Saturday 12 April 2014

***_ गुलज़ार (Gulzar) के नाम _***
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पिछली सदी के बचाये हुए मैंने अपने कुछ लम्हे
अपनी यादों से उखाड़ बो दिए थे उनकी आँखों में
महक रहे हैं उनकी गीली आँखों में वो सभी
मिलती रही रिश्तों को नमी उनकी पनीली आँखों से
और खाद मेरे उलझे हुए बे-रब्त ख्यालों से 



कल रात चाँद से तुम्हारे जिस्म पे कुछ लकीरें उकेरीं
तो कुछ लकीरें घट-बढ़ गयीं जैसे मैं और तुम
कतरने के लिए उन्हीं घटाव-बढ़ाव को
मैंने कुछ लम्हे को दाँतो तले दबाया चाँद को
और अबतक चिपका हुआ है 'कुछ' मेरे होंठों से


अब तक उसी मोड़ पे खड़ी है रात चुपचाप अकेली
जहाँ लैंप पोस्ट के नीचे मैंने तुम्हारी आँख चखी थी
हर अमावस पे जवाँ हो जाती है उस ज़ायके की टीस
उस ज़ायक़े की एक परत तुम्हारी थी और एक मेरी
तुमने दोनों ले रक्खा है, एक भिजवा दो जो मेरी हो


याद है तुमको सावन की वो कच्ची सुबह
खोज रहे थे गीली मिटटी पे रात की आहों के निशान
मैं अपने पैरों से बनाता रहा तुम्हारे क़दमों के निशान
और तुम मेरी पीठ पे लदी मेरे काँधे के जुड़वाँ तिल से खेलती रही
आज तक तुम्हारे हिस्से का तिल तम्हारे लम्स के इंतज़ार में है


पिछले बसंत के कुछ फूल अब भी रखे हैं मेज़ पे
जो ख़त में लिपटे सूख गए हैं पर लफ्ज़ अभी ताज़ा हैं
और बहुत कुछ ताज़ा है इस सीने में जहाँ तुम हो
जाने कौन सा सावन है जो सुलग रहा है मेरे अंदर
शायद तुम्हारी आँखें बरस रही हैं मेरे अंदर


~
© नैय्यर / 12-04-2014


(गुलज़ार साहब को 'दादासाहब फाल्के पुरस्कार'- 2013 के लिए चुने जाने पर मेरी तरफ से मेरी अधकचरी रचना उनके नाम, जो कहीं से रचना कहलाने लायक नहीं है। शायद उनके नाम से जुड़ने पर मेरे लफ़्ज़ों की तक़दीर बदल जाए)

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