***_ कहानी / चाशनी _***
=================
सुबह-सुबह अख़बार वाले ने अख़बार फ़ेंका और उसने बम। रोज़ की यही कहानी थी। जैसे ही बरामदे में अख़बार गिरने की आवज़ आती, किचन से उसके बम के गोले चलने चालू हो जाते। ये सिलसिला पिछले दस सालों से जारी था। मुझे न जाने अख़बार पढ़ने का ऐसा क्या जुनून था कि बिना सारे पेज इत्मीनान से पढ़े ऐसा लगता ही नहीं था कि मैंने अख़बार पढ़ा है। जितनी देर तक मैं ख़बरों को चाटता रहता वो लगातार किचन से मेरा मनपसंद नाश्ता तैयार करते हुए तेज़ आवाज़ में बड़बड़ाये जाती।
कॉलेज के दिनों में उसे मेरे पढ़ने की यही आदत बहुत पसंद थी। हालाँकि, मैं ज़्यादा क़ाबिल और पढ़ने में तेज़ तो नहीं था मगर कोर्स के अलावा भी पढ़ने की आदत न जाने कब और कहाँ से मुझे लग गयी थी। रात को जब तक किसी किताब के दो-चार पन्ने न पढ़ता नींद ही नहीं आती थी। क्लासेज बँक करके जब सारे यार-दोस्त कैंटीन की ख़ुशगप्पियों में मशग़ूल रहते मैं लाइब्रेरी में किसी न किसी किताब को चाटने में लगा रहता। निर्मला, आग का दरिया, माँ, आनंदमठ, गोदान, हाथ हमारे क़लम हुए, मैला आँचल, अंगूठे का निशान, कस्तूरी कुण्डल बसे इत्यादि उन्हीं वक़्तों में मैंने पढ़े थे। कॉलेज के सालाना जलसे में जब मैं बोलता तो बड़े-बड़े साहित्यकारों की बातों को भी उसमें जोड़ता और वो उन बातों से मेरी बेख़बरी में ही प्रभावित होती रही।
हमारे कॉलेज के ज़माने में लड़के-लड़कियों की दोस्ती थोड़ी-बहुत आम हो चुकी थी मगर सिर्फ कॉलेज की चारदीवारी तक ही। कॉलेज के बाहर जैसे सब एक दूसरे के लिए अजनबी से थे। कहीं किसी मोड़ पे टकरा जाने पर भी सिर्फ आँख चौड़ी करते, दूसरे पल आँख झुका अपनी-अपनी राह पकड़ पकड़ लेते। कॉलेज के मैगज़ीन में मेरी एक लम्बी कविता 'प्रेम' छपी। उसे मेरे जैसे विद्रोही व्यक्ति से ऐसे किसी विषय पर लिखने की क़तई आशा नहीं थी। उसने वो कविता पढ़ी, और अगले दिन मुझे एक छोटा सा नोट पकड़ा दिया। मैंने नोट पढ़ा। मुझे उस से ये आशा नहीं थी की वो जज़्बातों को समझने में इतनी माहिर है। मैं तो उसे बस कैंटीन में हो-हल्ला करने वाली बहुत सी लड़कियों में से एक लड़की मानता था। लड़कियों में ये गुण शायद जन्मजात होता है। नोट के बदले मैंने भी उसे एक नोट शुक्रिये के साथ पकड़ा दिया जो नोट तो क़तई नहीं था, अलबत्ता ख़त ज़रूर कहा जा सकता है उसे।
बस, उस दिन के बाद से ख़तों का सिलसिला किताब की लेन-देन के साथ बढ़ने लगा। उसे गोर्की की माँ पसंद नहीं आई। कहने लगी की रुसी क्रांति और एक क्रन्तिकारी माँ-बेटे की कहानी मेरे पल्ले नहीं पड़ती, जाने तुमने कैसे पढ़ा। मैंने कहा की मैंने उस क्रन्तिकारी लड़के की जगह खुद को रख के पढ़ा, तुम भी कोई किरदार ढूँढ लो अपने मुताबिक़ फिर तुम भी समझ पाओगी इस कहानी को। कहने लगी कि मैं जब माँ बनूँगी तो ख़ुद को माँ कि जगह रख के फिर से पढूंगी, और आज गोर्की कि माँ उसकी पसंदीदा किताबों में से एक है। उस दिन मैंने उसे राजिंदर सिंह बेदी कि कहानी 'अपने दुःख मुझे दे दो' पढ़ने को दी।
