***_ ख़लिश _***
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एक मनचाही हस्ती को न पाना शायद उतना तकलीफदेह नहीं होता, जितना अज़ीयतनाक किसी शख्स से मिल के बिछड़ जाना होता है। हालाँकि मैं उसे जानता तक नहीं मगर इस नादान दिल ने बारहा उसकी तमन्ना की है और ये तमन्ना तब से है...जब उसे पहली बार देखा था।
बात दिसम्बर 2009 की है जब मुझे ONGC के इंटरव्यू के लिए दिल्ली जाना था। मुझे अलीगढ़ में भी कुछ काम था इसलिए मैं एक ही बार के सफ़र में दोनों काम निपटा देना चाहता था। सागर से अलीगढ़ के लिए कोई डायरेक्ट ट्रेन नहीं है सो मैंने सागर से आगरा कैंट तक ट्रेन से और फिर वहाँ से अलीगढ़ तक बस से सफ़र करने के अपने प्लान को वक़्त के सांचे में ढाल गोंडवाना एक्सप्रेस में टिकट बुक कर लिया, वैसे इंटरव्यू के लिए स्लीपर क्लास का किराया वापस मिलना था पर ठण्ड में सामान का बोझ कौन बढ़ाये ये सोचकर मैंने तीसरे दर्जे के वातानुकूलित कोच में टिकट बुक किया। नियत दिन-समय को मैं स्टेशन पहुंचा, बी-3, 24 नंबर बर्थ पे बैग फेंका। माहौल में नींद की ख़ुमारी घुली हुई थी, नये चढ़ने वाले पैसेंजर्स नें माहौल को थोड़ी देर गरमाये रखा पर रात, नींद और ठण्ड के सामने सब हार गए और नींद की आगोश में समा गए। मैं भी अपने बिस्तर में दुबक गया। मुझे न जाने क्यूँ वातानुकूलित कोच ऐसा लगता है जैसे ताबूत पे ताबूत रखे हों। कोई किसी से बात ही नहीं करता है, सब परदे बराबर किये अपने-अपने ताबूत में जी रहे थे। मेरी सोचों पे नींद ने कब क़ब्ज़ा किया पता ही नहीं चला। सुबह चार बजे कि अलार्म से नींद खुली। ठन्डे पानी के छींटे ने अधूरी नींद को आँखों से छीन लिया। आधे घंटे के इंतज़ार के बाद कुहासे से लिपटे आगरा छावनी स्टेशन पर ट्रेन रुकी। बदन को गरमाने और वक़्त गुज़ारी के लिए कॉफ़ी का बड़ा कप थामे कुहासे से सहमे हुए नज़ारे को सुब्ह के इंतज़ार के लिए बेचैन होता देखता रहा। कॉफ़ी ख़तम कर मैं ऑटो से बस स्टैंड पहुँचा।
ठण्ड की वजह से बस में ज़यादा मुसाफिर भी नहीं थे। इक्का-दुक्का लोग थे। आधे घंटे तक मुसाफिरों का इंतज़ार करने के बाद बस मुश्किल से बीस मिनट चली होगी के झटके से रुक पड़ी। मैं झुंझला के अपनी सीट पे पहलु बदला तो देखा कि बस में दो लड़कियां सवार हुईं। उन दोनों के पास छोटा सा सफरी बैग था। हाथों में दबी किताबों को देख कर उनके स्टूडेंट्स होने पर कोई शक न रहा। मैंने उनपर उचटती सी निगाह डालने के बाद खिड़की से बाहर देखना शुरू कर दिया। उस वक़्त हलके-हलके उजाले और कोहरे की आड़ में छुपे दम तोड़ते अँधेरे में हर तरफ एक सुकून सा ठहरा हुआ था। मैं दिलचस्पी से बाहर के मंज़र में गुम हो गया। बस रफ़्तार पकड़ चुकी थी और उस वक़्त यमुना नदी पर बने पुल से गुज़र रही थी।
धीरे-धीरे सुबह अपने पर फैला रही थी। बाहर के नज़ारे से जब जी भरने पर मैंने रुख़ मोड़ कर जैसे ही निगाह सामने किया, ड्राइविंग सीट के सामने लगे 'बैक व्यू मिरर' पर झिलमिलाता एक अधूरा सा अक्स मुझे मबहुत कर गया। कई लम्हे यूँही बेधयानी में उसे तकते ही गुज़र गईं। मैं जैसे वक़ती तौर पर भूल ही गया था कि मैं कहाँ हूँ और अनजाने में क्या हरकत कर रहा हूँ। कुछ देर पहले जब मेरी नज़र ग़ैर इरादी तौर पर बस में चढ़ती उन लड़कियों की तरफ उठी थी तो मैंने फ़ौरन ख़ुद को ग़लत हरकत पर टोकते हुए बाहर कि तरफ़ धयान लगाया था...और अब...मैं ख़ुद ही...
