Wednesday 12 March 2014

*** बेरुख़ी ***

तुम्हारी बेरुख़ी जानाँ
ठिठुरती रात जैसी है 
ना पावँ पसारे बनता है 
ना तुमको मानाने बनता है 
जो ठन्डे मुन्जमिद बिस्तर पर
गर पावँ फैलाऊँ तो 
तुम्हारी बर्फ जैसे अना से 
मुहब्बत जल सी जाती है 
जो गर्मी है जज़बातों में
वो पिघल सी जाती है
उम्मीदों की क़न्दीलें
क़तरा-क़तरा गल ही जाती हैं
अधूरी ख़वाहिशें सारी
अचानक मचल ही जाती हैं
मगर ये जो चुप की फसील
हायल है हमारे दरमियाँ में
वो तारीक रात में हौले-हौले आह भरती है
और इसी आह के धुन्ध में
तन्हा सारी रात रोती है
और सुब्ह के इंतज़ार तक
जी भर के ठिठुरती है
और इस ठिठुरती रात में जानाँ
तुम्हारी बेरुख़ी बड़ी ही जानलेवा है

© Naiyar Imam Siddiqui / 29-12-2013

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