जाने उस कहानी का उसपे क्या असर हुआ कि अगले दो दिन वो कॉलेज ही नहीं आई। जब तीसरे दिन आई तो लेक्चर हाल के पीछे अमलतास के पुराने पेड़ के पास चलने को कहने लगी। हम दोनों ने वहाँ तक साथ-साथ मगर ख़ामोशी से सफर किया। अमलतास से पीले फूल हरे घास पे बिखरे वजूद का ही हिस्सा लग रहे थे। मैंने पेड़ के तने से ख़ुद को टिकाते हुए कहा - बोलो क्या बात है? मेरे ठीक सामने बैठते हुए उसने चुपचाप एक लम्बा ख़त थमा दिया और ख़ुद फूल चुन खेलने लगी मगर उसकी निगाह मेरे चेहरे पर ही जमी थी, जिसमें उस दो दिन की ग़ैरहाज़री की सारी रूदाद लिखी थी और भी बहुत कुछ था। सबसे बड़ी बात ये कि वो अपनी बाक़ी की ज़िन्दगी मेरे साथ बाँटना चाहती थी। ख़त मैंने बहुत ख़ामोशी से पढ़ा, हाँ कुछ जज़्बात भले ही चेहरे ने उजागर कर दिए हों पर मैंने कुछ नहीं कहा।
मेरी ख़ामोशी उसे शायद बहुत खल रही थी। झुंझलाते हुए उसने कहा कुछ तो बोलो। मैंने कहा - मेरे साथ निबाह कर पाओगी? मुझे किताबों से अज़ीज़ कोई नही, दोस्त-यार, नाते-रिश्तेदार भी नहीं। उसकी हाँ ने मेरा ढेरों ख़ून बढ़ा दिया। मैं कहाँ आम से शकल का मामूली सा लड़का और कहाँ वो ख़ूबसूरती का मुजस्समा। मैं नाते-रिश्तेदार को किसी गिनती में लाता नही था और घरवालों ने मेरे निकम्मेपन की वजह से मुझ से राब्ता ही न रखा था। उसके घर में थोड़ा हो-हल्ला, हाय-तौबा मचा पर लड़की की ज़िद की वजह से सब मान गए।
एक ख़ूबसूरत शाम वो बहुत सजी-धजी मेरी बेरंग ज़िन्दगी में बहार ले के आ गयी। शुरू-शुरू में तो मैं उसे ही पढ़ता। उसके चेहरे पर ऊँगली की पोरों से नज़्म लिखता। होंठों की नमी ऊँगली से बोर उसकी कमर पे अपना नाम लिखता। पर, मैं शायर तो था नहीं, जल्दी इस इस रूमानी दुनिया से मेरा हुक्का-पानी उठा गया, मैं फिर से अपनी किताबों में गुम हो गया। हालाँकि मैं उसे ढेर सारा वक़्त देता मगर उसने तो मेरी किताबों, मेरे पढ़ने-लिखने को अपना सौतन समझ लिया था।
हम रोज़ सुबह नाश्ते की टेबल पर लड़ते पर हर रोज़ हमारा प्यार और गहरा होता जाता। वो दिल की बुरी नहीं है, उसके गोले-बारूद सिर्फ तभी चलते हैं जब मैं पढता हूँ। वरना यूँ तो घर में ख़ामोशी पसरी रहती है। मुझे ख़ामोशी पसंद नहीं, मुझे उसका बोलना बोलना पसंद है और मैं दिल के न चाहने के बावजूद भी किताब ले के बैठ जाता हूँ और उसकी बमबारी शुरू हो जाती है। मैंने उसे ये बात कभी बताना ही नहीं चाहता की जितनी मिठास तुम्हारी बमबारी में है उतना मीठा तो शहद भी नहीं है। बस रोज़ सुबह अख़बार के गिरने से जो आवाज़ होती है उसी के साथ हमारे रिश्ते की चाशनी उसके होंटों से टपकने लगती है। सबकुछ कह जाना ही तो प्यार नहीं होता न? प्यार तो सिर्फ एहसास है जिसे महसूस किया जा सकता है। कह देने से बहुत से लफ्ज़ अपनी तासीर खो देते हैं और मैं अपनी मुहब्बत के ज़ायक़े का कोई भी तासीर खोना नहीं चाहता।
~
© नैय्यर /16-04-2014
