Wednesday 12 March 2014

सवाल
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मास्टर जी, ये … दंगाई और आतंकवादी का का मतलब होता है?

मास्टर अब्दुल करीम बरामदे में हाथ वाली लकड़ी की कुर्सी में समाए सामने बिछे तख़्त पे बिखरे अख़बारों में खोये थे जब रामरतन की आवाज़ उनके कानों में पड़ी। 

मास्टर अब्दुल करीम ने अख़बार में नज़रे गड़ाए ही पूछा, क्यूँ, तुम्हें क्या ज़रूरत पड़ गयी इन शब्दों के जाल में फंसने की ?

मैं काहे को अपनी आँख में धुआं भरूँ ? ई दोस तो हम पे पंचायत ने लगाया है, सो मैं आ गया आपसे पुछने के कौने बड़ा जुरम है का ई … हम पे फौजदारी का मुकदमा तो नाही होगा ?

पंचायत ! पर पंच तो मैं भी हूँ, मुझे तो किसी ने कुछ नहीं बताया। ख़ैर ! जब सरकार ने ही रिटायर कर दिया तो फिर भला पंचायत क्यूँ पूछने लगी मुझे ? पर तु बता तुने ऐसा क्या किया जो पंचायत ने तुझे दंगाई और आतंकवादी ठहरा दिया ?

मास्टर जी, गाँव की पंचायत से नहीं, बड़े साहब की पंचायत से हो के आ रहा हूँ। बड़े साहब ने मेरे सातों पुस्तों को जी भर के गरियाया, वो सब समझ में आया पर दुई चीज 'दंगाई और आतंकवादी' का होत है नाही समझ पाया सो चला आया आपके पास।

मैं तुझे इसका मतलब बताता हूँ पर पहले तू ये बता के ठाकुर ने तुझे गली क्यूँ दी?

मास्टर जी, आप तो जानत हो कि ई बरस बरखा ने धरती की प्यास नाही बुझाई है। खेत मेरे कलेजे की तरह फटे पड़े हैं और धान ऐसे मुरझाया है जैसे मेरी सूरत। धरती की प्यास हमसे देखी नाही गयी तो परसों मैंने बड़े साहब की बावड़ी से 15-20 बाल्टी पानी लेकर अपने खेत में ऐसे छिड़का जैसे बड़े साहब के द्वार पे मैं हर शाम धुल पे छिड़कता हूँ। मेरी किस्मत खराब, बावड़ी पे नौकरी करने वाले मंगरू ने देख लिया और बड़े साहब से मेरी नालिस कर दी और मैं पुरखों की इज्जत हवेली में नीलाम कर आया। मास्टर जी, माना कि बावड़ी बड़े साहब की है, पर पानी तो नहीं। पानी तो उपरवाले ने बनाया है और वो तो सबका हुआ न ?

मास्टर जी, मैंने पानी चुराया था तो मैं चोर हुआ ना, फिर ये दंगाई और आतंकवादी का का मतलब ?

मास्टर अब्दुल करीम ने चश्मा उतार कर अख़बार पर रखते हुए कहा - आज कल चोरी की परिभाषा बदल गयी है, अब एक चोर दुसरे को चोर नहीं कहता। और हाँ ! दंगाई उसको कहते हैं जो शांति भंग करे और नफरत फैलाये।

और आतंकवादी ? रामरतन ने बरामदे की कच्ची ज़मीन को पैर के अंगूठे से कुरेदते हुए पुछा।

आतंकवादी उसको कहते हैं जो हिंसा, डर, भय दिखा कर ज़बरदस्ती अपनी बात मानवता है।

अच्छा मास्टर जी, मैंने तो सिरफ पानी चुराया था और मैं अपना अपराध मानता भी हूँ और सजा के रूप में दंगाई और आतंकवादी की गली भी मैंने अपने सातों पुरखों के साथ सुन ली पर आप ये बताओ कि जो हमसे बेगार खटवाते हैं, तन को कपडा पेट को अनाज नहीं देते, हमारे बच्चों को स्कूल नहीं जाने देते। हमारी लुगाई, बहन, बेटी के साथ जबरदस्ती करते हैं, खेत हम जोतें पर अनाज वो ले जाते हैं फिर भी हमसे लगान मांगते हैं, हमारी गरीबी हमारे पीठ पे सूद समेत वापस कर देते हैं, हम पे हुकूमत करते हैं, हमारे पूर्वजों को गाली देते हैं, हमारा खून चूसते हैं, हमें आपस में लड़वाते हैं, हमारे खून से अपना तिलक करते हैं वो कौन हैं ?

मास्टर अब्दुल करीम के पास भी इस सवाल का कोई जवाब नहीं था सिवाए रामरतन का मुँह ताकने के।

© नैय्यर / 22-09-2013
Naiyar Imam Siddiqui 

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