Wednesday, 7 May 2014

"न तो मुझे जीने की आरज़ू है और ना ही मरने की तमन्ना, बस इतनी हसरत है के तुम बात-बे-बात मुझसे रूठती रहो और मैं तुम्हें मनाने के लिए खुदा से सांस उधार मांगता रहूँ. कम से काम खुदा का एहसान तो तुम्हारे आंसुओं के बोझ से काम ही होगा. खुदा के करोड़ों एहसानात के बोझ मैंने बारहा उठाये हैं, पर न जाने क्यों मैं तुम्हारे आंसुओं का बोझ उठाने से क़ासिर हूँ...शायद मुझे तुमसे मुहब्बत हो गयी है,... और खुदा से? खुदा से हम मुहब्बत करते ही कब हैं? उसे तो बस ज़रूरत के वक़्त ही याद करते हैं...जैसे मैं मुहब्बत तुमसे करता हूँ पर सांस उधार मांगते वक़्त खुदा याद आ गया. खुदा खैर करे" - Naiyar

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