ़र्क नहीं पड़ता. फ़र्क इससे पड़ता है कि तुम्हारी अकाउंट ख़ाली है या भरी हुई’ और दोस्तों का ये तुक कि ‘दुनिया पैसे को सलाम करती है, जेब में पैसा हो तो सब पूछेंगे वरना कंगाली में तो कुत्ता भी नहीं भौंकता स्साला.’
सबकी जॉब करने के सलाह के बाद भी मैंने पीएचडी करने का सोचा और मेरे इस फ़ैसले से कई दोस्त, भाई और टीचर नाराज़ भी हुए मगर मैंने अपने दिल की सुनी. अमेरिका जाने से पहले सारे दोस्तों को ट्रीट दी. मैं उससे भी मिलना चाहता था. मनाल को मेल भी किया था, वो आने को तैयार भी नहीं मगर सबके साथ नहीं...अलग पार्टी में क्यूँकी उसका कहना था जिसे मैं जानती नहीं उसके साथ मैं कम्फ़र्ट फ़ील नहीं कर पाऊँगी. वैसे भी जब कम लोग होंगे तभी तो हम बात कर पायेंगे वरना मिलने का फ़ायदा क्या? सिर्फ़ पार्टी के नाम पर मिलना मुझे सही नहीं लगता. हमने अलग से एक दिन लंच का प्रोग्राम बनाया मगर ढाक के वही तीन पात. शीन ने नहीं आना था नहीं आई, वजह...मैं उसकी दोस्त तो हूँ नहीं जो उसकी पार्टी में जाउँ.
वो जितना मुझ से दूर-दूर रहती मैं उतना ही उसके क़रीब होता चला जा रहा था...मैं अपनी मुहब्बत में उससे बस उतना ही दूर था जितना उसके आँख और काजल के बीच का फ़ासला था मगर ये दूरी नदी के दो पाटों की तरह थी, जो साथ साथ चलने के बावजूद कभी एक नहीं होते. मैं अपने दिल में उसका प्यार और उसके दिल में अपने लिए दूरी लिए लगभग 7000 किलोमीटर दूर अपने सपने की परछाई को उजाले की रौशनी में देखने की हसरत लिए चला गया.
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लगभग 10 की लम्बी और थका देने वाले सफ़र के बाद मैंने उस ज़मीन पर क़दम रखा जहाँ से मेरे सपने हक़ीक़त के रूप में मेरी आँख में सजने वाले थे. हफ़्ते-दस दिन तक तो एडमिशन, रहने-खाने और दुसरे ज़रूरी इंतज़ाम में निकल गए. यहाँ किसी को किसी के लिए वक़्त नहीं होता, सबकुछ ख़ुद सीखना, समझना और करना होता है. जब ज़रा फ़ुर्सत हुई तो मन्नो को मेल किया. यहाँ की पीएचडी में वक़्त निकालना बहुत ही मुश्किल काम होता है. 5 दिन जैम कर काम...काम...काम और सिर्फ़ काम और बाक़ी दो दिन दुनिया जहाँ की मस्ती, लेकिन ये छुट्टी के दो दिन भी मेरे अपने काम में निकल जाते, कमरे की सफ़ाई करना, कपड़े धोना, खाना बना के फ्रीज़ कर लेना, किताबें पढ़ना और कभी कुछ वक़्त बाख जाए तो घूमने निकल जाना.
सच कहूँ तो पीएचडी के 5 साल मैं अमेरिका में कोल्हू के बैल की तरह जूता रहा...फ़ुर्सत तो जैसे मेरे लिए अजायबघर में रखे किसी क़ीमती चीज़ की तरह तरह था जिसे बस दूर से निहार सकता था, पा नहीं सकता था. बीते 5 सालों में मैंने मनाल को अनगिनत मेल किये...उसके मेल में कभी-कभार उसकी खैरियत मिल जाया करती थी. यूँ तो हम अक्सर और ज़्यादा अपनी ही बातें किया करते थे मगर दिल में एक चोर सा था कि काश वो बिना पूछे उस दुशम-ए-जाँ की भी ख़बर दे दिया करे और वो कभी-कभी मुझ पर मेहरबां हो भी जाती थी.
