Thursday 24 April 2014

लेकिन

दोपहर की चिलचिलाती धुप में सड़कों पे सन्नाटा फैला हुआ था। थोड़ी-थोड़ी देर में इक्का-दुक्का राहगीर दिख जाते। मैं तेज़ी से साइकिल दौड़ाते स्टेशन की तरफ़ जा रहा था। स्टेशन वाली सड़क शहर की मुख्य सड़क से अलग थी इसीलिए भीड़-भाड़ काम ही हुआ करती है। स्टेशन परिसर में रिक्शे और ताँगे वाले सीट पर सर के नीचे हाथ बिछाये उसके ऊपर गमछा रखे ऊँघ रहे थे। सुचना केंद्र से पता चला कि दोपहर में आने वाली पैसेंजर के आने में अभी काफ़ी वक़्त था क्यूंकि ट्रेन देरी से चल रही थी। 

वक़्त गुज़ारी के लिए मैं प्लेटफार्म पे टहलने लगा। अंग्रेज़ों के ज़माने का पुरानी तर्ज़ का बना ये स्टेशन काफ़ी ख़ूबसूरत है और बड़ा भी। बचपन में अक्सर हम रविवार को स्टेशन का एक चक्कर ज़रूर लगाते और मौसमी फ़ल और फ़ूल चुन के जेब में भर लिया करते थे। जिन जवान पेड़ों पर हम बचपन में धमाचौकड़ी मचाया करते थे वो अब बूढ़े हो चुके थे। झुकी हुई बूढ़ी डालियों में वही प्यार और स्नेह देखने को मिला। दिल तो बहुत मचला पर इस उम्र में अब पेड़ पे चढ़े कौन?

चुनावी मौसम होने के कारण स्टेशन पे पुलिस और सेना के जवानों की गिनती बढ़ गयी है। पहले भी हमेशा कम से कम दर्जन भर पुलिस तो स्टेशन पे रहते ही थे। उनका नहाना-धोना, खाना-पीना, सोना-जागना सब स्टेशन परिसर में ही होता है। उन्हीं पुलिस वालों में एक रघुनन्दन मिश्र भी हैं जो मुझे बचपन से जानते हैं। गाली बहुत बकते हैं, शायद पुलिस में रहने का असर हो, पर इंसान बहुत मस्त हैं। वो दोपहर के खाने के लिए लिट्टी सेंक रहे थे और उनका सहयोगी अपने हाथ से दोगुने सिल पर चटनी पीस रहा था। 

मैं घर से खा के चला था, फिर भी उनके कहने पर दो लिट्टी और चोखा एक प्लेट में ले कर खाया, बहुत स्वादिष्ट था। खाने के बाद मैं प्लेटफार्म के पूरब तरफ़ लगे हैंडपंप पे पानी पीने गया। पानी पी ही रहा था कि देखा पुराने बरगद के पेड़ के पास कुछ लोग एक बूढ़ी अौरत को मार रहे थे। मैं उत्सुकता से उधर गया के देखूँ बात क्या है? उस बुढ़िया का चेहरा जाना-पहचाना लगा। उसके शरीर पे नाम मात्र का कपड़ा था जो कि कई जगह से फटा हुआ था। शकल जानी-पहचानी थी सो मैं मिश्र जी के पास वापस पूरी कहानी जानने पहुँचा। 

मिश्र जी ने जो बताया उसपे यक़ीन करना मुश्किल था, पर सच भी तो वही था। कुम्हारों के टोलों में जो सबसे पहले तीन मंज़िला मकान बना वो उन्हीं का था। पति डाकघर के पेंशन विभाग में बाबू थे। एक बेटा और एक बेटी, छोटा और सुखी परिवार था। बेटी की शादी पाँच साल पहले पड़ोस के जिले में किया था जो शादी के दूसरे ही साल प्रसव के दौरान चल बसी। बाप इसी ग़म में धीरे-धीरे घुलने लगे। बेटे की शादी उन्होंने लगभग सात महीने बाद कर दी कि दिल और तबियत संभल जाए मगर होनी को कौन टाल सकता है। शादी के दो महीने बाद बाप स्वर्ग सिधार गया और बेटे को बाप की जगह अनुकम्पा पर नौकरी मिल गई। ज़िन्दगी की शाख़ पर नयी कोंपल आती इस से पहले बुढ़िया उजड़ गयी। 

उसकी बहु ने अपनी सास पे चुड़ैल होने का इलज़ाम लगाया। ननद और ससुर की मौत का ज़िम्मेदार बता तरह-तरह से सताने लगी। हद्द तो तब हो गयी जब बेटे ने पत्नी की बात मान अपनी ही माँ को बेघर कर दिया। मैंने कहीं पढ़ा था कि "माँ वो अज़ीम हस्ती है जो पागल भी हो जाए तो अपने बच्चों को नहीं भूलती।" 'लेकिन'… बच्चे? जो अपनी माँ को दर-ब-दर रुस्वा करने और पुलिस वालों के जूठन पर मरने के लिए छोड़ दे वो क्या इंसान कहलाने के क़ाबिल है?

मेरा मन बहुत खट्टा हो चूका था। जाना ज़रूरी था सो गया, अँधेरा होने तक वापस भी आ गया। वापसी में मैंने अपनी साइकिल कुम्हारों के टोलों की तरफ़ मोड़ दी। तीन मंज़िला मकान रौशनी से जगमगा रहा था। बाहर बरामदे में वो कमज़र्फ़ अपने डेढ़-दो साल के बच्चे के साथ बैठा किसी बात पे बैठा हँस रहा था। जी तो चाहा कि जा के पूछूँ के किसी माँ को उसके बच्चे से जुदा करके तुम किस हक़ से अपने बच्चे के साथ हँस-बोल रहे हो। पर ये सोच कर क़दम आगे नहीं बढ़ा कि जिसे अपनी माँ का कोई ग़म नहीं उसे मेरी बात से क्या सरोकार। उसकी सोच पर मातम करते हुए मैंने अपनी साइकिल घर की मोड़ दी। 

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© नैय्यर / 25-04-2014

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