"तब उस मटियाले से अँधेरे में ये ख़ुशगवार आँखें यूँ चमकी भी तो नहीं थी", मैं हौले से मुस्कुराया।
अच्छी आँखें मेरी कमज़ोरी हैं, और ये आँखें...जो उस वक़्त आईने पर चिपकी हुई थी...सिर्फ अच्छी ही नहीं बल्कि सब से मुनफ़रिद सब से निराली थी। अगरचे इतने फासले और कम रौशनी की वजह से उन आँखों कि असल रंगत तक पता नहीं चल रही थी उसके बावजूद उनकी झिलमिलाहट और गहराई अपनी इंफरादियत का ऐलान पुकार-पुकार कर कर रही थी। मैंने एक बार फिर उन आँखों कि गहराई पर ग़ौर किया... यूँ लग रहा था जैसे ये आँखें उसके चेहरे पर ही बल्कि पुरे वजूद पर छाई हों। न सिर्फ उसके वजूद पर बल्कि आस पास के सारे माहौल और फ़ज़ा पर...
माहौल से मेरे ज़ेहन में एकदम झमका सा हुआ और मैं हड़बड़ा के चरों तरफ़ देखा कि कहीं मेरी चोरी पकड़ी तो नहीं गयी। ज़यादातर लोग ऊँघ रहे थे, कुछ अख़बार पढ़ने में मसरूफ़ थे लेकिन फिर भी मैं मोहतात हो गया कि कहीं मेरा टकटकी बाँध के सामने देखते रहना मुझे मशकूक न बना दे। न चाहते हुए भी मैंने सीट पे सर टिकाया और पलकें मूँद ली। हैरतअंगेज़ तौर पर अब मैं बंद पपोटों के परदे के पीछे भी वही आँखें झिलमिलाते हुए देख रहा था।
न जाने कितना वक़्त गुज़र गया था। मैं तब चौंका जब मोबाइल की 'बीप' ने बस कि ख़ामोश फ़िज़ा में हल्का सा इरतआश पैदा किया। उन लड़कियों में से किसी एक कि मद्धिम सी आवाज़ सुनाई दी।
"जी अम्मी, हाथरस गुज़र गया है … नहीं नहीं ... परेशानी तो कोई नहीं हुई"
मैंने सीट पर सीधे हो के बैठते हुए ध्यान दिया। उन लड़कियों कि सीट और मेरे सीट के दरमियान वाली सीट न जाने किस वक़्त ख़ाली हुई मुझे पता ही नहीं चला और अब एक सीट आगे बैठी वो दोनों लड़कियां मुझे थोड़ी दिखाई भी देने लगी थी और उनकी आवाज़ भी साफ़ सुनाई दे रही थी। मोबाइल कान से लगाये अपनी अम्मी को तसल्लियाँ देती वो दूसरी लड़की थी जबकि "वो" उसकी तरफ मोतवज्जा होने कि वजह से अब आईने को अपनी आँखों से अक्स कि गिरफ्त से आज़ाद कर चुकी थी। मैं जो ख़ुद को झिड़क कर बड़ी मुश्किल से इस हरकत से रोके रखा था आँखें खोलते ही फिर से उस मंज़र के आस में बेचैन हो उठा। मुझे ख़ामख्वाह में ही फोन वाली लड़की से चिड़ होने लगी जो "उस" कि सारी तवज्जह अपनी जानिब खींचे हुए थी। "वो" भी न जाने क्या कहने के लिए बार-बार उसे इशारे कर रही थी।
"जी अम्मी, कोई परेशानी नहीं है, मैं पहुँच के आपको कॉल करुँगी और मीरू भी तो मेरे साथ है फिर आप क्यूँ परेशान हुए जा रही हैं?"