=================
सुबह-सुबह अख़बार वाले ने अख़बार फ़ेंका और उसने बम। रोज़ की यही कहानी थी। जैसे ही बरामदे में अख़बार गिरने की आवज़ आती, किचन से उसके बम के गोले चलने चालू हो जाते। ये सिलसिला पिछले दस सालों से जारी था। मुझे न जाने अख़बार पढ़ने का ऐसा क्या जुनून था कि बिना सारे पेज इत्मीनान से पढ़े ऐसा लगता ही नहीं था कि मैंने अख़बार पढ़ा है। जितनी देर तक मैं ख़बरों को चाटता रहता वो लगातार किचन से मेरा मनपसंद नाश्ता तैयार करते हुए तेज़ आवाज़ में बड़बड़ाये जाती।
कॉलेज के दिनों में उसे मेरे पढ़ने की यही आदत बहुत पसंद थी। हालाँकि, मैं ज़्यादा क़ाबिल और पढ़ने में तेज़ तो नहीं था मगर कोर्स के अलावा भी पढ़ने की आदत न जाने कब और कहाँ से मुझे लग गयी थी। रात को जब तक किसी किताब के दो-चार पन्ने न पढ़ता नींद ही नहीं आती थी। क्लासेज बँक करके जब सारे यार-दोस्त कैंटीन की ख़ुशगप्पियों में मशग़ूल रहते मैं लाइब्रेरी में किसी न किसी किताब को चाटने में लगा रहता। निर्मला, आग का दरिया, माँ, आनंदमठ, गोदान, हाथ हमारे क़लम हुए, मैला आँचल, अंगूठे का निशान, कस्तूरी कुण्डल बसे इत्यादि उन्हीं वक़्तों में मैंने पढ़े थे। कॉलेज के सालाना जलसे में जब मैं बोलता तो बड़े-बड़े साहित्यकारों की बातों को भी उसमें जोड़ता और वो उन बातों से मेरी बेख़बरी में ही प्रभावित होती रही।
हमारे कॉलेज के ज़माने में लड़के-लड़कियों की दोस्ती थोड़ी-बहुत आम हो चुकी थी मगर सिर्फ कॉलेज की चारदीवारी तक ही। कॉलेज के बाहर जैसे सब एक दूसरे के लिए अजनबी से थे। कहीं किसी मोड़ पे टकरा जाने पर भी सिर्फ आँख चौड़ी करते, दूसरे पल आँख झुका अपनी-अपनी राह पकड़ पकड़ लेते। कॉलेज के मैगज़ीन में मेरी एक लम्बी कविता 'प्रेम' छपी। उसे मेरे जैसे विद्रोही व्यक्ति से ऐसे किसी विषय पर लिखने की क़तई आशा नहीं थी। उसने वो कविता पढ़ी, और अगले दिन मुझे एक छोटा सा नोट पकड़ा दिया। मैंने नोट पढ़ा। मुझे उस से ये आशा नहीं थी की वो जज़्बातों को समझने में इतनी माहिर है। मैं तो उसे बस कैंटीन में हो-हल्ला करने वाली बहुत सी लड़कियों में से एक लड़की मानता था। लड़कियों में ये गुण शायद जन्मजात होता है। नोट के बदले मैंने भी उसे एक नोट शुक्रिये के साथ पकड़ा दिया जो नोट तो क़तई नहीं था, अलबत्ता ख़त ज़रूर कहा जा सकता है उसे।
बस, उस दिन के बाद से ख़तों का सिलसिला किताब की लेन-देन के साथ बढ़ने लगा। उसे गोर्की की माँ पसंद नहीं आई। कहने लगी की रुसी क्रांति और एक क्रन्तिकारी माँ-बेटे की कहानी मेरे पल्ले नहीं पड़ती, जाने तुमने कैसे पढ़ा। मैंने कहा की मैंने उस क्रन्तिकारी लड़के की जगह खुद को रख के पढ़ा, तुम भी कोई किरदार ढूँढ लो अपने मुताबिक़ फिर तुम भी समझ पाओगी इस कहानी को। कहने लगी कि मैं जब माँ बनूँगी तो ख़ुद को माँ कि जगह रख के फिर से पढूंगी, और आज गोर्की कि माँ उसकी पसंदीदा किताबों में से एक है। उस दिन मैंने उसे राजिंदर सिंह बेदी कि कहानी 'अपने दुःख मुझे दे दो' पढ़ने को दी।
