Sunday 16 March 2014

***_ अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी बनाम मदरसा : संस्कृति के साथ भेदभाव _***
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"Do not show the face of Islam to others; instead show your face as the follower of true Islam representing character, knowledge, tolerance and piety." - Sir Syed Ahmed Khan

आज जो वर्तमान है वो इतिहास की नींव पर खड़ा है और हर वर्तमान को एक दिन इतिहास बनना है। इतिहास के गर्भ में ही समाई है अपनी सभ्यता और संस्कृति और हमारा उदय भी। एक हफ्ता पहले यानि 09-03-2014 को मैंने अंग्रेज़ी के मशहूर अख़बार 'टाइम्स ऑफ़ इंडिया' में ख़बर पढ़ी थी, Don’t turn AMU into a madrassa: Students (http://timesofindia.indiatimes.com/india/Dont-turn-AMU-into-amadrassaStudents/articleshow/31698057.cms) तब मैंने सोचा था कि आख़िर वो कौन से स्टूडेंट हैं जिन्हें AMU मदरसा नज़र आता है। पिछले हफ्ते मैं कुछ ज़यादा ही मसरूफ रहा, सो इस मुद्दे पे अब क़लम उठा रहा हूँ। उम्मीद है AMU और आपकी सोच के साथ इन्साफ़ कर पाउँगा।

सर सैयद अहमद ख़ान जो ब्रिटिश हुक़ूमत में ऊँचे ओहदे पे कार्यरत थे। 1858 में उनका तबादला मुरादाबाद कोर्ट में कर दिया गया जहाँ उन्होंने कई किताबें लिखीं, 1857 मैं ग़दर के बाद जिसमें बड़े पैमाने पर क़त्ल-वोग़ारत हुआ, वो बहुत बेचैन रहने लगे क्यूंकि ग़दर में मुसलमानों को बहुत ही ज़यादा नुकसान हुआ था। 1859 में उन्होंने एक बुकलेट छपवाया "असबाब-ए-बग़ावत-ए-हिन्द" जिसमें 1857 के विद्रोह की वजह और उसकी विफलता का कारण बताया। उन्होंने खुले लफ़्ज़ों में अंग्रेज़ों को भारतीय संस्कृति से खिलवाड़ करने पर लताड़ा। ब्रिटिश हुक़ूमत में मुसलमानों की उच्च पदों पर कम संख्या पर भी सवाल उठाया और मुसलमानों की भागीदारी उच्च पदों पर बढ़ाने की मांग की। जब सालों तक उनकी मांग को ब्रिटिश हुक़ूमत ने दरकिनार किया तो 1875 में सर सैयद अहमद ख़ान ने मुसलमानों को सरकारी नौकरी में जोड़ने के लिए मदरसतुल-उलूम-मुसलमानान-ए-हिन्द की बुनियाद रखी। इस से पहले 1866 में 'यूनाइटेड प्रोविंस'के देवबन्द में मुहम्मद क़ासिम ननौतवी और उनके साथियों ने दारुल उलूम देवबन्द की बुनियाद इस्लामिक स्कूल के रूप में रख दी थी लेकिन दारुल उलूम देवबन्द का मिशन उनके मिशन से अलग था। 'मदरसतुल-उलूम-मुसलमानान-ए-हिन्द' आगे चल कर 'मुहम्मडन एंग्लो-ओरिएण्टल कॉलेज' के नाम से मशहूर हुआ और कॉलेज से निकले बच्चे उनकी सोच में रंग भरने लगे। सर सैयद अहमद ख़ान का मिशन था इस्लामिक सोच के साथ मॉडर्न शिक्षा, उनका कहना था कि जो बच्चे यहाँ पढ़ने आयें उनके एक दाहिने हाथ में क़ुरान, बाएं हाथ में साइंस और सर पर 'ला इलाहा इ लल्लाह' का ताज हो। उनकी सोच और मिशन जो 'मदरसतुल-उलूम-मुसलमानान-ए-हिन्द' से शुरू हुई में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी बनी जिसे तात्कालिक ब्रिटिश हुक़ूमत ने सेंट्रल यूनिवर्सिटी का दर्जा दिया।