"मीरू", मैं दोहरा के रह गया। ये कैसा नाम है भला। शायद मारिया, मोनिका, महरीन, माहीन, मरयम, मीनाक्षी, महिमा, मनाल...जितने मिलते जुलते नाम थे सब सोच के दोहरा लिया। क्या उसका नाम रखने वालों ने ये आँखें नहीं देखी होंगी, इन आँखों पर तो बन्दा पूरा का पूरा दीवान लिख डाले। क्या एक अच्छा सा नाम भी नहीं रखा जा सकता था जो उन आँखों को खिराज-ए-तहसीन पेश कर पता, जैसे कि "नैना"…
"अपनी ही कहे जाती हो मेरी भी तो बात कराओ आंटी से", उसकी झुंझलाई हुई सी दबी-दबी आवाज़ आई और उसकी सुरीली आवाज़ ने मेरे दिल के जलतराग को छेड़ दिया।
''मुझे आंटी से कहता है कि मेरे घर भी फोन कर के ख़ैरियत की इत्तेला दे दें"
"अरे पहले पहुँच तो जाएँ फिर इत्मीनान से फोन कर के अपनी ख़ैरियत और पहुँचने कि रूदाद सबको सुनाते रहना"
अपनी सहेली कि इस बेईमानी पर "वो" उस से झगड़ने लगी और मैं उनकी बातों से अपने मतलब कि बात छांटने लगा। वो दोनों आगरा कि ही थी और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्टूडेंट्स थी।
कुछ देर बाद बस पेट्रोल पंप पे रुकी तो बाक़ी मुसाफिरों के साथ मैं भी नीचे उतरा और थोड़ी देर बाद वापस चढ़ते वक़्त जान बुझ कर उनके पीछे वाली ख़ाली सीट पर बैठ गया। उतरते और चढ़ते वक़्त मैं उनके क़रीब से गुज़रा और हाथ में पकड़ी 'एनाटोमी' और 'एम्ब्रयोलॉजी' की किताबें देख कर ये जाना कि वो मेडिकल कि स्टूडेंट्स हैं। मोटी सी वो किताब मुझे उस वक़्त रक़ीब से कम नहीं लग रही थी जिसने उस चाँद चेहरे, सितारे आँखों को ओट में ले रखा था। मैं बार-बार आईने पर नज़र डालता और किताब को उसके चेहरे पे देख कर चिड़ जाता। थोड़ी देर बाद शायद उसने थक के किताब नीचे किया और सर को सीट से टिका का आँखें मूँद लिया।
पलकों नें आँखों को परदे में लेकर उसके चेहरे के बाक़ी नक़श उभार दिए थे। मैंने तस्लीम किया कि उन दो आँखों के ख़ज़ीने के अलावा भी उसने कई सौग़ातें समेट रखी हैं। मैं उसे देखता रहा तभी अचानक आईने पर फिर से दो सुरमई झीलें उभरने लगी।
सूरज कि कोमल किरणें उन आँखों का सहर अंगेज़ रंग इंद्रधनुष में लपेट के आईने पर उतार रही थी। नीला, पीला, गुलाबी, कसनी, सुरमई रंगों का एक मेला था और "वो" उस मेले कि शान।
मैं उस मेले में खो जाना चाहता था, और खो ही रहा था कि अचानक मेला अपनी तमाम तर रौनकें समेटने लगा। अलीगढ़ में बस के रुकते ही वो दोनों उठ खड़ी हुई। मैं फुर्ती से उठ कर उनके बैग सीट के ऊपर लगे स्टैंड से उतरा। दिल में हलकी से उम्मीद के शायद दुबारा राब्ते कि कोई उम्मीद पैदा हो सके लेकिन ज़ाहिर है कि ये नामुमकिन था सो नामुमकिन ही रहा।
दूसरी लड़की ने तो अपना बैग मेरे हाथ से लेते हुए ज़रा सा मुस्कुरा के 'थैंक यू' भी कहा लेकिन "मीरू" ने मेरा शुक्रिया अदा करना तो दूर मेरी तरफ देखा भी नहीं। मैंने ख़ाली सीट पर कुछ तलाश करना चाहा, कोई किताब, कोई वरक़, कोई निशानी मगर वहाँ कुछ भी न था। "वो" सबकुछ अपने साथ ले गयी थी सिवाए अपनी आँखों के।