जाने उस कहानी का उसपे क्या असर हुआ कि अगले दो दिन वो कॉलेज ही नहीं आई। जब तीसरे दिन आई तो लेक्चर हाल के पीछे अमलतास के पुराने पेड़ के पास चलने को कहने लगी। हम दोनों ने वहाँ तक साथ-साथ मगर ख़ामोशी से सफर किया। अमलतास से पीले फूल हरे घास पे बिखरे वजूद का ही हिस्सा लग रहे थे। मैंने पेड़ के तने से ख़ुद को टिकाते हुए कहा - बोलो क्या बात है? मेरे ठीक सामने बैठते हुए उसने चुपचाप एक लम्बा ख़त थमा दिया और ख़ुद फूल चुन खेलने लगी मगर उसकी निगाह मेरे चेहरे पर ही जमी थी, जिसमें उस दो दिन की ग़ैरहाज़री की सारी रूदाद लिखी थी और भी बहुत कुछ था। सबसे बड़ी बात ये कि वो अपनी बाक़ी की ज़िन्दगी मेरे साथ बाँटना चाहती थी। ख़त मैंने बहुत ख़ामोशी से पढ़ा, हाँ कुछ जज़्बात भले ही चेहरे ने उजागर कर दिए हों पर मैंने कुछ नहीं कहा।
मेरी ख़ामोशी उसे शायद बहुत खल रही थी। झुंझलाते हुए उसने कहा कुछ तो बोलो। मैंने कहा - मेरे साथ निबाह कर पाओगी? मुझे किताबों से अज़ीज़ कोई नही, दोस्त-यार, नाते-रिश्तेदार भी नहीं। उसकी हाँ ने मेरा ढेरों ख़ून बढ़ा दिया। मैं कहाँ आम से शकल का मामूली सा लड़का और कहाँ वो ख़ूबसूरती का मुजस्समा। मैं नाते-रिश्तेदार को किसी गिनती में लाता नही था और घरवालों ने मेरे निकम्मेपन की वजह से मुझ से राब्ता ही न रखा था। उसके घर में थोड़ा हो-हल्ला, हाय-तौबा मचा पर लड़की की ज़िद की वजह से सब मान गए।
एक ख़ूबसूरत शाम वो बहुत सजी-धजी मेरी बेरंग ज़िन्दगी में बहार ले के आ गयी। शुरू-शुरू में तो मैं उसे ही पढ़ता। उसके चेहरे पर ऊँगली की पोरों से नज़्म लिखता। होंठों की नमी ऊँगली से बोर उसकी कमर पे अपना नाम लिखता। पर, मैं शायर तो था नहीं, जल्दी इस इस रूमानी दुनिया से मेरा हुक्का-पानी उठा गया, मैं फिर से अपनी किताबों में गुम हो गया। हालाँकि मैं उसे ढेर सारा वक़्त देता मगर उसने तो मेरी किताबों, मेरे पढ़ने-लिखने को अपना सौतन समझ लिया था।
हम रोज़ सुबह नाश्ते की टेबल पर लड़ते पर हर रोज़ हमारा प्यार और गहरा होता जाता। वो दिल की बुरी नहीं है, उसके गोले-बारूद सिर्फ तभी चलते हैं जब मैं पढता हूँ। वरना यूँ तो घर में ख़ामोशी पसरी रहती है। मुझे ख़ामोशी पसंद नहीं, मुझे उसका बोलना बोलना पसंद है और मैं दिल के न चाहने के बावजूद भी किताब ले के बैठ जाता हूँ और उसकी बमबारी शुरू हो जाती है। मैंने उसे ये बात कभी बताना ही नहीं चाहता की जितनी मिठास तुम्हारी बमबारी में है उतना मीठा तो शहद भी नहीं है। बस रोज़ सुबह अख़बार के गिरने से जो आवाज़ होती है उसी के साथ हमारे रिश्ते की चाशनी उसके होंटों से टपकने लगती है। सबकुछ कह जाना ही तो प्यार नहीं होता न? प्यार तो सिर्फ एहसास है जिसे महसूस किया जा सकता है। कह देने से बहुत से लफ्ज़ अपनी तासीर खो देते हैं और मैं अपनी मुहब्बत के ज़ायक़े का कोई भी तासीर खोना नहीं चाहता।
~
© नैय्यर /16-04-2014
No comments:
Post a Comment