Monday 7 April 2014

***_ सिगरेट _***
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उसने अपने दाहिने हाथ कि
चारों उँगलियों को
एक सिगरेट फंसा, किया
दो हिस्सों में तक़सीम

उँगलियों में फंसा, ताज़ा सुलगा सिगरेट
दूसरे हाथ में दबी माचिस की डिबिया
और होंठों के दोनों क़तरों के बीच से
धुवाँ का उठता ख़ूबसूरत गुच्छा

ये सारा मंज़र देख रहा था ख़ामोशी से
छत के दूसरे कोने को फलांग कर उग आया
एक पुराना सा अधनंगा पेड़
जिसका सबकुछ लूट लिया था पतझड़ ने

मैंने भी बस कुछ पल देखा उसको
चश्मे ने आँखों को ले रखा था ओट में
होंटों से लिपटी पड़ी थी गीली मुस्कान
और शाम ने जमा लिए थे डेरे गलों पे

मेरी नज़र ने जाना उसको जितना
उतने में कोई दुःख का साया नज़र न आया
जाने फिर भी क्या कुछ भरा था उसके अंदर
जिसे वो क़िस्तों में फूंक देना चाहती थी

मैं कब से एक सिगरेट लिए हाथों में
खेल रहा हूँ ख्यालों से और सोच रहा हूँ
जाने उसके अंदर ऐसा क्या था जो फूंक दिया
जाने उसने कैसे सारा ज़हर उतरा सीने में

~

© नैय्यर / 06-04-2014

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