मैं अपना होश और बैग सँभालते नीचे उतरा तो वो रिक्शे पे बैठी जा रही थी। मैं भी जल्दी में रिक्शे पे बैठा और रिक्शावाले को उनके पीछे चलने को कहा। रिक्शा हौले-हौले आगे बढ़ता रहा और मैं उन आँखों की जादू में खोया रहा। होश तब आया जब रिक्शा एडमिनिस्ट्रेटिव बिल्डिंग, वीसी बंगला, आर्ट्स फैकल्टी, इंजीनियरिंग फैकल्टी, एथलेटिकस ग्राउंड पार कर सरोजनी नायडू हॉल के पास रुका। मैंने अपने रिक्शे से पीछे पलट के उन सुरमई आँखों को आख़री बार देखा और मेरा रिक्शा हबीब हॉल कि तरफ मुड़ चला।
और वो आँखें उस रोज़ से मेरे पास हैं, मेरे दिल के कहीं बहुत अंदर।
-Naiyar Imam 'नैय्यर' / 14-02-2014
(नोट: ये घटना काल्पनिक है, सच्चाई से दूर-दूर तक इसका कोई सम्बन्ध नहीं, पास का भले हो सकता है पर मुझे सटीक जानकारी नहीं। बस रत्ती भर सच्चाई इंटरव्यू वाली बात में है। जो भी इस घटना को सच समझना चाहता है अपनी ज़िम्मेदारी पे समझ सकता है, कोई मनाही नहीं है। बाक़ी कहानी हिंदी, पंजाबी, पाकिस्तानी और हॉलीवुड फिल्मों और नविलों से चुराई गयी घटनाओं पर आधारित है। इस कहानी का किसी भी ज़िंदा या मुर्दा इंसान से कोई सम्बन्ध नहीं है अगर कोई समबन्ध वर्त्तमान, भूत और भविष्य में बन जाता है तो ज़िम्मेदारी मेरी नहीं पर अगर इस घटना पर फ़िल्म बनाना चाहें तो रॉयलिटी मेरे नाम से बैंक में जमा कराएं। कहानी जैसी भी लगी हो पैसे तो नहीं लगे न पढ़ने के तो कंजूसी छोड़ अपनी राय ज़रूर बताएँ।) — feeling बक रहा हूँ जुनूँ में क्या क्या, कुछ न समझे ख़ुदा करे कोई.
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एक मनचाही हस्ती को न पाना शायद उतना तकलीफदेह नहीं होता, जितना अज़ीयतनाक किसी शख्स से मिल के बिछड़ जाना होता है। हालाँकि मैं उसे जानता तक नहीं मगर इस नादान दिल ने बारहा उसकी तमन्ना की है और ये तमन्ना तब से है...जब उसे पहली बार देखा था।
बात दिसम्बर 2009 की है जब मुझे ONGC के इंटरव्यू के लिए दिल्ली जाना था। मुझे अलीगढ़ में भी कुछ काम था इसलिए मैं एक ही बार के सफ़र में दोनों काम निपटा देना चाहता था। सागर से अलीगढ़ के लिए कोई डायरेक्ट ट्रेन नहीं है सो मैंने सागर से आगरा कैंट तक ट्रेन से और फिर वहाँ से अलीगढ़ तक बस से सफ़र करने के अपने प्लान को वक़्त के सांचे में ढाल गोंडवाना एक्सप्रेस में टिकट बुक कर लिया, वैसे इंटरव्यू के लिए स्लीपर क्लास का किराया वापस मिलना था पर ठण्ड में सामान का बोझ कौन बढ़ाये ये सोचकर मैंने तीसरे दर्जे के वातानुकूलित कोच में टिकट बुक किया। नियत दिन-समय को मैं स्टेशन पहुंचा, बी-3, 24 नंबर बर्थ पे बैग फेंका। माहौल में नींद की ख़ुमारी घुली हुई थी, नये चढ़ने वाले पैसेंजर्स नें माहौल को थोड़ी देर गरमाये रखा पर रात, नींद और ठण्ड के