***_ आताताई _***
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अभी तक गूंज रही है
कानों में आदमखोर की हुँकार
अभी तक रिस रही हैं
आँखों से लहू-लहू ख्वाब की बूंदें
अभी तक लम्स ताज़ा
है बदन पे उगे तेरे हर
सितम का
अभी तक जमा नही है
संघर्ष मेरा आँख से टपके लहू की तरह
अभी तक जान बाक़ी है
मेरे इरादों की रगों में
अभी संभालनी है मुझको
वो सभी किरचियाँ
के जिसमें रंग भरे
थे मेरे ख्वाबों, मेरे उमंगों के
अभी जगाना है अलसाये
हुए सूखे खेतों को जिसने
वादा किया था भूख
से ज़यादा अनाज उगाने का
और मेड़ पर बैठ संग मल्हार गाने का
अभी तक सोच के परदे
पे कुछ निशाँ बाक़ी हैं
वो निशाँ के जिसके
दायरे में हुई आरज़ू जवाँ
उन्ही आरज़ुओं में
बेनाम सी कुछ इल्तेजाएं थी
जो ज़बान ने रात के
अँधेरे में चुपके से होठों पे रखी थी
वो अब भी रौशन है
मेरे आँख में मगर लहू-लहू सा है
मैंने कब चाहा था
मेरे बैल रौंदें कोलतार की काली लम्बी सड़कों को
मैंने कब चाहा था
कि बल्ब की रौशनी खेले मेरे आँखों से कबड्डी
मैंने कब चाहा की
तरक़्क़ी झूले मेरे बरगद की शाखों से
मैंने कब चाहा के
पुरवाई में घुले कारखानों के उड़ते धुएँ
मैंने कब चाहा के
शहर उठ के आ बसे मेरे गाँव के पीछे
मैंने तो बस इतना
चाहा ख़ुदा, क्या बुरा चाहा, कि
स्कूल सिमट आये मेरे
बच्चों की बाँहों में
खिले लफ़्ज़ों के फूल
उनके मासूम होठों पर
उड़े उनके ख्वाबों
की पतंग मेरे नीम से ऊँची
हों उनके हाथ में
हल और क़लम ज़मीन-आसमान की तरह
शायद ये सस्ते ख्वाब
वज़नी थे उसकी अना के आगे
के जिसने बहनों-माओं
की इज़ज़तें नीलाम कर डालीं
के जिसने रौंद डाला
मासूमों और अजन्मे बच्चों को
के जिसने पल में सारी
बस्तियाँ जला के राख कर डालीं
मैंने वो सभी चीखें,
इज़ज़तें और राखें बिखेर दी हैं अपने खेतों में
हर पीढ़ी अपनी रगों
जिए में उस दर्द को टीस की तरह
जिस दर्द को उनके
पूर्वजों नें ढोया है रूह पे सलीब की तरह
यक़ीं है, उसी सलीब पे होगा ये तहरीर एक दिन
के जिसने ख़ून रंगे
पाँव से इस धरती को रौंदा था
उसी के सीने पे बन
के अज़ाब ये सलीब रक्खी है
~
© नैय्यर / 08-04-2014
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