Tuesday 24 February 2015

फ़ना

वो गुज़रती हुई सर्दियों की एक तीपहर थी. हम दोनों एक दुसरे का हाथ थामे महानदी के किनारे टहल रहे थे. टहलते-टहलते जब थक गए तो उसने अपनी शलवार और मैंने अपने पैंट के पायँचे को पिण्डलियों तक चढ़ाते हुए महानदी के ठंडे पानी में पैर डुबो दिए. सूरज की तपिश धीरे-धीरे कम हो रही थी, वो अपने लाव-लश्कर के साथ डूबने की तैयारी में लगा था. खंडहर हो चुके बाराबती क़िले के बीच वाले बड़े से बुर्ज के पीछे धुंध में गलते सूरज को देखते हुए मैंने उस से कहा –

‘जिस ज़माने में ये क़िला आबाद रहा होगा तो बिलकुल तुम्हारी तरह जवान, ख़ूबसूरत और दिलफ़रेब रहा होगा.’

‘मेरी तरह? ये तुम कैसी अजीब-अजीब सी Comparison करते रहते हो?’

‘हाँ ! बिलकुल तुम्हारी तरह, और ये जो बायीं तरफ़ वाला बुर्ज है न जिसपर डूबते सूरज की वजह से बीच वाले बड़े से बुर्ज की परछाई पड़ रही है, वहाँ से हर सुबह जब सूरज निकलता है तो बुर्ज के पत्थर से टकरा कर किरणें ठीक वैसे ही बिखर जाती हैं जैसे तुम्हारी नाक के कील के नगीने के टकरा कर मेरी नज़रें बिखर जाती हैं.’

‘इन फ़ालतू के Imaginations के सिवा कोई ढंग का काम नहीं है तुम्हें?’

‘है न ! परसों मैं पूरी जा रहा हूँ, वापस अपने काम पर.’

‘परसों ! इतनी जल्दी !! वापस कब आओगे?’

‘मैंने उसके उदास होते चेहरे को तकते हुए कहा, - सेमेस्टर ब्रेक में’.

‘तुम अभी भी स्टूडेंट हो क्या जो तुम्हें यहाँ आने के लिए सेमेस्टर ब्रेक चाहिए?’

‘स्टूडेंट नहीं हूँ पर पढ़ाता तो स्टूडेंट्स को ही हूँ न, मेरी भी मजबूरी को थोड़ा समझा करो’

‘एक सर्द आह भरते हुए उस ने कहा, - क्या तुम रोज़ पूरी बीच पर जा सकोगे?’

‘रोज़ ! मगर क्यूँ?’

‘क्यूँकी ये महानदी तो Bay of Bengal में ही मिलती है न, तो रोज़ तुम वहाँ सागर में अपने पैर डुबोए रहना और मैं यहाँ महानदी में. कम से कम इसी बहाने हम रोज़ मिलते तो रहेंगे.’

‘मैंने मुस्कुराते हुए कहा, - अच्छा ! ऐसा क्या?’

‘हाँ !  जैसे ये महानदी Bay of Bengal में अपना वजूद फ़ना कर देती है ठीक वैसे ही मैं तुम में अपना वजूद फ़ना...’

‘मैंने अपना होंट उसके लबों से लगा दिया और उसके बाक़ी के अलफ़ाज़ पीने लगा. यही मेरा ख़ामोश सा वादा था उस से रोज़ सागर किनारे मिलने का. जैसे महानदी और Bay of Bengal का पानी आपस में मिलकर एक हो जाते हैं वैसे ही हम दोनों के लब मिले और हम एक हो गए. हमारे पैर के अंगूठे एक-दुसरे से झगड़ते रहे और महानदी जो हमारी ख़ामोश मुहब्बत की गवाह थी, चुपचाप हमारे पैरों के नीचे से बहती रही.

~
- नैय्यर / 24-02-2015

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