Sunday, 8 February 2015

ज़याक़ा

यूँ तो हर इतवार को 4 बजे AMU के अब्दुल्लाह हॉल के पुराने गेट और NSS ऑफ़िस के बीच की दूरी सिमट जाती थी. जाने उसकी ढूंढती नज़रों में ऐसा क्या था जो मैं हमेशा की तरह वहाँ वक़्त से पहले पहुँच जाता और उसका इंतज़ार करता रहता. जैसे ही हमारी नज़रें टकरातीं मैं साईकल को पेड़ के हवाले कर अपने बीच की दूरी को क़दमों ज़रब कर देता. GEC के लिटरेरी क्लब में हमारा रोज़ का मिलना था पर वहाँ लगे फ़व्वारे के पास के मुंडेर या पकड़ी के पेड़ की जड़ों पर बैठते वक़्त हमारी उँगलियों के आपस के लम्स या उनके मस्स हो जाने पर वो लज़्ज़त नहीं आ पाती थी जो आमिर निशाँ कि सँकरी सड़क और तंग गलियों से गुज़रते हुए हमारी उँगलियों को एक दुसरे से मुलाक़ात में हासिल होती थी.  

उसे रंग बिरंगे दुपट्टों का बहुत शौक़ था. हर इतवार वो नए डिज़ाइन और सफ़ेद दुपट्टे के साथ मिला करती. सड़क के किनारे रंगरेज़ (Garment Dyers) बड़े-बड़े पतीले में खौलते हुए पानी में तरह तरह के रंग घोलते और सफ़ेद दुपट्टों पर फ़रमाइश के हिसाब से रंग चुन देते. वो नया दुपट्टा और डिज़ाइन दुकानदार के हवाले कर पिछली बार रंगने को दिया दुपट्टा अपने हाथों पर फ़ैला देती. वो रंगों को जाँचती, परखती, दूकानदार से बहस करती और मैं दुपट्टे के नीचे उसके दाहिने हाथ की छोटी ऊँगली की नरमी, गर्मी और गोलईयों को जाँचता रहता. एक अजीब मीठा सा लज़्ज़त होता था उसकी उँगलियों के लम्स का शायद घी के साथ पिघले हुए गुड़ जैसा. रंगरेज़ की दुकानों से चन्द क़दम और आगे दोधपुर और मेडिकल कॉलेज जाने वाली सड़क के तिराहे पर गज़क की दूकान है, जहाँ हम अक्सर सर्दियों में जाया करते थे.

हमें बिछड़े एक अरसा हो गया है मगर उसकी उँगलियों के लम्स और लज़्ज़त अबतक बाक़ी हैं मुझमें. पिछली सर्दियों में उसने गज़क भेजने का वादा किया था, अब तक वो वादा वफ़ा की दहलीज़ तक नहीं पहुँचा. इस बार की सर्दी भी अब रुख़्सत होने होने को है, मगर शायद ही अब गज़क का पार्सल आए. लगता है हमारी दूरी ने उँगलियों के लम्स, रंगरेज़ के रंग और गज़क के मिठास को फीका कर दिया है. बिलकुल उसके होंटों के ज़ायक़े की तरह.

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- नैय्यर / 08-02-2015

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