***_ जीवन _***
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कंधे से झोला लटकाए,
१४-१५ साल का एक लड़का कचरे के ढेर से प्लास्टिक की थैलियाँ चुन रहा था,
उसके चेहरे पे तनिक भी उदासी या किसी चिंता की कोई लकीर नहीं थी,
वो अपने काम में मग्न था,
जब भी उसे कोई प्लास्टिक की थैली मिलती,
उसके होंटो के किनारे मुस्कुराहटों से भीग जाते,
पर,
अगर कुछ नहीं मिलता तो निराश ज़रूर होता पर हताश नहीं,
उसके बड़े बाल तेल से चुपड़े थे और उसके चौड़े माथे को चूम रहे थे,
उसके कपडे फटे तो नहीं थे पर साफ़ थे,
उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक थी,
वो दुनिया से बेखबर अपने काम में मशगुल था,
रविवार का दिन था,
मैं अख़बार पढ़ते-पढ़ते ऊपर टहल रहा था की अचानक उस पर नज़र पड़ी,
मैं कॉफी का मग थामे,
रेलिंग की दीवार से हाथ टिकाये उसे काम में मग्न देखता रहा,
अचानक उसकी नज़र मुझ पे पड़ी तो कुछ देर क लिए उसके हाथ रुक गए,
वो कुछ पल रुका और फिर अपने काम में लग गया,
मैंने अपने कुरते का जेब टटोला तो वहाँ एक पांच रुपये के सिक्के के सिवा कुछ न मिला,
मैंने उसे आवाज़ दे कर बुलाया,
और...पांच का सिक्का उसे देते हुए कहा के,
जाओ, कुछ खा लेना!
उसने कहा,
बाबु जी, मै गरीब ज़रूर हूँ पर कामचोर नहीं!
मैंने कहा,
पर, तुम तो कचरे के ढेर से थैलियाँ तो पैसे क लिए ही तो चुन रहे हो, न?
उसने कहा, नहीं!
मै तो जीवन ढूँढ रहा हूँ, जीवन !
पैसा तो जीवन लेता है देता नहीं...
और, तब से लेकर आज तक, मेरे ज़ेहन में ये सवाल घूम रहा है के जीवन क्या है?
वो जो हम जी रहे हैं या वो जो एक मासूम बालक कचरे क ढेर में ढूंड रहा था?
क्या आप बता सकते हैं की जीवन क्या है?
© नैय्यर /2009
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कंधे से झोला लटकाए,
१४-१५ साल का एक लड़का कचरे के ढेर से प्लास्टिक की थैलियाँ चुन रहा था,
उसके चेहरे पे तनिक भी उदासी या किसी चिंता की कोई लकीर नहीं थी,
वो अपने काम में मग्न था,
जब भी उसे कोई प्लास्टिक की थैली मिलती,
उसके होंटो के किनारे मुस्कुराहटों से भीग जाते,
पर,
अगर कुछ नहीं मिलता तो निराश ज़रूर होता पर हताश नहीं,
उसके बड़े बाल तेल से चुपड़े थे और उसके चौड़े माथे को चूम रहे थे,
उसके कपडे फटे तो नहीं थे पर साफ़ थे,
उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक थी,
वो दुनिया से बेखबर अपने काम में मशगुल था,
रविवार का दिन था,
मैं अख़बार पढ़ते-पढ़ते ऊपर टहल रहा था की अचानक उस पर नज़र पड़ी,
मैं कॉफी का मग थामे,
रेलिंग की दीवार से हाथ टिकाये उसे काम में मग्न देखता रहा,
अचानक उसकी नज़र मुझ पे पड़ी तो कुछ देर क लिए उसके हाथ रुक गए,
वो कुछ पल रुका और फिर अपने काम में लग गया,
मैंने अपने कुरते का जेब टटोला तो वहाँ एक पांच रुपये के सिक्के के सिवा कुछ न मिला,
मैंने उसे आवाज़ दे कर बुलाया,
और...पांच का सिक्का उसे देते हुए कहा के,
जाओ, कुछ खा लेना!
उसने कहा,
बाबु जी, मै गरीब ज़रूर हूँ पर कामचोर नहीं!
मैंने कहा,
पर, तुम तो कचरे के ढेर से थैलियाँ तो पैसे क लिए ही तो चुन रहे हो, न?
उसने कहा, नहीं!
मै तो जीवन ढूँढ रहा हूँ, जीवन !
पैसा तो जीवन लेता है देता नहीं...
और, तब से लेकर आज तक, मेरे ज़ेहन में ये सवाल घूम रहा है के जीवन क्या है?
वो जो हम जी रहे हैं या वो जो एक मासूम बालक कचरे क ढेर में ढूंड रहा था?
क्या आप बता सकते हैं की जीवन क्या है?
© नैय्यर /2009
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