Wednesday 7 October 2015

कबूतर ख़ाना

‘दीवारों के भी कान होते हैं मगर ज़बान नहीं इसलिए दीवारें इंसानों से बहुत बेहतर और भरोसेमंद राज़दार हुआ करती हैं.’ मेरी यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी की किताबों से सजी रैक इस मामले में बिलकुल भी भरोसे के क़ाबिल नहीं है क्यूँकी तरह-तरह की ढेरों मोटी-पतली, छोटी-बड़ी, नयी-पुरानी किताबों से सजी रैक यूँ तो काम दीवारों वाला ही करती हैं मगर ख़ासियत दीवारों वाली बिलकुल भी नहीं है और मैं चूँकि नॉवेल्स का दीवाना हूँ इसलिए ख़रबूजे को देख कर ख़रबूजे के रंग पकड़ने वाले मुहावरे ने मुझपर काफ़ी असर डाला है और आजकल मैं भी राज़ फ़ाश करने के मामले में लाइब्रेरी की किताबों से सजी रैक से होड़ लगाए बैठा हूँ. इसलिए आपसे गुज़ारिश है कि आप भूल कर भी अपने राज़ मुझ तक न पहुँचने दें वरना आप ख़्वाह-म-ख़्वाह ही मुझपर भरोसा करना छोड़ मुझे चुग़लख़ोर कहने लगेंगे.
मेरी छोड़िये और पिछले दिनों ताज़ा-ताज़ा घटी एक रुदाद सुनिए. मैं लाइब्रेरी की रीडिंग सेक्शन में बैठा ‘सात-फेरे’ पढ़ रहा था कि पास से झींगुर जैसी आती आवाज़ पे कान अटक गया. मैंने अपनी कान को सही जगह पर सही सलामत पा कर सुकून का साँस लिया और झींगुर जैसी आती आवाज़ पे खोजी निगाह दौड़ाई तो ध्यान पास वाली टेबुल के गिर्द रखी कुर्सी पर बैठे जोड़े पर टंग गया. निगाह तो वहीँ टांग निगाह को जब वहाँ अटकाया तो एक अलग ही नज़ारा आँखों के फ़िल्म रील पे चलने लगा. लड़की ने लड़के के पैर पर अपनी सैंडिल से ठोकर मारते हुए कहा, - ‘ये तू कैसे कपड़े पहनता है बे? ऐसा लगता है जैसे कपड़े किसी फूटपाथ से उठा लाया है. और ये तूने जींस किस कलर की पहन रखी है? कम्पनी वालों से इसे कुछ ज़्यादा ही वाश नहीं कर दिया? मुझे देखो, मैं कितनी ब्रांडेड और स्टाइलिश कपड़े पहनती हूँ. मैं अपनी सारी शॉपिंग बड़े-बड़े मॉल के ब्रांडेड शो-रूम से ही करती हूँ और एक तू है कि कपड़े भी पहनने का ढंग नहीं. तुझ से अच्छे कपड़े तो आजकल भंगी पहनने लगे हैं. और तेरे जूते तो ऐसे होते हैं कि मोची उसे मरम्मत करते वक़्त जूते को कम तेरे थोबड़े को ज़्यादा देखता होगा. ख़ुद तो तू लंगूर जैसी शकल का है ऊपर से तेरे में ज़रा भी स्टाइल नहीं, अबे अपनी नहीं तो कम से कम मेरी रेपो का तो ख़याल कर ले. मेरी ज़रा भी तुझे परवाह तो है नहीं और आये दिन शादी के लिए प्रोपोज़ करता रहता है. हुन्ह्ह्हह !’
ऐसी फटी-पुरानी इश्क़ की दास्तान सुन कर भला किस पढ़ाकू का दिल पढ़ने में लगेगा? मैं किताब वापस कर लाइब्रेरी से बाहर निकल आया और लॉन के कोने में खड़े पुराने इमली के पेड़ से टेक लगाए ये सोचने लगा कि रविश कुमार ने क्या सोचकर, क्या देखकर ‘इश्क़ में शहर होना’ लिखा है? मेट्रो शहरों की प्रेम-गाथाएँ ऐसी ही होती हैं क्या? शायद रविश ने शहरों की लाइब्रेरीयों में उगते-बढ़ते प्रेम बेल को नहीं देखा होगा. शहर तो पहले ही कंक्रीट का जंगल बन चूका है. पार्क ऐसे ग़ायब हो गए जैसे लोगों की ज़िन्दगी से अच्छे दिन. बचे-खुचे पेड़-पौधे हारे हुए नाकाम आशिक़ की तरह अपनी इश्क़ की झूटी कहानी पर बदहाली के आँसू बहा रहे हैं. ऐसे में नौवाजन जोड़े जायें तो जायें कहाँ? बैठे तो बैठे कहाँ? विकास के मेट्रो पे सवार शहरों से रिवायती इश्क़ तो पहले ही पानी के घटते जल-स्तर की तरह कम हो गया है, बचे-खुचे इश्क़ को उसकी दिन दुनी-रात चौगुनी बिगड़ती भाषा ने आत्महत्या के लिए मजबूर कर दिया है और 21वीं सदी के इन ना मुराद आशिक़ों ने सड़कों, गलियों, पार्कों, मेट्रो स्टेशनों पर पहले ही क़ब्ज़ा जमाया हुआ था और अब मजनू के रिश्तेदारों ने लाइब्रेरी को भी कबूतर ख़ाना बना दिया है. ऐसे में मुझ जैसे किताबों से इश्क़ बघारने वाले पुराने आशिक़ कहाँ जायें? हमारे लिए तो कोई जगह पहले भी नहीं थी और जो एक जगह यानी लाइब्रेरी आशिक़ों की नज़र से बची रह गयी थी (क्यूँकी आशिक़ों और किताबों की दुश्मनी रोज़-ए-अव्वल से जग जाहिर है) अब वहाँ भी गुटूर गूँ सुनने के अलावा कोई चारा नहीं बचा और विकास के दौर में कबूतरों के जोड़ों का इश्क़ भी महज़ कपड़ों तक ही सिमट कर रह गया है.
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- नैय्यर / 15-09-2015

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