सामने सब हार गए और नींद की आगोश में समा गए। मैं भी अपने बिस्तर में दुबक गया। मुझे न जाने क्यूँ वातानुकूलित कोच ऐसा लगता है जैसे ताबूत पे ताबूत रखे हों। कोई किसी से बात ही नहीं करता है, सब परदे बराबर किये अपने-अपने ताबूत में जी रहे थे। मेरी सोचों पे नींद ने कब क़ब्ज़ा किया पता ही नहीं चला। सुबह चार बजे कि अलार्म से नींद खुली। ठन्डे पानी के छींटे ने अधूरी नींद को आँखों से छीन लिया। आधे घंटे के इंतज़ार के बाद कुहासे से लिपटे आगरा छावनी स्टेशन पर ट्रेन रुकी। बदन को गरमाने और वक़्त गुज़ारी के लिए कॉफ़ी का बड़ा कप थामे कुहासे से सहमे हुए नज़ारे को सुब्ह के इंतज़ार के लिए बेचैन होता देखता रहा। कॉफ़ी ख़तम कर मैं ऑटो से बस स्टैंड पहुँचा।
ठण्ड की वजह से बस में ज़यादा मुसाफिर भी नहीं थे। इक्का-दुक्का लोग थे। आधे घंटे तक मुसाफिरों का इंतज़ार करने के बाद बस मुश्किल से बीस मिनट चली होगी के झटके से रुक पड़ी। मैं झुंझला के अपनी सीट पे पहलु बदला तो देखा कि बस में दो लड़कियां सवार हुईं। उन दोनों के पास छोटा सा सफरी बैग था। हाथों में दबी किताबों को देख कर उनके स्टूडेंट्स होने पर कोई शक न रहा। मैंने उनपर उचटती सी निगाह डालने के बाद खिड़की से बाहर देखना शुरू कर दिया। उस वक़्त हलके-हलके उजाले और कोहरे की आड़ में छुपे दम तोड़ते अँधेरे में हर तरफ एक सुकून सा ठहरा हुआ था। मैं दिलचस्पी से बाहर के मंज़र में गुम हो गया। बस रफ़्तार पकड़ चुकी थी और उस वक़्त यमुना नदी पर बने पुल से गुज़र रही थी।
धीरे-धीरे सुबह अपने पर फैला रही थी। बाहर के नज़ारे से जब जी भरने पर मैंने रुख़ मोड़ कर जैसे ही निगाह सामने किया, ड्राइविंग सीट के सामने लगे 'बैक व्यू मिरर' पर झिलमिलाता एक अधूरा सा अक्स मुझे मबहुत कर गया। कई लम्हे यूँही बेधयानी में उसे तकते ही गुज़र गईं। मैं जैसे वक़ती तौर पर भूल ही गया था कि मैं कहाँ हूँ और अनजाने में क्या हरकत कर रहा हूँ। कुछ देर पहले जब मेरी नज़र ग़ैर इरादी तौर पर बस में चढ़ती उन लड़कियों की तरफ उठी थी तो मैंने फ़ौरन ख़ुद को ग़लत हरकत पर टोकते हुए बाहर कि तरफ़ धयान लगाया था...और अब...मैं ख़ुद ही...
"तब उस मटियाले से अँधेरे में ये ख़ुशगवार आँखें यूँ चमकी भी तो नहीं थी", मैं हौले से मुस्कुराया।
अच्छी आँखें मेरी कमज़ोरी हैं, और ये आँखें...जो उस वक़्त आईने पर चिपकी हुई थी...सिर्फ अच्छी ही नहीं बल्कि सब से मुनफ़रिद सब से निराली थी। अगरचे इतने फासले और कम रौशनी की वजह से उन आँखों कि असल रंगत तक पता नहीं चल रही थी उसके बावजूद उनकी झिलमिलाहट और गहराई अपनी इंफरादियत का ऐलान पुकार-पुकार कर कर रही थी। मैंने एक बार फिर उन आँखों कि गहराई पर ग़ौर किया... यूँ लग रहा था जैसे ये आँखें उसके चेहरे पर ही बल्कि पुरे वजूद पर छाई हों। न सिर्फ उसके वजूद पर बल्कि आस पास के सारे माहौल और फ़ज़ा पर...