शीन की मुहब्बत जो इण्डिया में एक चिंगारी के रूप में शुरू हुई थी उसने मेरे वजूद को बहुत जल्द की इश्क़ की अगन के लपेट में ले लिया था मगर उसके लिए-दिए और बेगानेपन के अंदाज़ ने इसपर राख की एक तह बिछा दी थी जो गुज़रते वक़्त के साथ शोला बन चुकी है. हाँ ये सच है कि मैं उसे बेपनाह चाहता हूँ, उसकी तमामतर बेरुख़ी और बे मुरव्वती के बावजूद क्यूँकी मुहब्बत कोई व्यापार नहीं जिसमें दिल के बदले दिल दिया ही जाए. ये वो जज़्बा है जिसमें एक को दुसरे के लिए क़ुर्बान होना ही पड़ता है. जैसे पतंगा शमा की लौ से मुहब्बत का इक़रार सुनने की हसरत में फ़ना हो जाता है मगर अपने इश्क़ के हक़ से दस्तबरदार नहीं होता. मुहब्बत सिर्फ़ पाने का नाम नहीं है, खो देने का नाम भी मुहब्बत है और मुहब्बत की तारीख़ में वही अमर हुआ है जिसने अपने आप को किसी के लिए खो दिया है, पाने वालों के इश्क़ के चर्चे सिर्फ़ चन्द रोज़ होते हैं, वाह-वाहियाँ बस ज़माने के लिए होती हैं मगर किसी की इश्क़ में फ़ना हो जाने की दास्ताँ सदियों तक लोगों ज़ुबां पर दास्ताँ बन कर मचलता रहता है और उनका ग़म गातों और अफ़सानों में ज़िन्दा रहते हैं.
मुहब्बत किसी फ़ॉर्मूले की मोहताज नहीं होती और मेरी मुहब्बत में भी किसी फ़ॉर्मूले की ज़रुरत नहीं थी. हाँ, इतना ज़रूर था कि मुझे उसकी बेरुख़ी से इश्क़ हो गया था. ये ज़रूरी तो नहीं कि इश्क़ सिर्फ़ दिल से हो, बेमुरव्वती और बेरुख़ी भी तो दिल से ही की जाती है सो मैंने उसकी बेरुख़ी पर अपने आप को फ़ना कर दिया था.
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अभी मैं पीएचडी के फाइनल ईयर में ही था कि ब्रिटिश पेट्रोलियम से जॉब की ऑफर हुई और इस बार मैंने किसी को शिकायत का मौक़ा नहीं दिया. आख़िरी साल बहुत मसरूफ़ गुज़रा. पीएचडी सबमिशन और जॉब जॉइनिंग...दम मरने तक की फ़ुर्सत नहीं थी मुझे. ब्रिटिश पेट्रोलियम का ट्रेनिंग शेडयूल इतना सख्त था कि मरने तक की फ़ुर्सत नहीं थी. कभी कभार मनाल से मेल से बात हो जाया करती थी मगर अब उसने भी अब उसकी ख़बर देनी बंद कर दी थी. उसे पता ही कब थी मेरे दिल के कैफ़ियत की. मैं तो बस इश्क़ के अगन और उसकी बेरुख़ी के सहारे ज़िन्दगी के दिन गिन रहा था. लोग मौत के दिन करते हैं, इश्क़ में किसी को हासिल न कर पाना मौत से कम है क्या? पर नाकामी-ए-इश्क़ के जनाज़े में कोई नहीं आता शायद इसे शरियत इजाज़त नहीं देता हो, मगर दिलों पर कब किसका ज़ोर चल पाया है.
