Sunday 18 October 2015

नस्ल दर नस्ल तेरा दर्द नुमायाँ होगा

कौन सा दर्द नुमायाँ होगा भई? 1857 में हुए ग़दर के हालात पर सर सैयद अहमद ख़ान ने असबाब-ए-बग़ावत-ए- हिन्द लिखी जिसमें उन्होंने लिखा है कि दिल्ली में बग़ावत की कमान बहादुर शाह ज़फ़र के सँभालने से अँगरेज़ बेहद तैश में थे और उन्होंने मुग़ल सल्तनत के ख़ात्मे की क़सम खा ली। उनका इरादा सिर्फ़ मुग़ल हुक़ूमत की बर्बादी ही नहीं थी बल्कि उनके क़ायम करदा तालीमी निज़ाम को भी दरहम-बरहम करना था। असारुस-सनादीद में सर सैयद ने कई इमारतों का ज़िक्र किया है जिसमें मुग़ल दौर में तालीम की शमा रौशन थी मगर जिसे ग़दर में नेस्तोनाबूद कर दिया गया। ग़दर और बाद के हालात ने सर सैयद को झकझोर कर रख दिया और उन्होंने मुसलमानों में तालीमी बेदारी के लिए 1875 में अलीगढ़ में 'मदरसतुल ओलूम' की बुनियाद रखी जो आगे चल कर 'मोहम्मडन एंग्लो ओरिएण्टल कॉलेज' के नाम से जाना गया और आज पूरी दुनिया में 'अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी' के नाम से जानी जाती है। सर सैयद ने अपनी सारी ज़िन्दगी अपने तालीमी मिशन के लिए वक़्फ़ कर दी और इसके लिए उन्होंने घुँघरू पहनने तक से गुरेज़ नहीं किया। 1875 से 2015 तक इस अज़ीम इदारे ने सैकड़ों नस्लों को तालीम याफ़ता किया है। करोड़ों तालीम याफ़ता लोगों में से सिर्फ़ गिनती के चंद लोग ही सर सैयद के तालीमी मिशन को आगे बढ़ा रहे हैं। ग़ाज़ीपुर में सर सैयद के क़ायम करदा 'साइंटिफ़िक सोसाइटी' को निगल जाने वाली क़ौम अपनी अगली नस्ल में उस दर्द (सर सैयद के तालीमी मिशन) को मुंतकिल करने की बात करती है जो ख़ुद में ही नहीं है। 

सच्चर कमिटी की रिपोर्ट पर पिछली सरकार ने AMU को पाँच ऑफ़ सेंटर दिए जिसमें से आज तक सिर्फ़ तीन (मुर्शिदाबाद, मल्लापुरम और किशनगंज) ही शुरू हो पाये हैं। महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश सरकार सेंटर के लिए ज़मीन देने में सालों से टाल मटोल कर रही है मगर हम कभी इसके लिए एकजुट नहीं हो पाए। अपने नाम के साथ 'अलीग' लिख भर लेने से हम एक हो गए क्या? हम कभी न एक थे न हो पाएँगे। हम हमेशा से बिहारी, आज़मगढ़ी, जौनपुरी, इलाहाबादी, GBS, ककराला, रामपुरी, सहारनपुरी, मेरठी वग़ैरह ही थे और रहेंगे। हम बस S. S. Day डिनर के लिए अलीग बनते हैं। 

हम ये दावा तो करते हैं कि शाम दर शाम तेरी यादों के चराग़ जलाएंगे मगर चराग़ बुझाने वालों में सबसे आगे हम ख़ुद हैं। अलीगढ़ अपनी तहज़ीब, तमद्दुन और रिवायत के जानी जाती थी मगर अब बदतमीज़ी और बेहयाई के लिए जाने जाने लगी है। एक वक़्त था जब यहाँ के तालिब इल्मों के चलने, उठने, बैठने, बोलने के अंदाज़ से लोग समझ जाते थे कि इनकी 'तरबीयत' अलीगढ़ में हुई है। आज ये हाल है कि बताना पड़ता है कि मैंने भी अलीगढ़ से 'पढ़ा' है। पढ़ तो हम-आप किसी भी तालीमी इदारे से सकते हैं मगर तहज़ीब के साँचे में तरबियत हर इदारे में नहीं हो सकती। कल जहाँ बच्चों के लबों पर सलाम और रिवायत हुआ करती थी आज गाली और सिगरेट है। 

साल में एक दिन सर सैयद की तस्वीर को DP बना लेने, शायरी लिख देने से हम उनके हमनवा नहीं हो सकते और ना ही इंक़लाब बपा कर सकते हैं। हम सर सैयद के मिशन से काफ़ी दूर आ चुके हैं। सर सैयद का कहना था कि 'मैं चाहता हूँ कि इस इदारे से पढ़ने वाले बच्चों के दायीं हाथ में क़ुरआन बायीं हाथ में साइंस और सर पर لا الہ اللہ محمد رسول اللہ का ताज हो', आज हम ख़ुद को कटघरे में रख कर सवाल करें कि क्या हमें रत्ती भर भी उनके मिशन का ख़याल है? जिसके दाहिने हाथ में क़ुरआन और माथे पर क़लमा-ए-तौहीद हो क्या वो गाली-गलौच, फ़हश और बेहयाई के रस्ते पर जायेगा? हम अपनी बर्बादी के ख़ुद ज़िम्मेदार हैं। हमसे अपनी एक विरासत संभलती नहीं चले हैं हर शाम उनकी यादों के चराग़ जलाने और नस्ल दर नस्ल उनका दर्द मुंतकिल करने।

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- नैय्यर  / 17-10-2015

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