सर सैयद अहमद ख़ान अपने कॉलेज को कभी मदरसा नहीं बनाना चाहते थे। इंग्लैंड के सफ़र से वापसी के बाद उनकी सोच ये थी कि उनका कॉलेज 'ऑक्सफ़ोर्ड' और 'कैंब्रिज' की तरह हो। और यूनिवर्सिटी की आर्ट्स फैकल्टी उनके दिमाग़ में आये उसी ऑक्सफ़ोर्ड और कैंब्रिज का जीता जगता रूप है। वो विदेशी और उच्च शिक्षा के पक्षधर थे पर इस्लामिक मूल्यों के साथ। उस दौर में उन्होंने अंग्रेजी में शिक्षा देने के पक्ष में थे जिसपर लोगों ने उन्हें काफिर तक कहा जबकि उनका नज़रिया कुछ और था।

In one of his lecture Sir Syed stated: The main reason behind the establishment of this institution, as I am sure all of you know, was the wretched dependence of Muslims, which had been debasing the position day after day. Their religious fanaticism did not let them avail the educational facilities provided by the government schools and colleges. It was, therefore, deemed necessary to make some special arrangement for their education. Suppose, for example, there are two brothers, one of them is quite hale and hearty but other is diseased. His health is on the decline. Thus it is the duty of all brothers to take care of their ailing brother bear the hands in his trouble. This was the very idea which goaded me to establish the Mohammedan Anglo Oriental College. But I am pleased to say that both the brothers get the same education in this college. All rights of the college appertaining to those who call themselves Muslims are equally related to those who call themselves Hindus without any reservations. There is no distinction whatsoever between Hindus and Muslims. Only one who strive hard can lay claim to get the award. Here in this college Hindus as well as Muslims are entitled to get the stipends and both of them are treated at par as boarders. I regard both Hindus and Muslims as my two eyes".

Pandit Jawaharlal Nehru correctly saw the spirit of Sir Syed's mission when he started in his autobiography:

So, to this education he turned all his energy trying to win over his community to his way of thinking. He wanted no diversions or distraction from other directions: it was a difficult enough piece of work to overcome the inertia and hesitation of the Muslims. The Hindus, half a century ahead in Western education, could indulge in this pastime. Sir Syeds decision to concentrate on Western education for Muslims was undoubtedly a right one. Without that they could not have played any effective part in the building up of Indian nationalism of the new type, and they would have been doomed to play second fiddle to the Hindus with their better education and far stronger economic position. The Muslims were not historically or ideologically ready then for the bourgeois nationalist movement as they had developed no bourgeoisie, as the Hindus had done. Sir Syeds activities, therefore, although seemingly very moderate, were in the right revolutionary direction.

The establishment of M. A. O. College was described by Lord Lytton as an epoch in the social progress of India. Several decades later Sir Hamilton Gibb characterized the college as the first modernist institution in Islam.

सर सैयद अहमद ख़ान के बेटे सैयद महमूद (जो ब्रिटिश हुक़ूमत में हाई कोर्ट के पहले मुस्लिम जज और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के वाईस-चांसलर भी रहे) 1872 में कैंब्रिज से शिक्षा ले कर में वापस आये और 'मुहम्मडन एंग्लो-ओरिएण्टल कॉलेज' को यूनिवर्सिटी बनाने का सुझाव दिया जिसे कमिटी ने मान लिया और उस समय के ब्रिटिश इंडिया के पहले पूर्ण आवासीय विश्वविद्यालय की नींव पड़ी। यूनिवर्सिटी बनने से पहले कॉलेज पहले कलकत्ता विश्वविद्यालय और फिर 1885 में इलाहबाद विश्वविद्यालय से सम्बद्ध रहा। अगर मक़सद मदरसा बनाना होता तो दारुल-उलूम से इसका सम्बद्ध होता, कलकत्ता और इलाहबाद विश्वविद्यालय से नहीं और न अंग्रेज़ी में उच्च शिक्षा को बढ़ावा दिया जाता। वर्षों तक ये कॉलेज मुस्लिम शिक्षा और राजनीती का केंद्र रहा। 1901 में वाइसराय लार्ड कर्ज़न ने कॉलेज का दौरा किया, शिक्षा और विकास का काम देख आशचर्यचकित रह गए। उन्होंने प्रसंशा में कहा - "sovereign importance.”

