Wednesday 12 March 2014

कहानी / नमक
---------------

मैं कहे देता हूँ बापू...हवेली नहीं जाउँगा मैं, सूरज ने गुस्से से पैर पटकते हुए कहा।

चार किताबें क्या पढ़ ली तूने, दिमाग पे चर्बी चढ़ गयी है तेरे। हमारे खानदान में इसीलिए किसी को पढाया नही जाता था। अब मुझे देख, घंटे भर भी नही हुआ था स्कूल का मुँह देखे कि हवेली से हरखू हांफता हुआ चला आया। स्कूल के अहाते से ही आवाज़ दी, अरे ओ भीखू ! चल बड़े ठाकुर ने तुझे बुलाया है, और मैं किताबें बगल में दबाये हवेली की हुकम पे पाँव धरता हुआ चल पड़ा। बड़े ठाकुर गाव तकिये से टेक लगाये आराम कर रहे थे, मैंने सिर झुकाए उनसे पुछा, अन्नदाता ! आपने मुझे याद किया?

ठाकुर विशम्भर सिंह की गरजदार आवाज़ ने मेरे होश ठिकाने लगा दिए। क्यूँ रे भीखू, तू पढ़ के क्या करेगा? क्या यहाँ तुझे रोटी नहीं मिलती जो तू पढ़ के शहर में रोटी मांगने जायेगा? तू पढ़-लिख लेगा तो फिर तुझे गाँव अच्छा नहीं लगेगा और तू रोटी के लिए शहर में दस लोगों की लातें और गलियां खायेगा। यहाँ तुझे २-४ लातें ही तो मिलती हैं और कभी-कभी हरामखोर, मुफ्तखोर, कामचोर, निखट्टू और माँ-बहन की गलियां, वो भी तेरा पेट भरने लिए काफी नहीं जो तू पढ़ने चला है? बस उसी दिन मैंने मैंने अपना झुका सर बड़े ठाकुर के क़दमों में रख दिया और वफादारी ओढ़ ली।

सूरज की वीरान आखों में सवालों की परछाई देख भीखू ने कहा - हमारा खानदान बरसों पहले हवेली में अपनी वफादारी नीलाम कर चूका है। बात तब की है जब बर्मा भी भारत का हिस्सा हुआ करता था। गोरे सैनिक गाँव के जवानों को पकड़-पकड़ के बर्मा भेज रहे थे क्यूंकि वहां गोरे अफसरों के लिए नयी कोठियां बन रही थीं और वहां मजदूरों की कमी थी। वहां के हवा में नमी इतनी थी के जो भी जाता मजदूरी के रूप में मलेरिया ले आता। जिसकी किस्मत अच्छी होती बच जाता वरना…और मैंने उस वख्त शायद ही किसी की किस्मत अच्छी देखी।

थोड़ी देर रुक के भीखू ने फिर कहा - मेरा बाप बड़े ठाकुर के खेतों में नौकरी करता था, एक दिन जब वो हल चला रहा था गोरे सैनिक उसे पकड़ने आये। मेरा बाप हल खेत में छोड़ हवेली की तरफ दौड़ पड़ा और बड़े ठाकुर की जूती पे अपना माथा रख के बोला - बचाई लो मालिक, अगर मुझे कुछ हो गया तो मेरी लुगाई और बच्चों का क्या होगा?

बड़े ठाकुर ने कहा - बचा तो लूँगा मैं, क्यूंकि अंग्रेज अफसर मेरे दोस्त हैं पर...एक शर्त है दीनू।

मेरे बाप नें हाथ जोड़े हुए कहा - मुझे आपकी हर सरत मंजूर है मालिक।

मेरे बाप ने बिना जाने ही हर सरत मंजूर कर ली और उस दिन बड़े ठाकुर ने सरत की आड़ में हमारे खानदान की आज़ादी, सोच और वफादारी अपने यहाँ गिरवी रखवा ली।

मेरा बाप बड़े ठाकुर की सेवा करने लगा और मुझे छोटे ठाकुर की सेवा में लगा दिया गया। एक दिन बड़े ठकुर रियासत के दौरे से वापस आ रहे थे और रस्ते में घोड़े को ऐड़ लगी और ठाकुर साहब नीचे...। इस हादसे में बड़े साहब के रीढ़ की हड्डी और पसली में चोट आई और बड़े ठाकुर बिस्तर के हो गए फिर मेरा बाप हवेली का।

मेरे जिम्मे अन्दर बहार का काम आ पड़ा। छोटे ठाकुर मुझे बहुत मानते हैं…ये देखो - भीखू ने कंधे से गमछा हटा के निशान दिखाया।

सूरज ने निशान पे हाथ फेरते हुए पुछा - बापू ! पर ये निशान कैसा है ?

