Tuesday 22 April 2014

ऐतबार

उसे गए हुए डेढ़ दिन से ज़्यादा हो गए थे मगर न पहुँचने की ख़बर उसने दी न वापस आने की। हालाँकि काम क्या था उसने मुझे बताया भी नहीं था मगर मैंने अपने अंदाज़े से जितना जाना उस हिसाब से उसे रात दस बजे तक तो वापस आ ही जाना चाहिए था। सफर भी ज़्यादा लम्बा नहीं था। तीन-चार घंटे ट्रेन में और एक-डेढ़ घंटे बस में। और काम, मेरे हिसाब से तो तीन-चार घंटे से ज़्यादा का हो नहीं सकता। सुबह छह बजे के क़रीब उसने ट्रेन पकड़ी होगी और अब इतना वक़्त गुज़र जाने के बाद भी जाने क्या बात थी कि कोई संदेसा ही नहीं आया। 

वो हमेशा से लापरवाह है। लापरवाह कहूँ या अनापरस्त? जो भी हो, पर उसके अंदर अना कूट-कूट के भरी हुई है। न जाने ऊपर वाला सारे ऊँचे नाक वालों को मेरी ही ज़िन्दगी में क्यों भेज देता है? सभी के ऊँचे नाक का भरम रखने के चक्कर में मैं कितना मजरूह हुआ किसी को जानने की फुर्सत ही नहीं रहती। रोज़ एक क़तरा जीता हूँ तो एक टुकड़ा मरता हूँ। क़तरे और टुकड़े के गणित का ये घाटा शायद मेरे मरने पे ही पूरा हो। जाने ये मैंने कैसा रोग पाला है जिसमें नुकसान हमेशा मैंने उठाया है पर परवाह किसे है। 

मैं भी तो डेढ़ दिन में ही घबरा गया। क्या करूँ, हमेशा इसी दिल की वजह से उसकी महफ़िल में रुस्वा हुआ और उसे ये सब छलावा लगता है। पिछली दफ़ा पुरे पंद्रह दिन तक सन्नाटा पसरा रहा और उसके पहले पैंतालीस दिन तक मौत जैसी तवील ख़ामोशी। अगर सिर्फ़ साँस चलने को ही ज़िंदा रहना कहते हैं तो हाँ, मैं ज़िंदा था मगर सिर्फ़ उसे सोचने की वजह से। लड़ाइयाँ कौन से रिश्ते में नहीं होती? मगर कोई ख़ामोशी की चादर तो नहीं ओढ़ लेता? होंठों को 'चुप' के लेप से कड़वा तो नहीं करता। पिछले साठ दिन जो मैंने दिल पे गिरह बाँध रखे हैं उनमें से पैंतालीस दिन तक मैंने उसे मनाने में जितने लफ़्ज़ ज़ाया किये हैं उतने लफ़्ज़ों में मेरे कई नॉवेल छप जाते मगर फिर भी चुप के सन्नाटे में कोई आवाज़ नहीं गूँजी। मेरे पास अब ख़रचने को लफ़्ज़ बचे ही नहीं थे सो पिछले दफ़ा के पंद्रह दिन मैंने चुपचाप गुज़ारे। मुझसे मेरी ख़ामोशी का हिसाब माँगा जाता है पर ख़ुद हिसाब देने को तैयार नहीं। जैसे मैं उनकी सलतनत का बँधुआ मज़दूर हूँ और वो मेरी साँसों पे हुक़ूमत करने वाले। 

जाने वो मेरी कौन सी अदा है जिसने मुझे उसकी नज़रों में मश्कूक बना दिया है। शक का नाग हमेशा उसके दिमाग़ में मेरा नाम आते ही फुंफकारने लगता है। बारहा मैंने सफाई दी मगर उसके दिल की क़दूरत मेरे लिए बढ़ती ही गयी। शायद सफाई देना ही सबसे बड़ी ग़लती थी मेरी। जिसे मुझ पे भरोसा नही उसे भला मेरे लफ़्ज़ों पे क्या ऐतबार... मगर मैं अपने दिल का क्या करूँ जो उसके नाम के ताल पे ही थिरका जा रहा है। शायद इसे ही मुहब्बत कहते हैं, जो धुत्कार देता है उसे ही अपनी जागीर नीलम कर देता है ये दिल। 

लगभग पैंतालीस घंटे के बाद, मेरे संदेसे के नौ घंटे बाद ही सही उनका संदेसा आया - "मुझे याद करने के लिए ढेर सारा आभार, आने की ख़बर देते लेकिन सोचा के देखूं लोगों को मेरी याद कब आती है"। ये 'आभार' तब से मेरे दिल पे बोझ की तरह पड़ा हुआ है। जिसके इंतज़ार में मैंने एक-एक पल मर-मर के जिया उसे इतना भी यक़ीन नहीं कि मैंने उसे याद किया होगा। सितमगर! ऐतबार की जिस सीढ़ी को रौंद कर तुम बे-ऐतबारी की मंज़िल पर पहुँचे हो मैं उसी सीढ़ी के पहले पायदान पर उम्र के आख़िरी पड़ाव तक तुम्हारे लौट आने का इंतज़ार करूंगा। 

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© नैय्यर / 23-04-2014

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