माहौल से मेरे ज़ेहन में एकदम झमका सा हुआ और मैं हड़बड़ा के चरों तरफ़ देखा कि कहीं मेरी चोरी पकड़ी तो नहीं गयी। ज़यादातर लोग ऊँघ रहे थे, कुछ अख़बार पढ़ने में मसरूफ़ थे लेकिन फिर भी मैं मोहतात हो गया कि कहीं मेरा टकटकी बाँध के सामने देखते रहना मुझे मशकूक न बना दे। न चाहते हुए भी मैंने सीट पे सर टिकाया और पलकें मूँद ली। हैरतअंगेज़ तौर पर अब मैं बंद पपोटों के परदे के पीछे भी वही आँखें झिलमिलाते हुए देख रहा था।
न जाने कितना वक़्त गुज़र गया था। मैं तब चौंका जब मोबाइल की 'बीप' ने बस कि ख़ामोश फ़िज़ा में हल्का सा इरतआश पैदा किया। उन लड़कियों में से किसी एक कि मद्धिम सी आवाज़ सुनाई दी।
"जी अम्मी, हाथरस गुज़र गया है … नहीं नहीं ... परेशानी तो कोई नहीं हुई"
मैंने सीट पर सीधे हो के बैठते हुए ध्यान दिया। उन लड़कियों कि सीट और मेरे सीट के दरमियान वाली सीट न जाने किस वक़्त ख़ाली हुई मुझे पता ही नहीं चला और अब एक सीट आगे बैठी वो दोनों लड़कियां मुझे थोड़ी दिखाई भी देने लगी थी और उनकी आवाज़ भी साफ़ सुनाई दे रही थी। मोबाइल कान से लगाये अपनी अम्मी को तसल्लियाँ देती वो दूसरी लड़की थी जबकि "वो" उसकी तरफ मोतवज्जा होने कि वजह से अब आईने को अपनी आँखों से अक्स कि गिरफ्त से आज़ाद कर चुकी थी। मैं जो ख़ुद को झिड़क कर बड़ी मुश्किल से इस हरकत से रोके रखा था आँखें खोलते ही फिर से उस मंज़र के आस में बेचैन हो उठा। मुझे ख़ामख्वाह में ही फोन वाली लड़की से चिड़ होने लगी जो "उस" कि सारी तवज्जह अपनी जानिब खींचे हुए थी। "वो" भी न जाने क्या कहने के लिए बार-बार उसे इशारे कर रही थी।
"जी अम्मी, कोई परेशानी नहीं है, मैं पहुँच के आपको कॉल करुँगी और मीरू भी तो मेरे साथ है फिर आप क्यूँ परेशान हुए जा रही हैं?"
"मीरू", मैं दोहरा के रह गया। ये कैसा नाम है भला। शायद मारिया, मोनिका, महरीन, माहीन, मरयम, मीनाक्षी, महिमा, मनाल...जितने मिलते जुलते नाम थे सब सोच के दोहरा लिया। क्या उसका नाम रखने वालों ने ये आँखें नहीं देखी होंगी, इन आँखों पर तो बन्दा पूरा का पूरा दीवान लिख डाले। क्या एक अच्छा सा नाम भी नहीं रखा जा सकता था जो उन आँखों को खिराज-ए-तहसीन पेश कर पता, जैसे कि "नैना"…
"अपनी ही कहे जाती हो मेरी भी तो बात कराओ आंटी से", उसकी झुंझलाई हुई सी दबी-दबी आवाज़ आई और उसकी सुरीली आवाज़ ने मेरे दिल के जलतराग को छेड़ दिया।
''मुझे आंटी से कहता है कि मेरे घर भी फोन कर के ख़ैरियत की इत्तेला दे दें"
"अरे पहले पहुँच तो जाएँ फिर इत्मीनान से फोन कर के अपनी ख़ैरियत और पहुँचने कि रूदाद सबको सुनाते रहना"
अपनी सहेली कि इस बेईमानी पर "वो" उस से झगड़ने लगी और मैं उनकी बातों से अपने मतलब कि बात छांटने लगा। वो दोनों आगरा कि ही थी और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्टूडेंट्स थी।
कुछ देर बाद बस पेट्रोल पंप पे रुकी तो बाक़ी मुसाफिरों के साथ मैं भी नीचे उतरा और थोड़ी देर बाद वापस चढ़ते वक़्त जान बुझ कर उनके पीछे वाली ख़ाली सीट पर बैठ गया। उतरते और चढ़ते वक़्त मैं उनके क़रीब से गुज़रा और हाथ में पकड़ी 'एनाटोमी' और 'एम्ब्रयोलॉजी' की किताबें देख कर ये जाना कि वो मेडिकल कि स्टूडेंट्स हैं। मोटी सी वो किताब मुझे उस वक़्त रक़ीब से कम नहीं लग रही थी जिसने उस चाँद चेहरे, सितारे आँखों को ओट में ले रखा था। मैं बार-बार आईने पर नज़र डालता और किताब को उसके चेहरे पे देख कर चिड़ जाता। थोड़ी देर बाद शायद उसने थक के किताब नीचे किया और सर को सीट से टिका का आँखें मूँद लिया।