जिस वक़्त देश में महिला शिक्षा को पाप माना जाता था उस समय यानि 1906 में कॉलेज ने महिला शिक्षा की बुनियाद डाली जो आज 'वीमेंस कॉलेज' के रूप में राष्ट्र सेवा में एक शताब्दी से अनवरत अपना योगदान दे रहा है। कोई मुझे ये बताये कि किस मदरसे ने महिला शिक्षा में इतना योगदान दिया है? दारुल-उलूम देवबंद में सिर्फ पुरुष ही शिक्षा पाते हैं और देश में कुछ ही मदरसे हैं जो महिला शिक्षा से जुड़े हैं वरना अधिकतर मदरसे में प्रारंभिक शिक्षा ही मिलती है लड़कियों को और मदरसों की हालत इस देश में क्या है, सबको पता है। सुल्तान जहाँ बेग़म 1927 में यूनिवर्सिटी की चांसलर बनी और आज तक ये किसी मदरसे के लिए ख्वाब है कि कोई महिला सर्वोच्च पद पर बैठ कमान सम्भाले।

1877 में Lord Lyyton ने कॉलेज के 'स्ट्रेची हॉल' की बुनियाद रखी। 1881 में ग्रेजुएशन की पढाई शुरू हुई और 1884 में ईश्वरी प्रसाद कॉलेज से पहले ग्रेजुएट हुए। 1884 में स्टूडेंट्स यूनियन का गठन हुआ और 1891 में क़ानून की पढ़ाई शुरू हो गयी। 1906 में प्रिंसेस ऑफ़ वेल्स का आगमन हुआ जिनके नाम पर साइंस फैकल्टी की स्थापना और नामकरण हुआ। 1920 में महात्मा गांधी कॉलेज में पधारे। 1922 में पहला दीक्षांत समारोह हुआ। 1927 में ब्लाइंड स्कूल, 1928 में तिब्बिया कॉलेज, 1938 में इंजीनियरिंग फैकल्टी शुरू हुई। 1955 में पंडित नेहरू नें मौलाना आज़ाद लाइब्रेरी कि उद्घाटन किया। 1956 में मेडिकल कॉलेज शुरू हुआ। 1960 में फोर्ड फाउंडेशन, अमेरिका द्वारा दिए गए 22 लाख रुपए से कैनेडी ऑडिटोरियम की नींव रखी गयी। 1961 में आर्ट्स और कॉमर्स फैकल्टी, 1966 में वीमेंस पॉलीटेकनिक तो 1969 में सोशल साइंस की पढाई शुरू हुई जो किसी भी मदरसे के लिए एक स्वप्न सा है। देश या विदेश में कितने ऐसे मदरसे हैं जिनके पास अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की तरह विरासत, संस्कृति और तालीम का अलग मेयार है।

अब बात मदरसे वाली मानसिकता की। सारी दुनिया में AMU अपनी तहज़ीब और विरासत के लिए जानी जाती है। बहुत पहले शेरवानी ड्रेसकोड हुआ करता था अब वो भी नहीं है। सब कुछ पहनने की आज़ादी है पर इतनी सी पाबन्दी ये है कि आन बग़ैर शेरवानी के कुरता-पाजामा नहीं पहन सकते। जब लड़कों के पहनने पर कोई पाबन्दी नहीं हैं तो लड़कियों पर कैसे लग सकती है कोई पाबन्दी, पर हम आधुनिकता के बहाने यूनिवर्सिटी कैंपस में अपनी तहज़ीब, अपना कल्चर नंगेपन में नहीं ढाल सकते। नंगापन न तो भारत कि संस्कृति है और न मुसलमान की। जिनको यूनिवर्सिटी की संस्कृति और तहज़ीब से इतना बैर है वो यूनिवर्सिटी छोड़ के चले क्यूँ नहीं जाते? वो वहाँ चले जाएं जहाँ मदरसा उनके सोच से परे ही रहे। जब जीन्स,टी-शर्ट, जीन्स-कुर्ती पहनने की आज़ादी है फिर काहे का मदरसा? आप ये सब मदरसे में पहन सकते हैं क्या? जब कहीं से कोई मुद्दा न मिले तो बैठे ठाले यूनिवर्सिटी को बदनाम करने का कोई बहाना ढूँढ लेना मेरी नज़र में यूनिवर्सिटी के साथ गद्दारी है। जिस थाली में खाओ उसी में छेद करने के जैसा है उनका विचार जो इस अज़ीम यूनिवर्सिटी की आबरू पर कीचड़ उछालते हैं। AMU में General Education Centre है जहाँ ड्रामा क्लब, म्यूजिक क्लब, लिटरेरी क्लब, फ़िल्म क्लब, पेंटिंग, क्ले मॉडलिंग और शॉर्ट कोर्सेज के कई सरे क्लब हैं जहाँ लड़के लड़कियां साथ में अपने हुनर को निखारते हैं। यूनिवर्सिटी ने हर क्षेत्र में कई सरे रत्न पैदा किया हैं और सबका नाम गिनाना मुमकिन नहीं, आप उन सितारों के नाम यहाँ पढ़ सकते हैं http://www.amu.ac.in/pdf/Alumni.pdf

