Monday, 16 February 2015

फ़र्क़

पंजाब मेल स्टील की फ़ौलादी पटरियों पर बल खाती हुई बेधड़क दौड़ी चली जा रही थी. भोपाल से ट्रेन को गुज़रे दस मिनट हो चुके थे. रात का आँचल धीरे-धीरे गहरा काला होता जा रहा था. हम दोनों वातानुकूलित कूपे में अपने-अपने सीट पर लेटे किताब पढ़ने में मग्न थे. मेरे हाथों में  Danielle Steel की Impossible थी तो उसके हाथों में Sidney Sheldon की The Naked Face.

उसने पेज पलटते हुए पूछा, - ‘तो...कैसा लगा बुक फ़ेयर?’ तुम्हारे शहर में तो शायद ही कोई बुक फ़ेयर लगता होगा, है न?

हाँ ! मुम्बई में बुक फ़ेयर कम ही लगा करता है. वैसे, मज़ा आया तुम्हारे शहर का बुक फ़ेयर घूम कर. पर...तुम्हारे शहर की बसें मेरे शहर की तरह नहीं हैं. थोड़ी...

क्यूँ? दिल्ली की बसों में 5 पहिये होते हैं या मुम्बई की बसों में 3 पहिये?

यार, बात तो पूरी सुना करो. सवाल 3 या 5 पहिये का नहीं है. दोनों शहरों की बसों में पहियों की तादाद तो 4 ही होती है. पर...मुम्बई और दिल्ली की बसों में एक बड़ा फ़र्क ये है कि वहाँ बसों में दायीं तरह महिलायों के लिए आरक्षित सीटें होती हैं जब्कि दिल्ली में बायीं तरफ़.

पिछले साल मैं राजस्थान और गुजरात के दौरे पे था तो वहाँ भी मैंने एक अजीब फ़र्क़ महसूस किया था.

वो क्या?

गुजरात में लोग दाल में ढेर सारा शक्कर मिला कर खाते हैं जब्कि राजस्थान में लाल मिर्च. होटलों में खाना परोसने वाले सलाद के साथ पीसी हुई लाल मिर्च की प्याली भी साथ में रख देते हैं .

तुम हर जगह सिर्फ़ फ़र्क़ क्यूँ ढूँढते रहते हो?

पता, तुम्हारे फ़र्क़ और मेरे फ़र्क़ में क्या फ़र्क़ है?

क्या?

यही कि मैं फ़र्क़ को महसूस करता हूँ जब्कि तुम उसे ढूँढना कहती हो.

~
- नैय्यर / 16-02-2015

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