Wednesday 11 February 2015

हावड़ा ब्रिज

कभी तुमने हावड़ा ब्रिज से डूबते हुए सूरज का मंज़र देखा है?

हाँ ! बारहा देखा है.

पता, हुगली नदी के सीने पर डूबते सूरज की सिंदूरी चित्रकारी हु-ब-हु वैसी ही लगती है जैसी ‘फेयरवेल’ में तुमने साड़ी पहनी थी. मेरे चेहरे पर पड़ती तुम्हारी ताँत की साड़ी के रेशों से छन कर आने वाली हैलोजन लाइट बिलकुल वैसी ही लगती है जैसे बोटैनिकल गार्डन के घने बरगद से छुप कर झाँकती सूर्य की किरणें.

तुम हुगली में इतना खोये क्यूँ रहते हो?

क्यूँकी मैं कलकत्ता हूँ.

क्या मतलब?

जैसे हावड़ा ब्रिज ने हुगली और कलकत्ता को एक दुसरे से जोड़े रखा है वैसे ही इसने मुझे और तुम्हें भी एक कर दिया है.

इतना न सोचा करो इस शहर को.

क्यूँ?

क्यूँकी मैं नहीं चाहती कि हुगली भी गंगा हो जाए.

क्यूँ भला?

क्यूँकी गंगा को तो सभी पूजते हैं पर मेरी हुगली को इस तरह चाहने वाले तुम अकेले हो. और वैसे भी अब तो तुम दिल्ली में रहते हो. दिल्ली से इश्क़ करो. वहाँ भी तो यमुना के सीने में सूरज अपना वजूद छुपा लेता होगा.

मेरा इश्क़ हरजाई नहीं है जो शहर-दर-शहर बदलता रहे. दिल्ली में इश्क़ तो Red, Yellow, Blue, Orange, Green और Violet लाइन में तक़सीम हो चुका है और हर गुज़रते दिन नए-नए लइनों में तक़सीम हो रहा है. शहर के इस सिरे से उस सिरे तक, इस लाइन से उस लाइन तक, सिर्फ़ लाइन ही नहीं बदलता शहर बदल जाता है, दिल बदल जाते हैं. भीड़ इतनी कि लगता ही नहीं कि दूसरा हाथ भी अपनी ही वजूद का हिस्सा है मगर दिलों की दूरियाँ इतनी पेचीदा, जितनी भारत-पाक का राजनीतिक समीकरण.

तुम इतने जज़्बाती क्यूँ हो?

क्यूँकी सपने को हक़ीक़त, हक़ीक़त को स्टेटस, स्टेटस को मकान, मकान को घर, घर को आशियाना बनाने की हवस के चक्कर में यमुना भी किसी दिन अपना वजूद खो देगी और मुझे मरती नदियाँ पसंद नहीं क्यूंकि मुझे नदियों से वैसा ही इश्क़ है. जैसे मोहनजोदड़ो को सिन्धु नदी से था.

ऐसा नहीं होगा, यक़ीन करो.

किसका और किसपर यक़ीन करूँ? हीर के डूबने के बाद रावी न जाने कितनी बह चुकी. बेशर्म कहीं की. वो भी सरस्वती की तरह डूब क्यूँ न गई?

कम से कम मुझ पर तो यक़ीन करो.

मैं अभी मेट्रो के जिस कोच में सफ़र कर रहा हूँ, उस में मेरे सामने की सीट पर बैठी लड़की अपने टैब पर बहुत देर से अनमने ढंग से खेल रही है. मैं हैंगिंग हैंडल पकड़े खंभे से टिका खड़ा उसे गाहे-बगाहे देख लेता हूँ. उसकी ज़ुल्फें बेतरतीब ढंग से बिखरी हुई हैं और आँखों में बुझता हुआ सा सपना है. कभी वो टैब में गुम हो जाती है तो कभी मोबाइल को तकने लगती है. दर-असल वो अपने ‘उसके’ कॉल का इंतज़ार कर रही है. ये टैब-फ़ोन तो महज़ वक़्त गुज़ारी है. किसी स्टेशन पर चढ़े एक प्रेमी-युगल को देख उसका सपना और बुझ जाता है. वो अपनी तन्हाई, अपने अकेलेपन में इस क़दर गुम है अनाउंसमेंट के बाद भी उसे पता नहीं चला कि उसके स्टेशन का दरवाज़ा किस तरफ़ खुलेगा और तुम कहती हो कि मैं तुम पर यक़ीन करूँ? तन्हाई बहुत अज़ियातनाक और जानलेवा होती है. ये रास्ता भटका देती है. जैसे मेट्रो के एक ग़लत रंग का भटकाव तुम्हें किसी अजनबी शहर में ला पटकेगा. जहाँ तुम्हें चाहने वाले तो हजारों मिलेंगे पर तुम्हरा हाथ थमने वाला कोई न होगा.

मुझे तुम पर यक़ीन तो ख़ुद की ज़ात से भी ज़्यादा है मगर तुम्हारी तन्हाई पर नहीं. मैं भटकना नहीं चाहता और ना ही चाहता हूँ तुम कभी भटक जाओ. मैं नहीं चाहता कि मैं तुम्हारे इंतज़ार में किसी ग़लत रंग का इंतेख़ाब कर लूँ. मैं अपने सही स्टेशन पर सही सिम्त में जाना चाहता हूँ. सुन रही हो न तुम?

हाँ ! उसने मद्धिम आवाज़ और पुर-उम्मीद लहजे में कहा और फ़ोन रख दिया. तभी मेरे कानों में अनाउंसर की आवाज़ गूंजने लगी. दरवाज़े दायीं तरफ़ खुलेंगे. प्लीज़ माइंड द गैप.

~
- नैय्यर / 11-02-2015

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