भारत की पहली बोलती फ़िल्म 'आलमआरा' में आवाज़ भी इसी यूनिवर्सिटी की स्टूडेंट ज़ुबेदा कि थी। तब हेरोइनें अपना गाना ख़ुद गति थी। फ़िल्म के अलावा खेल, शिक्षा, राजनीती, चिकित्सा, वाणिज्य, अभियांत्रिकी, कला, साहित्य, विज्ञानं और ज़िन्दगी से जुड़े हर क्षेत्र में इस विश्वविद्यालय के स्टूडेंट ने अपना नाम रौशन किया है। बाक़ी नाम तो शायद ही ज़ेहन में आये पर क्या कोई मुहम्मद अली, शौकत अली, हसरत मोहानी, राजा महिंदर प्रताप, सैयद हुसैन, रफ़ी अहमद क़िदवई, मुहम्मद युनुस, डॉ. ज़ाकिर हुसैन, अयूब ख़ान, लियाक़त अली ख़ान, सईद खान छत्तारी, शैख़ अब्दुल्लाह, अब्दुल ग़फ़ूर, शफ़ी क़ुरैशी, बी.पी. मौर्या, सैयद मोहम्मद, अब्दुल हक़, के.एम. पणिकर, मोहम्मद हबीब, हादी हसन, फानी बदायुनी, जोश मलीहाबादी, मजाज़, जज़बी, अली सरदार जाफ़री, सज्जाद हैदर यलदरम, मंटो, इस्मत चुग़ताई, क़ाज़ी अब्दुल सत्तार, रशीद अहमद सिद्दीक़ी, राजा राव, साजिदा ज़ैदी, ज़ाहिदा ज़ैदी, रविन्द्र भरमार, शिव शंकर शर्मा, नुरुल हसन, सतीश चन्द्रा, ए. आर. क़िदवई, मसूद हुसैन ख़ान, रईस अहमद, मोनिस रज़ा, ज़हूर क़ासिम, के. ए. निज़ामी, महमूद बट, बेग़म परा, नीना, रेणुका देवी, तलत महमूद, शकील बदायुनी, रही मासूम रज़ा, जां निसार अख्तर, जावेद अख्तर, रहमान, तबस्सुम, नसीरुद्दीन शाह, दिलीप ताहिल, अभिनव, ग़ौस मुहम्मद, वज़ीर अली, नज़ीर अली, लाला अमरनाथ, सी. एस. नायडू, मुस्ताक अली, मुहम्मद ज़फर, इनामुर रहमान, गोविंदा, ज़फर इंकबाल, अब्दुल क़य्यूम, सैयद अली, अनवर ख़ान, डोरास्वामी इत्यादि नाम तो ऊँगली पे गिने ही जा सकते हैं जो किसी मदरसे से सम्बद्ध नही बल्कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की देन हैं।

दरअसल, कुछ लोग ऐसे हैं जो इस यूनिवर्सिटी को फलते फूलते नहीं देख सकते, और ऐसे मुट्ठी भर लोग ही यूनिवर्सिटी को बदनाम करते हैं जबकि करोड़ों लोग इस यूनिवर्सिटी पर मर मिटने को तैयार हैं। मजाज़ के लफ़्ज़ों में अगर कहूं तो - ख़ुद आँख से हमने देखी है बातिल कि शिकश्त-ए-फाश यहाँ।

© नैय्यर /16-03-2014

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