पलकों नें आँखों को परदे में लेकर उसके चेहरे के बाक़ी नक़श उभार दिए थे। मैंने तस्लीम किया कि उन दो आँखों के ख़ज़ीने के अलावा भी उसने कई सौग़ातें समेट रखी हैं। मैं उसे देखता रहा तभी अचानक आईने पर फिर से दो सुरमई झीलें उभरने लगी।
सूरज कि कोमल किरणें उन आँखों का सहर अंगेज़ रंग इंद्रधनुष में लपेट के आईने पर उतार रही थी। नीला, पीला, गुलाबी, कसनी, सुरमई रंगों का एक मेला था और "वो" उस मेले कि शान।
मैं उस मेले में खो जाना चाहता था, और खो ही रहा था कि अचानक मेला अपनी तमाम तर रौनकें समेटने लगा। अलीगढ़ में बस के रुकते ही वो दोनों उठ खड़ी हुई। मैं फुर्ती से उठ कर उनके बैग सीट के ऊपर लगे स्टैंड से उतरा। दिल में हलकी से उम्मीद के शायद दुबारा राब्ते कि कोई उम्मीद पैदा हो सके लेकिन ज़ाहिर है कि ये नामुमकिन था सो नामुमकिन ही रहा।
दूसरी लड़की ने तो अपना बैग मेरे हाथ से लेते हुए ज़रा सा मुस्कुरा के 'थैंक यू' भी कहा लेकिन "मीरू" ने मेरा शुक्रिया अदा करना तो दूर मेरी तरफ देखा भी नहीं। मैंने ख़ाली सीट पर कुछ तलाश करना चाहा, कोई किताब, कोई वरक़, कोई निशानी मगर वहाँ कुछ भी न था। "वो" सबकुछ अपने साथ ले गयी थी सिवाए अपनी आँखों के।
मैं अपना होश और बैग सँभालते नीचे उतरा तो वो रिक्शे पे बैठी जा रही थी। मैं भी जल्दी में रिक्शे पे बैठा और रिक्शावाले को उनके पीछे चलने को कहा। रिक्शा हौले-हौले आगे बढ़ता रहा और मैं उन आँखों की जादू में खोया रहा। होश तब आया जब रिक्शा एडमिनिस्ट्रेटिव बिल्डिंग, वीसी बंगला, आर्ट्स फैकल्टी, इंजीनियरिंग फैकल्टी, एथलेटिकस ग्राउंड पार कर सरोजनी नायडू हॉल के पास रुका। मैंने अपने रिक्शे से पीछे पलट के उन सुरमई आँखों को आख़री बार देखा और मेरा रिक्शा हबीब हॉल कि तरफ मुड़ चला।
और वो आँखें उस रोज़ से मेरे पास हैं, मेरे दिल के कहीं बहुत अंदर।
-Naiyar Imam 'नैय्यर' / 14-02-2014
(नोट: ये घटना काल्पनिक है, सच्चाई से दूर-दूर तक इसका कोई सम्बन्ध नहीं, पास का भले हो सकता है पर मुझे सटीक जानकारी नहीं। बस रत्ती भर सच्चाई इंटरव्यू वाली बात में है। जो भी इस घटना को सच समझना चाहता है अपनी ज़िम्मेदारी पे समझ सकता है, कोई मनाही नहीं है। बाक़ी कहानी हिंदी, पंजाबी, पाकिस्तानी और हॉलीवुड फिल्मों और नविलों से चुराई गयी घटनाओं पर आधारित है। इस कहानी का किसी भी ज़िंदा या मुर्दा इंसान से कोई सम्बन्ध नहीं है अगर कोई समबन्ध वर्त्तमान, भूत और भविष्य में बन जाता है तो ज़िम्मेदारी मेरी नहीं पर अगर इस घटना पर फ़िल्म बनाना चाहें तो रॉयलिटी मेरे नाम से बैंक में जमा कराएं। कहानी जैसी भी लगी हो पैसे तो नहीं लगे न पढ़ने के तो कंजूसी छोड़ अपनी राय ज़रूर बताएँ।) — feeling बक रहा हूँ जुनूँ में क्या क्या, कुछ न समझे ख़ुदा करे कोई.
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