भीखू ने बेटे का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा - ये मेरी वफादारी का इनाम है। छोटे ठाकुर मेरे कंधे पे पैर रख के घोड़े पे चढ़ते और उतारते थे ये उसी का निशान है। गोरे अफसरों की वफादारी के सिले में कुंवर साहब को विलायत में पढ़ने का मौका मिला और मैंने भी रो-धोकर तुझे भी पढ़ाने का भीख मांग लिया और तू अब चार किताबें पढ़ के मुझे आँख दिखता है। तू क्या चाहता है, जो गाली मैंने बचपन में बड़े ठाकुर से सुनी थी वो बुढ़ापे में छोटे ठाकुर से भी सुनूँ?

सूरज ने कुछ कहने क लिए मुँह खोल ही था कि भीखू बोल उठा - मैं भी क्या ले के बैठ गया, ये सब बातें फिर कभी। देख समय निकला जा रहा है, जल्दी कर वहां बहुत सारे काम होंगे, अरे...हवेली से नेवता मिलना तो सौभाग्य की बात है। आज कुंवर रणधीर सिंह जी के सम्मान में भोज है जो विलायत से पढ़ के आ रहे हैं। और आज वो कोई पार्टी में जुड़ जायेंगे और चुनाव लड़ेंगे। छोटे ठाकुर कह रहे थे के अब सेवा करने का तरीका बदल रहा है। अब राजवाड़ा नही है, सरकार है सरकार ! सो रणधीर सरकार में शामिल हो के रियासत के लोगों की सेवा करेगा। हमारी खून में ही सेवा करना लिखा है तो हम दूसरा कोई काम करने से रहे। हम सेवा करेंगे मगर दुसरे तरह से।

चल सूरज, तैयार हो जा, दीनू ने बेटे को पुचकारते हुए कहा।
***
सूरज आज से पहले भी कई बार हवेली जा चूका था पर न जाने क्यूँ आज उसके क़दम मन-मन भर के हो रहे थे। ठाकुर के अत्याचार और शोषण उसके रगों की लहू को गरमाए जा रहे थे। उसका बाप रस्ते भर उसे हवेली के नियम-क़ानून और तमीज़ बताए जा रहा था पर उसका मन तो ठाकुर के बाग़ में लगे अमरुद पे अटका हुआ था। अचानक उसका दाहिना हाथ बाएँ गाल पे पहुँच गया और वो ठाकुर के थप्पड़ के निशान टटोलने लग गया। उसे अपना बचपन याद आ गया। एक दिन वो हवेली के पीछे खेल रहा था और उसकी माँ हवेली की सफाई में जुटी थी। अमरुद के पेड़ पे कच्चे अमरुद देख नन्हा मन बिना सोचे पेड़ पे चढ़ अमरुद तोड़ लिया, अभी उसने अमरुद पे दाँत गड़ाए ही थे के एक ज़ोरदार थप्पड़ उसके गाल पे पड़ चूका था। नज़र ऊपर उठाया तो सामने छोटे ठाकुर थे। मुठ्ठी में बाल पकड़ के खींचते हुए कहा - तेरे बाप का माल है जो यूँ मुफ्त में उड़ाए जा रहा है।

अरे तेज़ चल ना - भीखू ने पीछे देखते हुए सूरज से कहा जो अपनी सोच में गम सुस्त रफ़्तार से चल रहा था। बाप की आवाज़ सुन दर्द की टीस निगलते हुए क़दम तेज़ कर दिए।
***
हवेली में बहुत गहमा गहमी थी। सवाजट और बिजली के कुमकुमों से हवेली किसी दुल्हन की तरह सजी हुई थी। हर तरफ लोगों का हुजूम मगर सब अपने में गुम।

भीखू ने सूरज का हाथ पकड़ते हुए कहा -चलो पहले छोटे ठाकुर का आशीर्वाद ले लो फिर कुंवर जी का भी आशीर्वाद लेंगे। मेरे बाद इस हवेली के काम-काज तुम्हें ही देखना है।