ब्रिटिश पेट्रोलियम का एक साल का सख्त ट्रेनिंग शेडयूल था और इस एक साल में उन्होंने लगभग आधी दुनिया तो घुमा ही दी थी. एक पैर तो मानो सफ़र में ही रहता है. जिस देश, जिस नगर भी गया उसके यादों के उसके यादों के निशाँ हमेशा मेरे साथ रहे. मगर एक वो थी अपना दिल तक मेरे नाम से ज़ख़्मी न कर सकी और मैंने दर्जनों देश की फ़िज़ाओं में उसके नाम के हर्फ़ घोल आया था. शायद कभी हवा वो सारे हर्फ़ जो मैंने उसकी याद में फ़िज़ाओं में बिखेरे थे उसके कानों को छु कर मेरा नाम बता जाए, शायद उसे तब भी यक़ीन न हो मेरी चाहत पर. यकीन तो तब हो जब वो मिलती मुझसे, उसने तो दिल तक पहुँचने के सारे रास्ते पहले ही बंद कर दिए थे. पर आँखों के रास्ते दिल में उतरने का हुनर इश्क़ को बख़ूबी आता है और शायद वो मेरी बोलती आँखों के सवालों के जवाब न बन पाने के डर से सामने न आती हो. मैंने भी ख़ुद को वक़्त, हालत और इश्क़ के धारे और तकाज़े पर छोड़ दिया था. बस मुहब्बत की और उसे निभाए जा रहा हूँ बिना किसी बदले की उम्मीद की.
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‘अरे अब उठिए भी...’ किसी ने मेरा कंधा ज़ोर से हिलाया तो मैं चौंक के उठा, देखा तो सामने वही थी. मेरी तो जैसे आवाज़ ही बंद हो गयी थी.
‘आपकी फ्लाइट का वक़्त हो चूका है, कब से आपके नाम की अनाउंसमेंट हो रही है. पहले तो मैंने नाम पर ध्यान नहीं दिया मगर जब ख़ुद के लिए कॉफ़ी लेने आई तो आपको और आपके बाग में लगे ट्रेवलिंग स्लिप से अंदाज़ा लगाया कि फ्लाइट में आपका ही इंतज़ार हो रहा है’ उसका वही पुराना नपा-तुला अंदाज़ था.
दरअसल मैं उसे वेटिंग लाउन्ज में बैठा देख पास के कैफेटेरिया एरिया में कॉफ़ी में चला आया ट्रेनिंग के दौरान कई लोगों से दोस्ती भी हुई जिसमें मेरा ये यूनानी दोस्त भी था. दरअसल ट्रेनिंग के बाद घर जाने की छुट्टी मिली और हम दोनों की फ्लाइट एक ही दिन चन्द घंटे के वक्फे से थी. जब मैं उसे सी-ऑफ कर के आ रहा था तभी उस दुश्मन-ए-जाँ का दीदार हुआ और मैं वक़्त की पुरानी रवीश पर चलने में इतना खो गया कि वक़्त के गुजरने और अपनी फ्लाइट के वक़्त और अनाउंसमेंट का भी होश नहीं रहा.
‘किसी को पा लेने की इतनी ख़ुशी नहीं होती जितना किसी को खो देने का दुःख होता है’ उसे देख के एक हुक सी दिल में उठी, इतना क़रीब हो कर भी हम कितने दूर थे. कोई ख़ास रिश्ता तो था नहीं उसकी तरफ़ से मगर फिर भी उसने मेरे लिए फ़िक्र इतनी फ़िक्र मेरी चाहत की लौ को उम्र भर जलाने के लिए काफ़ी थी. वक़्त ने सात सालों बाद मिलाया था दूरी उतनी ही थी जितनी उसके आँख और काजल के दरमियान पहले थी. वही कजरारे नैन वहीँ गुलाब सा चेहरा बस नहीं था कुछ तो मेरी चाहत की तहरीर. शायद कुछ लोग मिलते ही बिछड़ने के लिए हैं. मैंने अपना शोल्डर बैग कंधे से लटकाया और ट्राली को घसीटते हुए टर्मिनल नम्बर चार की तरफ़ बढ़ चला.
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- © नैय्यर / 12-10-2015

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