Wednesday 21 May 2014

"सिर्फ़ साँस चलने ही को तो जिंदा रहना नहीं कहते न? जिंदा लाशों के फेफड़े भी मरते दम तक वफ़ादारी निभाते हैं. दर-हक़ीक़त इंसान उसी पल मर जाता है जिस पल बे-ऐतबारी सलीब की मानिंद उसके ज़मीर पे ठोक दी जाती है और अपनी बे-गुनाही का सबूत देते देते कई बार मर मर के मरता है. रिश्तों में (से) ऐतबार का ख़ात्मा सिर्फ़ रिश्तों की मौत के वजह नहीं होते बल्कि रिश्तों के दोनों डोर से बंधे इंसानों की भी मौत हो जाती है. ये अलग बात है कि किसके हिस्से में मौत के कितने टुकड़े आते हैं. जिंदा इंसान जब अपनी बेगुनाही साबित नहीं कर पाता तो जिंदा लाशें भला इस मसले का क्या हल देंगी? शायद मौत ही बेगुनाही साबित कर दे. पर क्या बे-ऐतबारी और इलज़ाम देने वालों को मौत कि सच्चाई पे यकीन होगा? जिसे इन्सान की सच्चाई और उसके लफ़्ज़ों की सच्चाई पे ऐतबार नहीं उसे मौत पे भला क्यूँ और कैसे ऐतबार हो जायेगा?" - Naiyar

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