महोगनी के नक्काशीदार ऊँची कुर्सी पे बैठे ठाकुर सूर्यकांत सिंह अपनी सज धज देख रहे थे जब भीखू अपने बेटे का हाथ पकडे ठाकुर के पाँव में झुक गया।

सूरज को देखते ही ठाकुर सूर्यकांत सिंह ने पाटदार आवाज़ में कहा - भीखू आज बहुत शुभ दिन है, आज तुम अपनी वफादारी अपने बेटे के कंधे पे डाल के हवेली के एहसान का क़र्ज़ चुकाओ और तुम अब हमारे खास नौकर हुए।

भीखू की आखों में आंसू तैरने लगे और उसने रुंधे हुए गले से कहा - सब आपकी किरपा है मालिक, आपका आदेश मेरे माथे का तिलक के समान है।

अच्छा अब तुम जा के बहार के काम देखो। सूरज, जरा मेरी जूती साफ़ कर के ला और पहना तो।

ठाकुर का हुक्म सूरज के गाल पे तमाचे की तरह लगा, उसने कहा - मैं आपका ग़ुलाम नही।

रहदारी से गुज़रते भीखू के क़दम ये सुन के वहीँ जम गए।

ठाकुर सूर्यकांत सिंह ने गरजते हुए कहा - वर्षों से तेरा खानदान हमारे पाँव के जूती के नीचे रहा और तू आज मेरे पाँव की जूती उठाने से इंकार करता है हरामखोर। हराम के जने, हमारे एहसान की जंज़ीरें इतनी कमज़ोर नहीं जो तुझे इतनी जल्दी आज़ादी मिल सके।

ज़बान पे लगाम दीजिये ठाकुर साहब, वरना कहीं ऐसा न हो के मेरी ज़बान और मेरे हाथ दोनों आज़ाद हो जाएँ।

कुत्ते की औलाद, हमारा खा के हमें पे भौंकता है, तेरी रगों में बहने वाला खून का बूंद बूंद मेरा कर्ज़दार है।

आपका नही हम अपनी मेहनत का खाते हैं। जो आप खाओ उससे बनने वाला खून आपका पर जो खेत हम जोतें, बोयें, सींचे, काटें वो आपका कैसे?

ठाकुर सूर्यकांत सिंह ने गुस्से से फुंफकारते हुए हंटर उठाया और सूरज पे बरसाने लगे।

बेटे के जिस्म पे पड़ते कोड़े की आवाज़ से भीखू बेचैन हो गया और दौड़ते हुए ठाकुर के पास गया और ठाकुर से रहम की भीख मांगने लगा पर ठाकुर पे तो भूत सवार था, उसने २-४ भीखू पे भी बरसा दिए।

सूरज ने खुद के जिस्म पे पड़े निशान को भूल बाप पे पड़ते कोड़े से बेचैन हो गया और जैसे ही ठाकुर ने हंटर उठाया उसे हवा में ही सूरज की मज़बूत हथेलियों ने रोक लिया।

ठाकुर सूर्यकांत सिंह ने क्रोध से लाल होते हुए दीवार पे टंगी म्यान से तलवार निकली और सूरज पे वर कर दिया पर भीखू ने फुर्ती दिखाते ही बेटे को परे किया और ठाकुर के पैरों पे गिर के माफ़ी मांगने लगा।

मौका देख सूरज ने ठाकुर सूर्यकांत सिंह के हाथ से तलवार झपटा और क्रोध से आँखें लाल किये बोला - मैं आपके सरे एहसान का क़र्ज़ चुकाने को तैयार हूँ, जो भी अपने खिलाया-पिलाया वो हमारे रगों में लहूँ बन के दौड़ रहा है न तो मैं आज वो लहू आपको भेंट करना चाहता हूँ। मैं नहीं चाहता के दुनिया मेरे खानदान को नमक हराम कहे इसलिए मैं आपके नमक के एक-एक कण का क़र्ज़ चूका रहा हूँ , इतना कहते ही उसने तलवार से अपने गले पे वार कर दिया। खून का फव्वारा उबल पड़ा। बेटे का खून देख भीखू बेहोश हो गया और उधर आसमान में दिन का सूरज डूब रहा था इधर हवेली में भीखू का सूरज और ठाकुर सूर्यकांत सिंह आँख फाड़े देखते रहे और सूरज के जिस्म से निकला खून फर्श पे नमक का क़र्ज़ चुकाने के लिए फैलने लगा ।

~
© नैय्यर / 06-10-2013
Naiyar Imam Siddiqui 

No comments:

Post a Comment