Wednesday 12 March 2014

“मैं सच कहूँगा तो न आएगा तुझे मुझ पे यक़ीं,
आईने से पुछ वो सच परखने का हुनर जनता है” 
© नैय्यर 

आतंकवाद का जनक अमरीका कीनिया के गुनहगार अल-शबाब से बदला लेने के लिए कीनिया पर आतंकवाद के ख़ात्मे के बहाने आक्रमण नहीं करेगा? अपने आतंकवाद की प्रयोगशाला में ही अमरीका ने रूस पे आक्रमण के लिए ओसामा बिन लादेन को तैयार किया (http://www.thehindu.com/news/international/osamas-killing-a-major-success-russia/article1985349.ece) और बेहद सुनियोजित ढंग से वर्ल्ड ट्रेड टावर पर हमला कर तालिबान के ख़ात्मे के बहाने अफ़ग़ानिस्तान की प्राकृतिक संसाधन पर क़ब्ज़ा किया एवं ओसामा बिन लादेन को मारने से पहले लाखों निर्दोषों का खून अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान में बहाया। कभी अफ़ग़ानिस्तान की वादी 'तोरा-बोरा' को महज़ इसलिए बारूद से उड़ा दिया कि वहां ओसामा छुपा था तो कभी पाकिस्तान को ड्रोन हमला तोहफे में दिया। क्या अमरीका की ख़ुफ़िया संस्था एफ. बी. आई, सी. आई. ए और नेवीगेशन सिस्टम इतना घटिया है कि ११ साल तक ये नहीं पता कर सकी कि ओसामा कहाँ छुपा है? अमरीका तो किसी को मौत भी मुफ्त में नहीं देता फिर भला पाकिस्तान को करोड़ों डॉलर मुफ्त में कैसे दे दे? अमरीका ने अपने डॉलर की क़ीमत का सौदा निर्दोष पाकिस्तानियों के खून से किया है और अब भी पेशावर में हुए चर्च पर हमले का बदला ड्रोन हमला से पूरा किया जायेगा।

वियतनाम पर रासायनिक हमला करने वाला अमरीका (http://en.wikipedia.org/wiki/Agent_Orange) पहले रासायनिक हथियार फिर शिया-सुन्नी के बहाने इराक़ में घुसा और वहां प्रतिदिन औसतन २० जिंदगियों का सौदा कर रहा है पर किसी अख़बार के कोने में ही सही इसकी ख़बर नहीं मिलती। इराक़ में अमरीका के घुसने का मक़सद तेल पे एकाधिकार और वर्चस्व के सिवा कुछ नहीं है, पर ये एकाधिकार और वर्चस्व किस क़ीमत पर? बेगुनाहों के खून पर अमरीका के जूते अच्छे नहीं लगते क्यूँकि खून के निशान चेचेनिया, बोस्निया, नागासाकी, हिरोशिमा, कम्बोडिया, कोलंबिया, सीरिया, मिस्र, जॉर्डन, यमन, ईरान, अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, भारत और न जाने कहाँ कहाँ जायेंगे……………?

इथोपिया और इरीट्रिया के बीच शत्रुता है और इरीट्रिया इथोपिया का प्रभाव रोकने के लिए अल-शबाब का समर्थन करता है। अमरीका के समर्थन से इथोपिया ने २००६ में सोमालिया में सैनिक भेजे थे, ताकि इस्लामिक लड़ाकों को हराया जा सके। (http://www.bbc.co.uk/hindi/international/2013/09/130922_somalia_al_shabab_ap.shtml) अमरीका शत्रुता मिटने के बहाने खून की दलाली करता है। ये बात दिन और रात की सच है कि अमरीका ही प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से आतंकवाद के लिए धन मुहैय्या कराता है। (http://www.cbn.com/cbnnews/356986.aspx) (जो लोग तालिबान या पाकिस्तान का नाम लेते हैं उनको पता होना चाहिए कि अमरीका ही पाकिस्तान को करोड़ो डॉलर देता है जिसमें से तालिबान अपना हिस्सा ले जाता है) जिस पाकिस्तान वायु सेना के एयर कमोडोर एम. एम. आलम (http://en.wikipedia.org/wiki/Muhammad_Mahmood_Alam) ने १९६५ के भारत-पाक युद्ध में ३० सेकेण्ड के भीतर भारतीय वाये सेना के ४ विमान गिराए उस पाकिस्तान के लिए तालिबान को ख़तम करना कोई मुश्किल काम नहीं पर अमरीका आतंकवाद की आग को धधकाए रखना चाहता है और पाकिस्तान 'जिस थाली में खाओ उसमें छेद नहीं करना चाहिए' वाले मुहावरे को चरितार्थ कर रहा है।

जिस अमरीका को पाकिस्तान की ग़रीबी की इतनी चिंता है उसको अफ़्रीकी देशों की दुर्दशा नहीं दिखती? अमरीका अल-शबाब को आतंकवादी ग्रुप मानता है और २०११ में जब सोमालिया बड़े अकाल से गुज़र रहा था, उसने सोमालिया के उस बड़े इलाक़े में सहायता रोक दी थी, जो उसके नियंत्रण में था। (http://www.bbc.co.uk/hindi/news/2011/07/110721_us_somalia_pp.shtml) अप्रैल २०१० में राष्ट्रपति बराक ओबामा ने एक कार्यकारी आदेश जारी करते हुए अल शबाब को एक आतंकवादी संगठन घोषित किया था. इसका मतलब ये था कि अल शबाब के नियंत्रण वाले इलाक़ों में अमरीकी सहायता नहीं भेजी जा सकती थी। जो तालिबान से नहीं डरा वो अल-शबाब से क्यूँ डर गया? जो अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान में घुस कर आतंकवाद ख़तम कर सकता है वो सोमालिया में अल-शबाब के सामने घुटने टेकता है, क्यूँ? मतलब साफ़ है - आतंकवाद के नाम पर दोगली नीति।

आप किसी के घर में घुस के दादागिरि करो, माँ, बहन, बहु-बेटियों के साथ बलात्कार करो, बाप-भाई रिश्तेदारों का खून करो और अगर प्रतिशोध में वो हथियार उठा ले तो आतंकवादी? हमारे हिंदी सिनेमा में ज़ुल्म के ख़िलाफ अगर नायक हथियार उठा ले तो तो नायक ही रहता है पर असल ज़िन्दगी में कोई करे तो वो आतंकवादी। सैकड़ो ऐसी फिल्में हैं जिसमें नायक गुंडा, डाकू और अपराधी बन बदला लेता है पर हम उसे बुरा कहने का साहस नहीं कर पाते क्यूंकि आतंकवाद के नाम पर हमारे नज़रिए में भी झोल है और शायद विकास के दौड़ में हमनें उन डाकुओं और अपराधियों को आतंकवादी का नाम दे दिया, क्यूंकि हर चीज़ का 'Globalization' ज़रूरी है। शायद रील में रियल में यही फर्क़ है।
मेरा ये लेख आतंकवाद के समर्थन में नहीं है। मेरा मक़सद आतंकवाद के नाम पर हो रही घिनौनी साजिश का पर्दाफाश करना है। मैं हर तरह के आतंकी घटना की निंदा करता हूँ और हमेशा आतंकवाद के खिलाफ सच्चाई से लड़ता रहूँगा। 


© नैय्यर /
 24-09-2013

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