***_ उम्र-ए-रवाँ _***
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जाने क्यूँ ये उम्र-ए-रवाँ
मेरे ख्वाबों के दरीचे
से निकल के
मेरी यादें,
मेरे गुज़रे हुए लम्हात को
इक मानूस सी ख़ुश्बू
में बसा कर
हर रात मेरे सिरहाने
सजा जाती है
और उसी ख़ुश्बू की
बदौलत
मेरी यादें दबे पाँव
निकल पड़ती हैं
पेचीदा सी उन गलियों
में चहलक़दमी को
जिनमें बिखरे पड़े
हैं मेरे अनगिनत लम्हात
दरअसल, ये लम्हात नहीं मेरे ज़खीरे हैं
हाँ ! मैंने वक़्त
की गुल्लक में छुपाये हैं कुछ लम्हे
ये वो लम्हे हैं जिसे
मैंने जिया है ख़र्चा नही
और जिनका मेरी उम्र-ए-रवाँ
में कोई चर्चा नहीं
हो भला चर्चा क्यूँकर
वक़्त कि रेज़गारी का
ये ज़िन्दगी है किसी
इम्तहान का पर्चा नही
उन्ही लम्हों में
हैं मेरा बचपन, मेरी हंसी,
मेरी शरारत, मेरी तितली
मेरे आँसू,
मेरे खिलौने और खिड़की के नीचे से गुज़रती वो पतली
गली
वो गली जो जा के मिलती
रही मुख्तलिफ़ शहर के बेरंग सी सड़कों से
और ये दुनिया मुझे
शहर-दर-शहर यूँ ही पटकती रही
और ये उम्र-ए-रवाँ
चुपचाप मेरे गुल्लक में सरकती रही
उसी गुल्लक की सुनसान
सी अँधेरी गली से आज
इक लम्हा निकल के
यूँ उलझा ज़ुल्फ़ों के पेचो ख़म में
जैसे मेरी ज़िन्दगी
गिरवी हो किसी महाजन के यहाँ
और जिसका सूद रोज़-ब-रोज़
मेरे क़द से बढ़ा जाता है
और रेत की तरह उम्र
मेरी मुठ्ठी से गिरा जाता है
~
© नैय्यर / 02-04-2014
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